ऐहिक फल देने वाले कर्मों और उनकी विधि का वर्णन, शिव पूजन की विधि, शान्ति-पुष्टि आदि विविध काम्य कर्मों में विभिन्न हवनीय पदार्थों के उपयोग का विधान

उपमन्यु कहते हैं – श्रीकृष्ण! यह मैंने तुमसे इहलोक और परलोक में सिद्धि प्रदान करनेवाला क्रम बताया है, जो उत्तम तो है ही, इसमें क्रिया, जप, तप और ध्यान का समुच्चय भी है। अब मैं शिव-भक्तों के लिये यहीं फल देने वाले पूजन, होम, जप, ध्यान, तप और दानमय महान् कर्म का वर्णन करता हूँ। मन्त्रार्थ के श्रेष्ठ ज्ञाता को चाहिये कि वह पहले मन्त्र को सिद्ध करे, अन्यथा इष्टसिद्धिकारक कर्म भी फलद नहीं होता। मन्त्र सिद्ध कर लेने पर भी, जिस कर्म का फल किसी प्रबल अदृष्ट के कारण प्रतिबद्ध हो, उसे विद्वान् पुरुष सहसा न करे। उस प्रतिबन्धक का यहाँ निवारण किया जा सकता है। कर्म करने के पहले ही शकुन आदि करके उसकी परीक्षा कर ले और प्रतिबन्धक का पता लगने पर उसे दूर करने का प्रयत्न करे। जो मनुष्य ऐसा न करके मोहवश ऐहिक फल देने वाले कर्म का अनुष्ठान करता है, वह उससे फल का भागी नहीं होता और जगत् में उपहास का पात्र बनता है। जिस पुरुष को विश्वास न हो, वह ऐहिक फल देने वाले कर्म का अनुष्ठान कभी न करे; क्योंकि उसके मन में श्रद्धा नहीं रहती और श्रद्धाहीन पुरुष को उस कर्म का फल नहीं मिलता। किया कर्म निष्फल हो जाय, तो भी उसमें देवता का कोई अपराध नहीं है; क्योंकि शास्त्रोक्त विधि से ठीक-ठीक कर्म करनेवाले पुरुषों को यहीं फल की प्राप्ति देखी जाती है। जिसने मन्त्र को सिद्ध कर लिया है, प्रतिबन्धक को दूर कर दिया है, मन्त्र पर विश्वास रखता है और मन में श्रद्धा से युक्त है, वह साधक कर्म करने पर उसके फल को अवश्य पाता है। उस कर्म के फल की प्राप्ति के लिये ब्रह्मचर्य परायण होना चाहिये। रात में हविष्य भोजन करे, खीर या फल खाकर रहे, हिंसा आदि जो निषिद्ध कर्म हैं, उन्हें मन से भी न करे, सदा अपने शरीर में भस्म लगाये, सुन्दर पवित्र वेषभूषा धारण करे और पवित्र रहे।

इस प्रकार आचारवान् होकर अपने अनुकूल शुभ दिन में पुष्पमाला आदि से अलंकृत पूर्वोक्त लक्षणवाले स्थान में एक हाथ भूमि को गोबर से लीपकर वहाँ बिछे हुए भद्रासन पर कमल अंकित करे, जो अपने तेज से प्रकाशमान हो। वह तपाये हुए सुवर्ण के समान रंगवाला हो। उसमें आठ दल हों और केसर भी बना हो। मध्य-भाग में वह कर्णिका से युक्त और सम्पूर्ण रत्नों से अलंकृत हो। उसमें अपने आकार के समान ही नाल होनी चाहिये। वैसे स्वर्णनिर्मित कमल पर सम्यग् विधि से मन-ही-मन अणिमा आदि सब सिद्धियों की भावना करे। फिर उस पर रत्न का, सोने का अथवा स्फटिकमणि का उत्तम लक्षणों से युक्त वेदी सहित शिवलिंग स्थापित करके उसमें विधिपूर्वक पार्षदों सहित अविनाशी साम्ब सदाशिव का आवाहन और पूजन करे। फिर वहाँ साकार भगवान् महेश्वर की भावनामयी मूर्ति का निर्माण करे, जिसके चार भुजाएँ और चार मुख हों। वह सब आभूषणों से विभूषित हो, उसे व्याघ्रचर्म पहनाया गया हो। उसके मुख पर कुछ-कुछ हास्य की छटा छा