योग के अनेक भेद, उसके आठ और छः अंगों का विवेचन – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, दशवविध प्राणों को जीतने की महिमा, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का निरूपण

श्रीकृष्ण ने कहा – भगवन्! आपने ज्ञान, क्रिया और चर्या का संक्षिप्त सार उद्धृत करके मुझे सुनाया है। यह सब श्रुति के समान आदरणीय है और इसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना है। अब मैं अधिकार, अंग, विधि और प्रयोजन सहित परम दुर्लभ योग का वर्णन सुनना चाहता हूँ। यदि योग आदि का अभ्यास करने से पहले ही मृत्यु हो जाय तो मनुष्य आत्मघाती होता है; अतः आप योग का ऐसा कोई साधन बताइये जिसे शीघ्र सिद्ध किया जा सके, जिससे कि मनुष्य को आत्मघाती न होना पड़े। योग का वह अनुष्ठान, उसका कारण, उसके लिये उपयुक्त समय, साधन तथा उसके भेदों का तारतम्य क्या है?

उपमन्यु बोले – श्रीकृष्ण! तुम सब प्रश्नों के तारतम्य के ज्ञाता हो। तुम्हारा यह प्रश्न बहुत ही उचित है, इसलिये मैं इन सब बातों पर क्रमशः प्रकाश डालूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जिसकी दूसरी वृत्तियों का निरोध हो गया है, ऐसे चित्त की भगवान् शिव में जो निश्चल वृत्ति है, उसी को संक्षेप से 'योग' कहा गया है। यह योग पाँच प्रकार का है – मन्त्रयोग, स्पर्शयोग, भावयोग, अभावयोग और महायोग। मन्त्र-जप के अभ्यासवश मन्त्र के वाच्यार्थ में स्थित हुई विक्षेपरहित जो मन की वृत्ति है, उसका नाम 'मन्त्रयोग' है। मन की वही वृत्ति जब प्राणायाम को प्रधानता दे तो उसका नाम 'स्पर्शयोग' होता है। वही स्पर्शयोग जब मन्त्र के स्पर्श् से रहित हो तो 'भावयोग' कहलाता है। जिससे सम्पूर्ण विश्व के रूप मात्र का अवयव विलीन (तिरोहित) हो जाता है, उसे 'अभावयोग' कहा गया है; क्योंकि उस समय सद्वस्तु का भी भान नहीं होता। जिससे एकमात्र उपाधिशून्य शिवस्वभाव का चिन्तन किया जाता है और मन की वृत्ति शिवमयी हो जाती है, उसे 'महायोग' कहते हैं।

