मेरुगिरि के स्कन्द-सरोवर के तट पर मुनियों का सनत्कुमारजी से मिलना, भगवान् नन्दी का वहाँ आना और दृष्टिपात मात्र से पाशछेदन एवं ज्ञानयोग का उपदेश करके चला जाना, शिवपुराण को महिमा तथा ग्रन्थ का उपसंहार

सूतजी कहते हैं – वहाँ मेरु पर्वत पर सागर के समान एक विशाल सरोवर है, जिसका नाम स्कन्द-सर है। उसका जल अमृत के समान स्वादिष्ठ, शीतल, स्वच्छ, अगाध और हलका है। वह सरोवर सब ओर से स्फटिकमणि के शिलाखण्डों द्वारा संघटित हुआ है। उसके चारों ओर सभी ऋतुओं में खिलनेवाले फूलों से भरे हुए वृक्ष उसे आच्छादित किये रहते हैं। उस सरोवर में सेवार, उत्पल, कमल और कुमुद के पुष्प तारों के समान शोभा पाते हैं और तरंगें बादलों के समान उठती रहती हैं, जिससे जान पड़ता है कि आकाश ही भूमि पर उतर आया है। वहाँ सुखपूर्वक उतरने-चढ़ने के लिये सुन्दर घाट और सीढ़ियाँ हैं। वहाँ की भूमि नीली शिलाओं से आबद्ध है। आठों दिशाओं की ओर से वह सरोवर बड़ी शोभा पाता है। वहाँ बहुत-से लोग नहाने के लिये उतरते हैं और कितने ही नहाकर निकलते रहते हैं। स्नान करके श्वेत यज्ञोपवीत और उज्ज्वल कौपीन धारण किये, वल्कल पहने, सिर पर जटा अथवा शिखा रखाये या मूँड़ मुड़ाये, ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाये, वैराग्य से विमल एवं मुसकराते मुखवाले बहुत-से मुनिकुमार घड़ों में, कमलिनी के पत्तों के दोनों में, सुन्दर कलशों में, कमण्डलुओं में तथा वैसे ही करकों (करवों) आदि में अपने लिये, दूसरों के लिये, विशेषतः देवपूजा के लिये वहाँ से नित्य जल और फूल ले जाते हैं। वहाँ इृष्ट और शिष्ट पुरुष जल में स्नान करते देखे जाते हैं। उस सरोवर के किनारे की शिलाओं पर तिल, अक्षत, फूल और छोड़े हुए पवित्रक दृष्टिगोचर होते हैं। वहाँ स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार की पुष्पबलि आदि दी जाती है। कुछ लोग सूर्य को अर्घ्य देते हैं और कुछ लोग वेदी पर बैठकर पूजन आदि करते हैं।