रही हो। उसने अपने दो हाथों में वरद और अभय की मुद्रा धारण की हो और शेष दो हाथों में मृग-मुद्रा और टंक ले रखे हों। अथवा उपासक की रुचि के अनुसार अष्टभुजा मूर्ति की भावना करनी चाहिये। उस दशा में वह मूर्ति अपने दाहिने चार हाथों में त्रिशूल, परशु, खड्ग और वज्र लिये हो और बायें चार हाथों में पाश, अंकुश, खेट और नाग धारण करती हो। उसकी अंगकान्ति प्रातःकाल के सूर्य की भांति लाल हो और वह अपने प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र धारण करती है। उस मूर्ति का पूर्ववर्ती मुख सौम्य तथा अपनी आकृति के अनुरूप ही कान्तिमान् है। दक्षिणवर्ती मुख नील मेघ के समान श्याम और देखने में भयंकर है। उत्तरवर्ती मुख मूँगे के समान लाल है और सिर की नीली अलकें उसकी शोभा बढ़ाती हैं। पश्चिमवर्ती मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, सौम्य तथा चन्द्रकलाधारी है। उस शिवमूर्ति के अंक में पराशक्ति माहेश्वरी शिवा आरूढ़ हैं। उनकी अवस्था सोलह वर्ष की-सी है। वे सबका मन मोहनेवाली हैं और महालक्ष्मी के नाम से विख्यात हैं।

इस प्रकार भावनामयी मूर्ति का निर्माण और सकलीकरण करके उनमें परम कारण शिव का आवाहन और पूजन करे। वहाँ स्नान कराने के लिये कपिला गाय के पंचगव्य और पंचामृत का संग्रह करे। विशेषतः चूर्ण और बीज को भी एकत्र करे। फिर पूर्वदिशा में मण्डल बनाकर उसे रत्नचूर्ण आदि से अलंकृत करके कमल की कर्णिका में ईशान-कलश की स्थापना करे। तत्पश्चात् उसके चारों ओर सद्योजात आदि मूर्तियों के कलशों की स्थापना करे। इसके बाद पूर्व आदि आठ दिशाओं में क्रमशः विद्येश्वर के आठ कलशों की स्थापना करके उन सबको तीर्थ के जल से भर दे और कण्ठ में सूत लपेट दे। फिर उनके भीतर पवित्र द्रव्य छोड़कर मन्त्र और विधि के साथ साड़ी या धोती आदि वस्त्र से उन सब कलशों को चारों ओर से आच्छादित कर दे। तदनन्तर मन्त्रोच्चारणपूर्वक उन सब में मन्त्रन्यास करके सस्नान का समय आने पर सब प्रकार के मांगलिक शब्दों और वाद्यों के साथ पंचगव्य आदि के द्वारा परमेश्वर शिव को स्नान कराये। कुशोदक, स्वर्णोदक और रत्तोदक आदि को – जो गन्ध, पुष्प आदि से वासित और मन्त्र सिद्ध हों – क्रमशः ले-लेकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक उन-उनके द्वारा महेश्वर को नहलाये। फिर गन्ध, पुष्प और दीप आदि निवेदन करके पूजा-कर्म सम्पन्न करे। आलेपन या उबटन कम-से-कम एक पल और अधिक-से-अधिक ग्यारह पल हो। सुन्दर सुवर्णमय और रत्नमय पुष्प अर्पित करे। सुगन्धित नील कमल, नील कुमुद, अनेकशः बिल्वपत्र, लाल कमल और श्वेत कमल भी शम्भु को चढ़ाये। कालागुरु के धूप को कपूर, घी और गुग्गुल से युक्त करके निवेदन करे। कपिला गाय के घी से युक्त दीपक में कपूर की बत्ती बनाकर रखे और उसे जलाकर देवता के सम्मुख दिखाये। ईशानादि पाँच ब्रह्म की, छहों अंगों की और पाँच आवरणों की पूजा करनी चाहिये। दूध में तैयार किया हुआ पदार्थ नैवेद्य के रूप में निवेदनीय है। गुड़ और घी से युक्त महाचरु का भी भोग लगाना चाहिये। पाटल, उत्पल और कमल आदि से सुवासित जल पीने के लिये देना चाहिये। पाँच प्रकार की सुगन्धों से युक्त तथा अच्छी तरह लगाया हुआ ताम्बूल मुखशुद्धि के लिये अर्पित करना चाहिये। सुवर्ण और रत्नों के बने हुए आभूषण, नाना प्रकार के रंगवाले नूतन महीन वस्त्र, जो दर्शनीय हों, इष्टदेव को देने चाहिये। उस समय गीत, वाद्य और कीर्तन आदि भी करने चाहिये।