देखे और सुने गये लौकिक और पारलौकिक विषयों की ओर से जिसका मन विरक्त हो गया हो, उसी का योग में अधिकार है, दूसरे किसी का नहीं है। लौकिक और पारलौकिक दोनों विषयों के दोषों का और ईश्वर के गुणों का सदा ही दर्शन करने से मन विरक्त होता है। प्रायः सभी योग आठ या छः अंगों से युक्त होते हैं। यम, नियम, स्वस्तिक आदि आसन, प्राणायाम, प्रत्याह्मर, धारणा, ध्यान और समाधि – ये दिद्वानों ने योग के आठ अंग बताये हैं। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – ये थोड़े में योग के छः लक्षण हैं। शिव-शास्त्र में इनके पृथक्-पृथक् लक्षण बताये गये हैं। अन्य शिवागमों में, विशेषतः कामिक आदि में, योग-शास्त्रों में और किन्हीं-किन्हीं पुराणों में भी इनके लक्षणों का वर्णन है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरियग्रह – इन्हें सत्पुरुषों ने यम कहा है। इस प्रकार यम पाँच अवयवों के योग से युक्त है। शौच, संतोष, तप, जप (स्वाध्याय) और प्रणिधान – इन पाँच भेदों से युक्त दूसरे योगांग को नियम कहा गया है। तात्पर्य यह कि नियम अपने अंशों के भेद से पाँच प्रकार का है। आसन के आठ भेद कहे गये हैं – स्वस्तिक आसन, पद्मासन, अर्धचन्द्रासन, वीरासन, योगासन, प्रसाधितासन, पर्यकासन और अपनी रुचि के अनुसार आसन। अपने शरीर में प्रकट हुई जो वायु है, उसको प्राण कहते हैं। उसे रोकना ही उसका आयाम है। उस प्राणायाम के तीन भेद कहे गये हैं – रेचक, पूरक और कुम्भक। नासिका के एक छिद्र को दबाकर या बंद करके दूसरे से उदरस्थित वायु को बाहर निकाले। इस क्रिया को रेचक कहा गया है। फिर दूसरे नासिका-छिद्र के द्वारा बाह्य वायु से शरीर को धौंकनी की भाँति भर ले। इसमें वायु के पूरण की क्रिया होने के कारण इसे पूरक कहा गया है। जब साधक भीतर की वायु को न तो छोड़ता है और न बाहर की वायु को ग्रहण करता है, केवल भरे हुए घड़े की भाँति अविचल भाव से स्थित रहता है, तब उस प्राणायाम को 'कुम्भक' नाम दिया जाता है। योग के साधक को चाहिये कि वह रेचक आदि तीनों प्राणायामों को न तो बहुत जल्दी-जल्दी करे और न बहुत देर से करे। साधना के लिये उद्यत हो क्रमयोग से उसका अभ्यास करे।

रेचक आदि में नाड़ी-शोधनपूर्वक जो प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है, उसे स्वेच्छा से उत्क्रमण पर्यन्त करते रहना चाहिये – यह बात योगशास्त्र में बतायी गयी है। कनिष्ठ आदि के क्रम से प्राणायाम चार प्रकार का कहा गया है। मात्रा और गुणों के विभाग – तारतम्य से ये भेद बनते हैं। चार भेदों में से जो कन्यक या कनिष्ठ प्राणायाम है, यह प्रथम उदघात * कहा गया है; इसमें बारह मात्राएँ होती हैं। मध्यम प्राणायाम द्वितीय उद्घात है, उसमें चौबीस मात्राएँ होती हैं। उत्तम श्रेणी का प्राणायाम तृतीय उदघात है, उसमें छत्तीस मात्राएँ होती हैं। उससे भी श्रेष्ठ जो सर्वोत्कृष्ट चतुर्थ ** प्राणायाम है, वह शरीर में स्वेद और कम्प आदि का जनक होता है।

[ * उदघात का अर्थ नाभिमूल से प्रेरणा की हुई वायु का सिर में टक्कर खाना है। यह प्राणायाम में देश, काल और संख्या का परिमाण है।

