शिव के पाँच आवरणों में स्थित सभी देवताओं की स्तुति तथा उनसे अभीष्टपूर्ति एवं मंगल की कामना
उपमन्युरुवाच
स्तोत्रं वक्ष्यामि ते कृष्ण पञ्चावरणमार्गतः।
योगेश्वरमिदं पुण्यं कर्म येन समाप्यते ॥ १ ॥
उपमन्यु कहते हैं – श्रीकृष्ण! अब मैं तुम्हारा समक्ष पंचावरण-मार्ग से किये जानेवाले स्तोत्र का वर्णन करूँगा, जिससे यह योगेश्वर नामक पुण्यकर्म पूर्ण रूप से सम्पन्न होता है ॥ १ ॥
जय जय जगदेकनाथ शम्भो प्रकृतिमनोहर नित्यचित्स्वभाव।
अतिगतकलुषप्रपञ्चवाचा मपि मनसां पदवीमतीततत्त्वम् ॥ २ ॥
जगत् के एकमात्र रक्षक! नित्य चिन्मयस्वभाव! प्रकृतिमनोहर शम्भो! आपका तत्त्व कलुषराशि से रहित, निर्मल वाणी तथा मन की पहुँच से भी परे है। आपकी जय हो, जय हो ॥ २ ॥
स्वभावनिर्मलाभोग जय सुन्दरचेष्टित।
स्वात्मतुल्यमहाशक्ते जय शुद्धगुणार्णव ॥ ३ ॥
आपका श्रीविग्रह स्वभाव से ही निर्मल है, आपकी चेष्टा परम सुन्दर है, आपकी जय हो। आपकी महाशक्ति आपके ही तुल्य है। आप विशुद्ध कल्याणमय गुणों के महासागर हैं, आपकी जय हो ॥ ३ ॥
अनन्तकान्तिसम्पन्न जयासदृशविग्रह।
अतर्क्यमहिमाधार जयानाकुलमङ्गल ॥ ४ ॥
आप अनन्त कान्ति से सम्पन्न हैं। आपके श्रीविग्रह की कहीं तुलना नहीं है, आपकी जय हो। आप अतर्क्य महिमा के आधार हैं तथा शान्तिमय मंगल के निकेतन हैं। आपकी जय हो ॥ ४ ॥
निरञ्जन निराधार जय निष्कारणोदय।
निरन्तरपरानन्द जय निर्वृतिकारण ॥ ५ ॥
निरंजन (निर्मल), आधाररहित तथा बिना कारण के प्रकट होनेवाले शिव! आपकी जय हो। निरन्तर परमानन्दमय! शान्ति और सुख के कारण! आपकी जय हो। ॥ ५ ॥
जयातिपरमैश्वर्य जयातिकरुणास्पद।
जय स्वतन्त्रसर्वस्व जयासदृशवैभव ॥ ६ ॥
अतिशय उत्कृष्ट ऐश्वर्य से सुशोभित तथा अत्यन्त करुणा के आधार! आपकी जय हो। प्रभो! आपका सब कुछ स्वतन्त्र है तथा आपके वैभव की कहीं समता नहीं है; आपकी जय हो, जय हो ॥ ६ ॥
जयावृतमहाविश्व जयानावृत केनचित्।
जयोत्तर समस्तस्य जयात्यन्तनिरुत्तर ॥ ७ ॥
आपने विराट् विश्व को व्याप्त कर रखा है, किंतु आप किसी से भी व्याप्त नहीं हैं। आपकी जय हो, जय हो। आप सबसे उत्कृष्ट हैं, किंतु आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। आपकी जय हो, जय हो ॥ ७ ॥
जयाद्भुत जयाक्षुद्र जयाक्षत जयाव्यय।
जयामेय जयामाय जयाभव जयामल ॥ ८ ॥
आप अद्भुत हैं, आपकी जय हो। आप अक्षुद्र (महान्) हैं, आपकी जय हो। आप अक्षत (निर्विकार) हैं, आपकी जय हो। आप अविनाशी हैं, आपकी जय हो। अप्रमेय परमात्मन्! आपकी जय हो। मायारहित महेश्वर! आपकी जय हो। अजन्मा शिव! आपकी जय हो। निर्मल शंकर! आपकी जय हो ॥ ८ ॥
महाभुज महासार महागुण महाकथ।