मूलमन्त्र का एक लाख जप करना चाहिये। पूजा कम-से-कम एक बार, नहीं तो दो या तीन बार करनी चाहिये; क्योंकि अधिक का अधिक फल होता है। होम-सामग्री के लिये जितने द्रव्य हों, उनमें से प्रत्येक द्रव्य की कम-से-कम दस और अधिक-से-अधिक सौ आहुतियाँ देनी चाहिये। मारण और उच्चाटन आदि में शिव के घोररूप का चिन्तन करना चाहिये। शान्तिकर्म या पौष्टिककर्म करते समय शिवलिंग में, शिवागिनि में तथा अन्य प्रतिमाओं में शिव के सौम्यरूप का ध्यान करना चाहिये। मारण आदि कर्मों में लोहे के बने हुए स्त्रुक् और स्त्रुवा का उपयोग करना चाहिये। अन्य शान्ति आदि कर्मों में स्त्रुक् और स्त्रुवा बनवाने चाहिये। मृत्यु पर विजय पाने के लिये घी, दूध में मिलायी हुई दूर्वा से, मधु से, घृत युक्त चरू से अथवा केवल दूध से भी हवन करना चाहिये तथा रोगों की शान्ति के लिये तिलों की आहुति देनी चाहिये। समृद्धि की इच्छा रखनेवाला पुरुष महान् zzzz pg 811 left col -3rd line दारिद्र्य की शान्ति के लिये घी, दूध अथवा केवल कमल के फूलों से होम करे। वशीकरण का इच्छुक पुरुष घृतयुक्त जातीपुष्प (चमेली या मालती के फूल) से हवन करे। द्विज को चाहिये कि वह घृत और करवीर-पुष्पों से आहुति देकर आकर्षण का प्रयोग सफल करे। तेल की आहुति से उच्चाटन और मधु को आहुति से स्तम्भन कर्म करे। सरसों को आहुति से भी स्तम्भन किया जाता है। बड़ के बीज और तिल की आहुति द्वारा मारण और उच्चाटन करे। नारियल के तेल की आहुति देकर विद्वेषण कर्म करे। रोही के बीज की आहुति देकर बन्धन का तथा लाल सरसों मिले हुए सम्पूर्ण होम-द्रव्यों से सेना-स्तम्भन का प्रयोग करे।

अभिचार-कर्म में हस्तचालित यन्त्र से तैयार किये गये तेल की आहुति देनी चाहिये। कुटकी की भूसी, कपास की ढोढ़ तथा तैलमिश्रित सरसों की भी आहुति दी जा सकती है। दूध की आहुति ज्वर की शान्ति करने वाली तथा सौभाग्य रूप फल प्रदान करने वाली होती है। मधु, घी, और दही को परस्पर मिलाकर इनसे, दूध और चावल से अथवा केवल दूध से किया गया होम सम्पूर्ण सिद्धियों को देनेवाला होता है। सात समिधा आदि से शान्तिक अथवा पौष्टिक कर्म भी करे। विशेषतः द्रव्यों द्वारा होम करने पर वश्य और आकर्षण की सिद्धि होती है। बिल्वपत्रों का हवन वशीकरण तथा आकर्षण का साधक और लक्ष्मी की प्राप्ति करानेवाला है, साथ ही वह शत्रु पर विजय प्रदान कराता है। शान्तिकार्य में पलाश और खैर आदि की समिधाओं का होम करना चाहिये। क्रूरतापूर्ण कर्म में कनेर और आक की समिधाएँ होनी चाहिये। लड़ाई-झगड़े में कटीले पेड़ों की समिधाओं का हवन करना चाहिये। शान्ति और पुष्टिकर्म को