** बाह्य और आभ्यन्तर विषयों को फेंकनेवाला प्राणायाम चौथा है।]

योगी के अंदर आनन्दजनित रोमांच, नेत्रों से अश्रुपात, जल्प, भ्रान्ति और मूर्च्छा आदि भाव प्रकट होते हैं। घुटने के चारों ओर प्रदक्षिण-क्रम से न बहुत जल्दी और न बहुत धीरे-धीरे चुटकी बजाये। घुटने की एक परिक्रमा में जितनी देर तक चुटकी बजती है, उस समय का मान एक मात्रा है। मात्राओं को क्रमशः जानना चाहिये। उदघात क्रम-योग से नाड़ी-शोधनपूर्वक प्राणायाम करना चाहिये। प्राणायाम के दो भेद बताये गये हैं – अगर्भ और सगर्भ। जप और ध्यान के बिना किया गया प्राणायाम 'अगर्भ' कहलाता है और जप तथा ध्यान के सहयोगपूर्वक किये जानेवाले प्राणायाम को 'सगर्भ' कहते हैं। अगर्भ से सगर्भ प्राणायाम सौ गुना अधिक उत्तम है। इसलिये योगीजन प्रायः सगर्भ प्राणायाम किया करते हैं। प्राणविजय से ही शरीर की वायुओं पर विजय पायी जाती है। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय – ये दस प्राणवायु हैं। प्राण प्रयाण करता है, इसीलिये इसे 'प्राण' कहते हैं। जो कुछ भोजन किया जाता है, उसे जो वायु नीचे ले जाती है, उसको 'अपान' कहते हैं। जो वायु सम्पूर्ण अंगों को बढ़ाती हुई उनमें व्याप्त रहती है, उसका नाम 'व्यान' है। जो वायु मर्मस्थानों को उद्वेजित करती है, उसकी 'उदान' संज्ञा है। जो वायु सब अंगों को समभाव से ले चलती है, वह अपने उस समनयन रूप कर्म से 'समान' कहलाती है। मुख से कुछ उगलने में कारणभूत वायु को 'नाग' कहा गया है। आँख खोलने के व्यापार में 'कूर्म' नामक वायु की स्थिति है। छींक में कृकल और जँभाई में 'देवदत्त' नामक वायु की स्थिति है। 'धनंजय' नामक वायु सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहती है। वह मृतक शरीर को भी नहीं छोड़ती। क्रम से अभ्यास में लाया हुआ यह प्राणायाम जब उचित प्रमाण या मात्रा से युक्त हो जाता है, तब वह कर्ता के सारे दोषों को दग्ध कर देता है और उसके शरीर की रक्षा करता है।

प्राण पर विजय प्राप्त हो जाय तो उससे प्रकट होनेवाले चिह्नों को अच्छी तरह देखे। पहली बात यह होती है कि विष्ठा, मूत्र और कफ की मात्रा घटने लगती है, अधिक भोजन करने की शक्ति हो जाती है और विलम्ब से साँस चलती है। शरीर में हलकापन आता है। शीघ्र चलने की शक्ति प्रकट होती है। हृदय में उत्साह बढ़ता है। स्वर में मिठास आती है। समस्त रोगों का नाश हो जाता है। बल, तेज और सौन्दर्य की वृद्धि होती है। धृति, मेधा, युवापन, स्थिरता और प्रसन्नता आती है। तप, प्रायश्चित्त, यज्ञ, दान और व्रत आदि जितने भी साधन हैं – ये प्राणायाम के सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं। अपने-अपने विषय में आसक्त हुई इन्द्रियों को वहाँ से हटाकर जो अपने भीतर निगृहीत करता है, उस साधन को 'प्रत्याहार' कहते हैं। मन और इन्द्रियाँ ही मनुष्य को स्वर्ग तथा नरक में ले जाने वाली हैं। यदि उन्हें वश में रखा जाय तो वे स्वर्ग की प्राप्ति कराती हैं और विषयों की ओर खुली छोड़ दिया जाय तो वे नरक में डालनेवाली होती हैं। इसलिये सुख की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि वह ज्ञान-वैराग्य का आश्रय ले इन्द्रिय रूपी अश्वों को शीघ्र ही काबू में करके स्वयं ही आत्मा का उद्धार करे।