उस सरोवर के उत्तर तट पर एक कल्पवृक्ष के नीचे हीरे की शिला से बनी हुई वेदी पर कोमल मृगचर्म बिछाकर सदा बालरूपधारी सनत्कुमारजी बैठे थे। वे अपनी अविचल समाधि से उसी समय उपरत हुए थे। उस समय बहुत-से ऋषि-मुनि उनकी सेवा में बैठे थे और योगीश्वर भी उनको पूजा करते थे। नैमिषारण्य के मुनियों ने वहाँ सनत्कुमारजी का दर्शन किया। उनके चरणों में मस्तक झुकाया और उनके आस-पास बैठ गये। सनत्कुमारजी के पूछने पर उन ऋषियों ने उनसे ज्यों ही अपने आगमन का कारण बताना आरम्भ किया, त्यों ही आकाश में दुन्दुभियों का तुमुल नाद सुनायी दिया। उसी समय सूर्य के समान तेजस्वी एक विमान दृष्टिगोचर हुआ, जो असंख्य गणेशवरों द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ था। उसमें अप्सराएँ तथा रुद्रकन्याएँ भी थीं। वहाँ मृदंग, ढोल और वीणा की ध्वनि गूँज रही थी। उस विमान में विचित्र रत्नजटित चँदोवा तना था और मोतियों की लड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। बहुत-से मुनि, सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष, चारण और किन्नर नाचते, गाते और बाजे बजाते हुए उस विमान को सब ओर से घेरकर चल रहे थे, उसमें वृषभचिह्न से युक्त और मूँगे के दण्ड से विभूषित ध्वजा-पताका फहरा रही थी, जो उसके गोपुर की शोभा बढ़ाती थी। उस विमान के मध्य-भाग में दो चँवरों के बीच चन्द्रमा के समान उज्ज्वल मणिमय दण्डवाले शुद्ध छत्र के नीचे दिव्य सिंहासन पर शिलादपुत्र नन्दी देवी सुयशा के साथ बैठे थे। वे अपनी कान्ति से, शरीर से तथा तीनों नेत्रों से बड़ी शोभा पा रहे थे। भगवान् शंकर को आवश्यक कार्यों की सूचना देने वाले वे नन्दी मानो जगत्स्त्रष्टा शिव के अलंघनीय आदेश का मूर्तिमान् स्वरूप होकर वहाँ आये थे, अथवा उनके रूप में मानो साक्षात् शम्भु का सम्पूर्ण अनुग्रह ही साकार रूप धारण करके वहाँ सबके सामने उपस्थित हुआ था। शोभाशाली श्रेष्ठ त्रिशूल ही उनका आयुध है। वे विश्वेश्वर गणों के अध्यक्ष हैं और दूसरे विश्वनाथ की भाँति शक्तिशाली हैं। उनमें विश्व-स्त्रष्टा विधाताओं का भी निग्रह और अनुग्रह करने की शक्ति है। उनके चार भुजाएँ हैं। अंग-अंग से उदारता सूचित होती है, वे चन्द्रलेखा से विभूषित हैं। कण्ठ में नाग और मस्तक पर चन्द्रमा उनके अलंकार हैं। वे साकार ऐश्वर्य और सक्रिय सामर्थ्य के स्वरूप-से जान पड़ते हैं।

उन्हें देखकर ऋषियों सहित ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। वे दोनों हाथ जोड़कर उठे और उन्हें आत्मसमर्पण-सा करते हुए खड़े हो गये। इतने ही में वह विमान धरती पर आ गया, सनत्कुमार ने देव नन्दी को साष्टांग प्रणाम करके उनकी स्तुति की और मुनियों का परिचय देते हुए कहा – 'ये छः कुलों में उत्पन्न ऋषि हैं, जो नैमिषारण्य में दीर्घकाल से सत्र का अनुष्ठान करते थे। ब्रह्माजी के आदेश से आपका दर्शन करने के लिये ये लोग पहले से ही यहाँ आये हुए हैं।' ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार का यह कथन सुनकर नन्दी ने दृष्टिपात मात्र से उन सबके पाशों को तत्काल काट डाला और ईश्वरीय शैवधर्म एवं ज्ञानयोग का उपदेश देकर वे फिर महादेवजी के पास चले गये। सनत्कुमार ने वह समस्त ज्ञान साक्षात् मेरे गुरु व्यास को दिया और पूजनीय व्यासजी ने मुझे संक्षेप से वह सब कुछ बताया। त्रिपुरारि शिव के इस पुराणरत्न का उपदेश वेद के न जानने वाले लोगों को नहीं देना चाहिये। जो भक्त और शिष्य न हो, उसको तथा नास्तिकों को भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। यदि मोहवश इन अनधिकारियों को इसका उपदेश दिया गया तो यह नरक प्रदान करता है। जिन लोगों ने सेवानुगत मार्ग से इस पुराण का उपदेश दिया, लिया, पढ़ा अथवा सुना है, उनको यह सुख तथा धर्म आदि त्रिवर्ग प्रदान करता है और अन्त में निश्चय ही मोक्ष देता है। इस पौराणिक मार्ग के सम्बन्ध से आप लोगों ने और मैंने एक-दूसरे का उपकार किया है; अतः मैं सफल-मनोरथ होकर जा रहा हूँ। हम लोगों का सदा सब प्रकार से मंगल ही हो।