विशेषतः शान्तचित्त पुरुष ही करे। जो निर्दय और क्रोधी हो, उसी को आभिचारिक कर्म में प्रवृत्त होना चाहिये। वह भी उस दशा में जबकि दुरवस्था चरम सीमा को पहुँच गयी हो और उसके निवारण का दूसरा कोई उपाय न रह गया हो, आततायी को नष्ट करने के उद्देश्य से आभिचारिक कर्म करना चाहिये। अपने राष्ट्रपति को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से आभिचारिक कर्म कदापि नहीं करना चाहिये। यदि कोई आस्तिक, परम धर्मात्मा और माननीय पुरुष हो, उससे यदि कभी आततायीपन का कार्य हो जाय, तो भी उसको नष्ट करने के उद्देश्य से आभिचारिक कर्म का प्रयोग नहीं करना चाहिये। जो कोई भी मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान् शिव के आश्रित हो, उसके तथा राष्ट्रपति के उद्देश्य से भी आभिचारिक कर्म करके मनुष्य शीघ्र ही पतित हो जाता है। इसलिये कोई भी पुरुष जो अपने लिये सुख चाहता हो, अपने राष्ट्रपालक राजा की तथा शिवभक्त की अभिचार आदि के द्वारा हिंसा न करे। दूसरे किसी के उद्देश्य से भी मारण आदि का प्रयोग करने पर पश्चात्ताप से युक्त हो प्रायश्चित्त करना चाहिये।

निर्धन या धनवान् पुरुष भी बाणलिंग (नर्मदा से प्रकट हुए शिवलिंग), ऋषियों द्वारा स्थापित लिंग या वैदिक लिंग में भगवान् शंकर की पूजा करे। जहाँ ऐसे लिंग का अभाव हो वहाँ सुवर्ण और रत्न के बने हुए शिवलिंग में पूजा करनी चाहिये। यदि सुवर्ण और रत्नों के उपार्जन की शक्ति न हो तो मन से ही भावनामयी मूर्ति का निर्माण करके मानसिक पूजन करना चाहिये। अथवा प्रतिनिधि द्रव्यों द्वारा शिवलिंग की कल्पना करनी चाहिये। जो किसी अंश में समर्थ और किसी अंश में असमर्थ है, वह भी यदि अपनी शक्ति के अनुसार पूजन कर्म करता है तो अवश्य फल का भागी होता है। जहाँ इस कर्म का अनुष्ठान करने पर भी फल नहीं दिखायी देता, वहाँ दो या तीन बार उसकी आवृत्ति करे। ऐसा करने से सर्वथा फल का दर्शन होगा। पूजा के उपयोग में आया हुआ जो सुवर्ण, रत्न आदि उत्तम द्रव्य हो, वह सब गुरु को दे देना चाहिये तथा उसके अतिरिक्त दक्षिणा भी देनी चाहिये। यदि गुरु नहीं लेना चाहते हों तो वह सब वस्तु भगवान् शिव को ही समर्पित कर दे अथवा शिवभक्तों को दे दे। इनके सिवा दूसरों को देने का विधान नहीं है। जो पुरुष गुरु आदि की अपेक्षा न रखकर स्वयं यथाशक्ति पूजा सम्पन्न करता है, वह भी ऐसा ही आचरण करे। पूजा में चढ़ायी हुई वस्तु स्वयं न ले ले। जो मूढ़ लोभवश पूजा के अंगभूत उत्तम द्रव्य को स्वयं ग्रहण कर लेता है, वह अभीष्ट फल को नहीं पाता। इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। किसी के द्वारा पूजित शिवलिंग को मनुष्य ग्रहण करे या न करे, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। यदि ले ले तो स्वयं नित्य उसकी पूजा करे अथवा उसकी प्रेरणा से दूसरा कोई पूजा करे। जो पुरुष इस कर्म का शास्त्रीय विधि के अनुसार ही निरन्तर अनुष्ठान करता है, वह फल पाने से कभी वंचित नहीं रहता। इससे बढ़कर प्रशंसा की बात और क्या हो सकती है?

