पारलौकिक फल देने वाले कर्म – शिवलिंग-महाव्रत को विधि और महिमा का वर्णन

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! अब मैं केवल परलोक में फल देने वाले कर्म की विधि बतलाऊँगा। तीनों लोकों में इसके समान दूसरा कोई कर्म नहीं है। यह विधि अतिशय पुण्य से युक्त है और सम्पूर्ण देवताओं ने इसका अनुष्ठान किया है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्रादि लोकपाल, सूर्यादि नवग्रह, विश्वामित्र और वसिष्ठ आदि ब्रह्वेत्ता महर्षि, श्वेत, अगस्त्य, दधीचि तथा हम-सरीखे शिवभक्त, नन्दीश्वर, महाकाल और भृंगीश आदि गणेश्वर, पातालवासी दैत्य, शेष आदि महानाग, सिद्ध, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, भूत और पिशाच – इन सबने अपना-अपना पद प्राप्त करने के लिये इस विधि का अनुष्ठान किया है। इस विधि से ही सब देवता देवत्व को प्राप्त हुए हैं। इसी विधि से ब्रह्मा को ब्रह्मत्व की, विष्णु को विष्णुत्व की, रुद्र को रुद्रत्व की, इन्द्र को इन्द्रत्व की और गणेश को गणेशत्व की प्राप्ति हुई है।

श्वेतचन्दन युक्त जल से लिंगस्वरूप शिव और शिवा को स्नान कराकर प्रफुल्ल श्वेत कमलों द्वारा उनका पूजन करे। फिर उनके चरणों में प्रणाम करके वहीं लिपी-पुती भूमि पर सुन्दर शुभ लक्षण पद्मासन बनवाकर रखे। धन हो तो अपनी शक्ति के अनुसार सोने या रत्न आदि का पद्मासन बनवाना चाहिये। कमल के केसरों के मध्य-भाग में अंगुष्ठ के बराबर छोटे-से सुन्दर शिवलिंग की स्थापना करे। वह सर्वगन्धमय और सुन्दर होना चाहिये। उसे दक्षिण भाग में स्थापित करके बिल्वपत्रों द्वारा उसकी पूजा करे। फिर उसके दक्षिण भाग में अगुरु, पश्चिम भाग में मैनसिल, उत्तर भाग में चन्दन और पूर्व भाग में हरिताल चढ़ाये। फिर सुन्दर सुगन्धित विचित्र पुष्पों द्वारा पूजा करे। सब ओर काले अगुरु और गुग्गुल की धूप दे। अत्यन्त महीन और निर्मल वस्त्र निवेदन करे। घृतमिश्रित खीर का भोग लगाये। घी के दीपक जलाकर रखे। मन्त्रोच्चारणपूर्वक सब कुछ चढ़ाकर परिक्रमा करे। भक्तिभाव से देवेश्वर शिव को प्रणाम करके उनकी स्तुति करे और अन्त में त्रुटियों के लिये क्षमा-प्रार्थना करे। तत्पश्चात् शिवपंचाक्षर-मन्त्र से सम्पूर्ण उपहारों सहित वह शिवलिंग शिव को समर्पित करे और स्वयं दक्षिणामूर्ति का आश्रय ले। जो इस प्रकार पंच गन्धमय शुभ लिंग की नित्य अर्चना करता है, वह सब पापों से मुक्त हो शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। यह शिवलिंग-महाव्रत सब व्रतों में उत्तम और गोपनीय है। तुम भगवान् शंकर के भक्त हो; इसलिये तुमसे इसका वर्णन किया है। जिस किसी को इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। केवल शिवभक्तों को ही इसका उपदेश देना चाहिये। प्राचीनकाल में भगवान् शिव ने ही इस व्रत का उपदेश दिया था।

तदनन्तर लिंग की कारणरूपता तथा लिंग-प्रतिष्ठा एवं पूजा की व्याख्या करके उपमन्यु ने कहा – यदुनन्दन! यदि कोई स्थापित शिवलिंग न मिले तो शिव के स्थानभूत जल, अग्नि, सूर्य तथा आकाश में भगवान् शिव का पूजन करना चाहिये।

(अध्याय ३३ - ३६)