वायुदेव का अन्तर्धान, ऋषियों का सरस्वती में अवभृथ-स्नान और काशी में दिव्य तेज का दर्शन करके ब्रह्माजी के पास जाना, ब्रह्माजी का उन्हें सिद्धि-प्राप्ति की सूचना देकर मेरु के कुमारशिखर पर भेजना

सूतजी कहते हैं – इस प्रकार क्रोध को जीतनेवाले उपमन्यु से यदुकुलनन्दन श्रीकृष्ण ने जो ज्ञानयोग प्राप्त किया था, उसका प्रणतभाव से बैठे हुए उन मुनियों को उपदेश देकर आत्मदर्शी वायुदेव सायंकाल आकाश में अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर प्रातःकाल नैमिषारण्य के समस्त तपस्वी मुनि सत्र के अन्त में अवभृथ-स्नान करने को उद्यत हुए। उस समय ब्रह्माजी के आदेश से साक्षात् सरस्वती देवी स्वादिष्ठ जल से भरी हुईं स्वच्छ सुन्दर नदी के रूप में वहाँ बहने लगीं। सरस्वती नदी को उपस्थित देख मुनि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सत्र समाप्त करके उसमें अवगाहन (स्नान) आरम्भ किया। उस नदी के मंगलमय जल से देवता आदि का तर्पण करके पूर्व-वृत्तान्त का स्मरण करते हुए वे सब-के-सब वाराणसीपुरी की ओर चल दिये। उस समय हिमालय के चरणों से निकलकर दक्षिण की ओर बहनेवाली भागीरथी का दर्शन करके उन ऋषियों ने उसमें स्नान किया और भागीरथी के ही किनारे का मार्ग पकड़कर वे आगे बढ़े। तदनन्तर वाराणसी में पहुँचकर उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। वहाँ उत्तरवाहिनी गंगा में स्नान करके उन्होंने अविमुक्तेश्वर-लिंग का दर्शन और विधिपूर्वक पूजन किया। पूजन करके जब वे चलने को उद्यत हुए तब उन्होंने आकाश में एक दिव्य और परम अद्भुत प्रकाशमान तेज देखा, जो करोड़ों सूर्यों के समान जान पड़ता था। उसने अपनी प्रभा के प्रसार से सम्पूर्ण दिगन्त को व्याप्त कर लिया था। तदनन्तर जिन्होंने अपने शरीर में भस्म लगा रखा था, वे सैकड़ों सिद्ध पाशुपत मुनि निकट जाकर उस तेज में लीन हो गये। उन तपस्वी महात्माओं के इस प्रकार लीन हो जाने पर वह तेज तत्काल अदृश्य हो गया। वह एक अद्भुत-सी घटना घटित हुई। उस महान् आश्चर्य को देखकर वे नैमिषारण्य के निवासी महर्षि 'यह कया है' इस बात को न जानते हुए ब्रह्मवन को चले गये।