सूतजी के आशीर्वाद देकर चले जाने और प्रयाग में उस महायज्ञ के पूर्ण हो जाने पर वे सदाचारी मुनि विषय-कलुषित कलिकाल के आने से काशी के आसपास निवास करने लगे। तदनन्तर पशु-पाश से छूटने की इच्छा से उन सबने पूर्णतया पाशुपत-व्रत का अनुष्ठान किया और सम्पूर्ण बोध एवं समाधि पर अधिकार करके वे अनिन्द्य महर्षि परमानन्द को प्राप्त हो गये।

व्यास उवाच
एतच्छिवपुराणं हि समाप्तं हितमादरात्।
पठितव्यं प्रयत्नेन श्रोतव्यं च तथैव हि॥
नास्तिकाय न वक्तव्यमश्रद्धाय शठाय च।
अभक्ताय महेशस्य तथा धर्मध्वजाय च॥
एतच्छ्रुत्वा ह्योकवारं भवेत् पापं हि भस्मसात्।
अभक्तो भक्तिमाप्नोति भक्तो भक्तिसमृद्धिभाक्॥
पुनः श्रुते च सद्भक्तिर्मुक्तिः स्याच्च श्रुते पुनः।
तस्मात् पुनः पुनश्चैव श्रोतव्यं हि मुमुक्षुभिः॥
पञ्चावृतिः प्रकर्तव्या पुराणस्यास्य सद्धिया।
परं फलं समुद्दिश्य तत्प्राप्नोति न संशयः॥
पुरातनाश्च राजानो विप्रा वैश्याश्च सत्तमाः।
सप्तकृत्वस्तदावृत्यालभन्त शिवदर्शनम्॥
श्रोष्यत्यथापि यश्चेदं मानवो भक्तितत्परः।
इह भुक्त्वाखिलान् भोगानन्ते मुक्तिं लभेच्च सः॥
एतच्छिवपुराणं हि शिवस्यातिप्रियं परम्।
भुक्तिमुक्तिप्रदं ब्रह्मसम्मितं भक्तिवर्धनम्॥
एतच्छिवपुराणस्य वक्तुः श्रोतुश्च सर्वदा।
सगणः ससुतः साम्बः शं करोतु स शङ्करः॥
(शि० पु०, वा० सं०, उ० ख० ४१। ४३-५१)


व्यासजी कहते हैं – यह शिवपुराण पूरा हुआ, इस हितकर पुराण को बड़े आदर एवं प्रयत्न से पढ़ना तथा सुनना चाहिये। नास्तिक, श्रद्धाहीन, शठ, महेश्वर के प्रति भक्ति से रहित तथा धर्मध्वजी (पाखण्डी) को इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। इसका एक बार श्रवण करने से ही सारा पाप भस्म हो जाता है। भक्तिहीन भक्ति पाता है और भक्त भक्ति की समृद्धि का भागी होता है। दोबारा श्रवण करने पर उत्तम भक्ति और तीसरी बार सुनने पर मुक्ति सुलभ हो जाती है, इसलिये मुमुक्षु पुरुषों को बारंबार इसका श्रवण करना चाहिये। किसी भी उत्तम फल को पाने के लिये शुद्ध-बुद्धि से इस पुराण की पाँच आवृत्ति करनी चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य उस फल को प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। प्राचीन काल के राजाओं, ब्राह्मणों तथा श्रेष्ठ वैश्योंने इसकी सात आवृत्ति करके शिव का साक्षात् दर्शन प्राप्त किया है। जो मनुष्य भक्तिपरायण हो इसका श्रवण करेगा, वह भी इहलोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में मोक्ष प्राप्त कर लेगा। यह श्रेष्ठ शिवपुराण भगवान् शिव को अत्यन्त प्रिय है। यह वेद के तुल्य माननीय, भोग और मोक्ष देनेवाला तथा भक्तिभाव को बढ़ानेवाला है। अपने प्रमथगणों, दोनों पुत्रों तथा देवी पार्वतीजी के साथ भगवान् शंकर इस पुराण के वक्ता और श्रोता का सदा कल्याण करें।

(अध्याय ४१)