चित्त को किसी स्थान-विशेषय में बाँधना – किसी ध्येय-विशेष में स्थिर करना – यही संक्षेप से 'धारणा' का स्वरूप है। एकमात्र शिव ही स्थान हैं, दूसरा नहीं; क्योंकि दूसरे स्थानों में त्रिविध दोष विद्यमान हैं। किसी नियमित काल तक स्थान स्वरूप शिव में स्थापित हुआ मन जब लक्ष्य से च्युत न हो तो धारणा की सिद्धि समझना चाहिये, अन्यथा नहीं। मन पहले धारणा से ही स्थिर होता है, इसलिये धारणा के अभ्यास से मन को धीर बनाये। अब ध्यान की व्याख्या करते हैं। ध्यान में 'ध्यै चिन्तायाम्' यह धातु माना गया है। इसी धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर 'ध्यान' की सिद्धि होती है; अतः विक्षेपरहित चित्त से जो शिव का बारंबार चिन्तन किया जाता है, उसी का नाम 'ध्यान' है। ध्येय में स्थित हुए चित्त की जो ध्येयाकार वृत्ति होती है और बीच में दूसरी वृत्ति अन्तर नहीं डालती उस ध्येयाकार वृत्ति का प्रवाह रूप से बना रहना 'ध्यान' कहलाता है। दूसरी सब वस्तुओं को छोड़कर केवल कल्याणकारी परमदेव देवेश्वर शिव का ही ध्यान करना चाहिये। वे ही सबके परम ध्येय हैं। यह अथर्ववेद की श्रुति का अन्तिम निर्णय है। इसी प्रकार शिवादेवी भी परम ध्येय हैं। ये दोनों शिवा और शिव सम्पूर्ण भूतों में व्याप्त हैं। श्रुति, स्मृति एवं शास्त्रों से यह सुना गया है कि शिवा और शिव सर्वव्यापक, सर्वदा उदित, सर्वज्ञ एवं नाना रूपों में निरन्तर ध्यान करने योग्य हैं। इस ध्यान के दो प्रयोजन जानने चाहिये। पहला है मोक्ष और दूसरा प्रयोजन है अणिमा आदि सिद्धियों की उपलब्धि। ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान-प्रयोजन – इन चारों को अच्छी तरह जानकर योगवेत्ता पुरुष योग का अभ्यास करे। जो ज्ञान और वैराग्य से सम्पन्न, श्रद्धालु, क्षमाशील, ममतारहित तथा सदा उत्साह रखनेवाला है, ऐसा ही पुरुष ध्याता कहा गया है अर्थात् वही ध्यान करने में सफल हो सकता है।

साधक को चाहिये कि वह जप से थकने पर फिर ध्यान करे और ध्यान से थक जाने पर पुनः जप करे। इस तरह जप और ध्यान में लगे हुए पुरुष का योग जल्दी सिद्ध होता है। बारह प्राणायामों की एक धारणा होती है, बारह धारणाओं का ध्यान होता है और बारह ध्यान की एक समाधि कही गयी है। समाधि को योग का अन्तिम अंग कहा गया है। समाधि से सर्वत्र बुद्धि का प्रकाश फैलता है। जिस ध्यान में केवल ध्येय ही अर्थ रूप से भासता है, ध्याता निश्चल महासागर के समान स्थिर भाव से स्थित रहता है और ध्यान स्वरूप से शून्य-सा हो जाता है, उसे 'समाधि' कहते हैं। जो योगी ध्येय में चित्त को लगाकर सुस्थिर भाव से उसे देखता है और बुझी हुई आग के समान शान्त रहता है, वह 'समाधिस्थ' कहलाता है। वह न सुनता है न सूँघता है, न बोलता है न देखता है, न स्पर्श का अनुभव करता है न मन से संकल्प-विकल्प करता है, न उसमें अभिमान की वृत्ति का उदय होता है और न वह बुद्धि के द्वारा ही कुछ समझता है। केवल काष्ठ की भाँति स्थित रहता है। इस तरह शिव में लीनचित्त हुए योगी को यहाँ समाधिस्थ कहा जाता है। जैसे वायुरहित स्थान में रखा हुआ दीपक कभी हिलता नहीं है – निस्पन्द बना रहता है, उसी तरह समाधिनिष्ठ शुद्ध चित्त योगी भी उस समाधि से कभी विचलित नहीं होता – सुस्थिर भाव से स्थिर रहता है। इस प्रकार उत्तम योग का अभ्यास करनेवाले योगी के सारे अन्तराय शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण विघ्न भी धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं।

(अध्याय ३७)