इनके जाने से पहले ही लोकपावन पवन देव वहाँ जा पहुँचे। उन्होंने नेमिषारण्यवासी ऋषियों का जिस प्रकार साक्षात्कार हुआ, जिस तरह उनसे उनकी बातचीत हुई, उन ऋषियों की शुद्ध बुद्धि जिस प्रकार पार्षदों सहित साम्ब सदाशिव में लगी थी और जिस प्रकार उन यज्ञपरायण ऋषियों का वह दीर्घकालिक यज्ञ पूरा हुआ था, ये सारी बातें जगत्स्त्रष्टा ब्रह्मयोनि ब्रह्माजी को बतायीं। फिर अपने कार्य के लिये उनसे आज्ञा ले वे अपने नगर को चले गये। तदनन्तर अपने स्थान पर बेठे हुए ब्रह्माजी गान की कला में परस्पर स्पर्द्धा रखने और विवाद करनेवाले तुम्बुरु और नारद के गानजनित रस का आस्वादन करते हुए वहाँ मध्यस्थता करने लगे। उस समय वे गन्धर्वों और अप्सराओं से सेवित हो सुखपूर्वक बैठे थे। उस वेला में किसी बाहरी व्यक्ति को वहाँ जाने का अवसर नहीं दिया जाता था। इसीलिये जब नेमिषारण्यनिवासी मुनि वहाँ पहुँचे, तब द्वारपालों ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया। वे मुनि ब्रह्मभवन से बाहर ही पार्श्वभाग में बैठ गये। इधर संगीत-गोष्ठी में नारद ने तुम्बुरु की समानता प्राप्त की। तब परमेष्ठी ब्रह्मा ने उन्हें तुम्बुरु के साथ रहने की आज्ञा दी और वे पारस्परिक स्पर्धा को त्यागकर तुम्बुरु के परम मित्र हो गये। तत्पश्चात् गन्धर्वों और अप्सराओं से घिरे हुए नारद नकुलेश्वर महादेव को वीणागान सुनाकर संतुष्ट करने के लिये तुम्बुरु के साथ ब्रह्मभवन से उसी प्रकार निकले, जैसे मेघों की घटा से सूर्यदेव बाहर निकलते हैं।

उस समय मुनिवर नारद को देखकर उन छः कुलों में उत्पन्न हुए ऋषियों ने प्रणाम किया और बड़े आदर के साथ ब्रह्माजी से मिलने का अवसर पूछा। नारदजी का चित्त दूसरी ओर लगा था और वे बड़ी उतावली में थे। अतः उनके पूछने पर बोले – 'यही अवसर है। आप लोग भीतर जाइये।' यह कहते हुए वे चले गये। तदनन्तर द्वारपालों ने ब्रह्माजी को उन ऋषियों के आगमन की सूचना दी। उनकी आज्ञा पाकर वे सब एक साथ ब्रह्माजी के भवन में प्रविष्ट हुए। भीतर जाकर उन्होंने दूर से ही दण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिरकर ब्रह्माजी को प्रणाम किया। फिर उनका आदेश पाकर वे ऋषि उनके पास गये और चारों ओर से उन्हें घेरकर बैठे। उन्हें वहाँ बैठा देख कमलासन ब्रह्मा ने उनका कुशल-समाचार पूछा और बताया कि मुझे तुम लोगों का सारा वृत्तान्त ज्ञात हो चुका है; क्योंकि वायुदेव ने ही यहाँ सब कुछ कहा है। अब तुम बताओ, जब वायुदेव तुम्हें कथा सुनाकर अदृश्य हो गये, तब तुमने क्या किया?