तथापि मैं संक्षेप से कर्मजनित उत्तम सिद्धि की महिमा का वर्णन करता हूँ। इससे शत्रुओं अथवा अनेक प्रकार की व्याधियों का शिकार होकर और मौत के मुँह में पड़कर भी मनुष्य बिना किसी विध्न-बाधा के मुक्त हो जाता है। अत्यन्त कृपण भी उदार और निर्धन भी कुबेर के समान हो जाता है। कुरूप भी कामदेव के समान सुन्दर और बूढ़ा भी जवान हो जाता है। शत्रु क्षणभर में मित्र और विरोधी भी किंकर हो जाता है। अमृत विष के समान और विष भी अमृत के समान हो जाता है। समुद्र भी स्थल और स्थल भी समुद्रवत् हो जाता है। गड्ढा पहाड़-जैसा ऊँचा और पर्वत भी गड्ढे के समान हो जाता है। अग्नि सरोवर के समान शीतल और सरोवर भी अग्नि के समान दाहक बन जाता है। उद्यान जंगल और जंगल उद्यान हो जाता है। क्षुद्र मृग सिंह के समान शौर्यशाली और सिंह भी क्रीडामृग के समान आज्ञापालक हो जाता है। स्त्रियाँ अभिसारिका बन जाती हैं – अधिक प्रेम करने लगती हैं और लक्ष्मी सुस्थिर हो जाती है। वाणी इच्छानुसार दासी बन जाती है और कीर्ति गणिका के समान सर्वत्रगामिनी हो जाती है। बुद्धि स्वेच्छानुसार विचरनेवाली और मन हीरे को छेदनेवाली सूई के समान सूक्ष्म हो जाता है। शक्ति आँधी के समान प्रबल हो जाती है और बल मत्त गजराज के समान पराक्रमशाली होता है। शत्रु-पक्ष के उद्योग और कार्य स्तब्ध हो जाते हैं तथा शत्रुओं के समस्त सुहृद्गण उनके लिये शत्रुपक्ष के समान हो जाते हैं। शत्रु बन्धु-बान्धवों सहित जीते-जी मुर्दे के समान हो जाते हैं और सिद्धपुरुष स्वयं आपत्ति में पड़कर भी अरिष्टरहित (संकटमुक्त) हो जाता है। अमरत्व-सा प्राप्त कर लेता है। उसका खाया हुआ अपथ्य भी उसके लिये सदा रसायन का काम देता है। निरन्तर रति का सेवन करने पर भी वह नया-सा ही बना रहता है। भविष्य आदि की सारी बातें उसे हाथ पर रखे हुए आँवले के समान प्रत्यक्ष दिखायी देती हैं। अणिमा आदि सिद्धियाँ भी इच्छा करते ही फल देने लगती हैं। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ, इस कर्म का सम्पादन कर लेने पर सम्पूर्ण कामार्थ सिद्धियों में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं रहती जो अलभ्य हो।

(अध्याय ३२)