देवेश्वर ब्रह्म के इस प्रकार पूछने पर उन मुनियों ने अवभृथ-स्नान के पश्चात् गंगातीर्थ में जाने, वाराणसी की यात्रा करने, वहाँ देवेश्वरों द्वारा स्थापित शिवलिंगों और अविमुक्तेश्वलिंग के भी दर्शन-पूजन करने, आकाश में महान् तेजःपुंज के दिखायी देने, कतिपय महर्षियों के उसमें लीन होने तथा फिर उस तेज के अदृश्य हो जाने की सब बातें ब्रह्माजी से विस्तारपूर्वक उन्हें बारंबार प्रणाम करके कहीं। साथ ही यह भी बताया कि 'हम अपने मन में बहुत विचार करने पर भी उस तेज को ठीक-ठीक जान न सके।' मुनियों का कथन सुनकर विश्वस्त्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्मा ने किंचित् सिर हिलाकर गम्भीर वाणी में कहा – 'महर्षियो! तुम्हें परम उत्तम पारलौकिक सिद्धि प्राप्त होने का अवसर आ रहा है। तुमने दीर्घकालिक सत्र द्वारा चिरकाल तक प्रभु की आराधना की है। इसलिये वे प्रसन्न होकर तुम लोगों पर कृपा करने को उत्सुक हैं। उस तेजःपुंज के दर्शन की जो घटना घटित हुई है, उससे यही बात सूचित होती है। तुमने वाराणसी में आकाश के भीतर जो दीप्तिमान् टिव्य तेज देखा था, वह साक्षात् ज्योतिर्मय लिंग ही था, उसे महेश्वर का उत्कृष्ट तेज समझो। उस तेज में श्रोत और पाशुपत-व्रत का पालन करनेवाले मुनि, जो स्वधर्म में पूर्णतः निष्ठा रखने वाले थे और अपने पाप को दग्ध कर चुके थे, लीन हुए हैं। लीन होकर वे स्वस्थ एवं मुक्त हो गये हैं। इसी मार्ग से तुम्हें भी शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त होने वाली है। तुम्हारे देखे हुए उस तेज से यही बात सूचित होती है। तुम्हारे लिये यह वही समय दैववश स्वयं उपस्थित हो गया है। तुम मेरु पर्वत के दक्षिण शिखर पर, जहाँ देवता रहते हैं, जाओ, वहीं मेरे पुत्र सनत्कुमार, जो उत्कृष्ट मुनि हैं, निवास करते हैं। वे वहाँ साक्षात् भूतनाथ नन्दी के आगमन की प्रतीक्षा में हैं।

पूर्वकाल की बात है सनत्कुमार अज्ञानवश अपने को सब योगियों का शिरोमणि मानने लगे थे। इसीलिये दुर्विनीत हो गये थे। यही कारण है कि उन्होंने किसी समय परमेश्वर शिव को सामने देखकर भी उनके लिये उचित अभ्युत्थान आदि सत्कार नहीं किया। वे अपने स्थान पर निर्भय बैठे रहे। उनके इस अपराध से कुपित हो नन्दी ने उन्हें बहुत बड़ा ऊँट बना दिया। तब उनके लिये मुझे बड़ा शोक हुआ और मैंने दीर्घकाल तक महादेव और महादेवी की उपासना करके नन्दी से भी बड़ी अनुनय-विनय की। इस प्रकार प्रयत्न करके किसी तरह उनको ऊँट की योनि से छुटकारा दिलाया और उन्हें पूर्ववत् सनत्कुमार रूप की प्राप्ति करायी। उस समय महादेवजी ने मुसकराते हुए-से अपने गणाध्यक्ष नन्दी से कहा – 'अनघ! सनत्कुमार मुनि ने मेरी ही अवहेलना करके अपना वैसा अहंकार प्रकट किया था, अतः तुम्हीं उनको मेरे यथार्थ स्वरूप का उपदेश दो। ब्रह्मा का ज्येष्ठ पुत्र मूढ़ की भाँति मेरा स्मरण कर रहा है, अतः मैंने ही उसको तुम्हें शिष्य के रूप में दिया है; तुमसे उपदेश पाकर वह मेरे ज्ञान का प्रवर्तक होगा और वही तुम्हारा धर्माध्यक्ष के पद पर अभिषेक करेगा।'

महादेवजी के ऐसा कहने पर समस्त भूतगणों के अध्यक्ष नन्दी ने प्रातःकाल मस्तक झुकाकर स्वामी की वह आज्ञा शिरोधार्य की तथा सनत्कुमार भी मेरी आज्ञा से इस गणराज नन्दी को प्रसन्न करने के लिये मेरु पर दुष्कर तपस्या कर रहे हैं। गणाध्यक्ष नन्दी के समागम से पहले ही तुम लोग सनत्कुमार से मिलो; क्योंकि उन पर कृपा करने के लिये नन्दी शीघ्र ही वहाँ आयेंगे।

विश्वयोनि ब्रह्मा के इस प्रकार शीघ्र आदेश देकर भेजने पर वे मुनि मेरु पर्वत के दक्षिणवर्ती कुमार-शिखर पर गये।

(अध्याय ४०)