महाबल महामाय महारस महारथ ॥ ९ ॥
महाबाहो! महासार! महागुण! महती कीर्तिकथा से युक्त! महाबली! महामायावी! महान् रसिक तथा महारथ! आपकी जय हो ॥ ९ ॥
नमः परमदेवाय नमः परमहेतवे।
नमः शिवाय शान्ताय नमः शिवतराय ते ॥ १० ॥ ।
आप परम आराध्य को नमस्कार है। आप परम कारण को नमस्कार है। शान्त शिव को नमस्कार है और आप परम कल्याणमय प्रभु को नमस्कार है ॥ १० ॥
त्वदधीनमिदं कृत्स्नं जगद्धि ससुरासुरम् ॥ ११ ॥
अतस्त्वद्विहितामाज्ञां क्षमते कोऽतिवर्तितुम् ॥ १२ ॥
देवताओं और असुरों सहित यह सम्पूर्ण जगत् आपके अधीन है। अतः आपकी आज्ञा का उल्लंघन करने में कौन समर्थ हो सकता है ॥ ११-१२ ॥
अयं पुनर्जनो नित्य भवदेकसमाश्रयः।
भवानतोऽनुगृह्यास्मै प्रार्थितं सम्प्रयच्छतु ॥ १३ ॥
हे सनातनदेव! यह सेवक एकमात्र आपके ही आश्रित है; अतः आप इसपर अनुग्रह करके इसे इसकी प्रार्थित वस्तु प्रदान करें ॥ १३ ॥
जयाम्बिके जगन्मातर्जय सर्वजगन्मयि।
जयानवधिकैश्वर्ये जयानुपमविग्रहे ॥ १४ ॥
अम्बिके! जगन्मातः! आपकी जय हो। सर्वजगन्मयी! आपकी जय हो। असीम ऐश्वर्यशालिनि! आपकी जय हो। आपके श्रीविग्रह की कहीं उपमा नहीं है, आपकी जय हो ॥ १४ ॥
जय वाङ्मनसातीते जयाचिद्ध्वान्तरभञ्जिके।
जय जन्मजराहीने जय कालोत्तरोत्तरे ॥ १५ ॥
मन, वाणी से अतीत शिवे! आपकी जय हो। अज्ञानान्धकार का भंजन करने वाली देवि! आपकी जय हो। जन्म और जरा से रहित उमे! आपकी जय हो। काल से भी अतिशय उत्कृष्ट शक्तिवाली दुर्ग! आपकी जय हो ॥ ९५ ॥
जयानेकविधानस्थे जय विश्वेश्वरप्रिये।
जय विश्वसुराराध्ये जय विश्वविजृम्भिणि ॥ १६ ॥
अनेक प्रकार के विधानों में स्थित परमेश्वरि! आपकी जय हो। विश्वनाथ-प्रिये! आपकी जय हो। समस्त देवताओं की आराधनीया देवि! आपकी जय हो। सम्पूर्ण विश्व का विस्तार करने वाली जगदम्बिके! आपकी जय हो ॥ १६ ॥
जय मङ्गलदिव्याङ्गि जय मङ्गलदीपिके।
जय मङ्गलचारित्रे जय मङ्गलदायिनि ॥ १७ ॥
मंगलमय दिव्य अंगोंवाली देवि! आपकी जय हो। मंगल को प्रकाशित करने वाली! आपकी जय हो। मंगलमय चरित्रवाली सर्वमंगले! आपकी जय हो। मंगलदायिनि! आपकी जय हो ॥ १७ ॥
नमः परमकल्याणगुणसंचयमूर्तये।
त्वत्तः खलु समुत्पन्नं जगत्त्वय्येव लीयते ॥ १८ ॥
परम कल्याणमय गुणों की आप मूर्ति हैं, आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत् आपसे ही उत्पन्न हुआ है, अतः आप में ही लीन होगा ॥ १८ ॥
त्वद्विनातः फलं दातुमीश्वरोऽपि न शक्नुयात्।
जन्मप्रभृति देवेशि जनोऽयं त्वदुपाश्रितः ॥ १९ ॥
अतोऽस्य तव भक्तस्य निर्वर्तय मनोरथम्।
देवेश्वरि! अतः आपके बिना ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं हो सकते। यह जन जन्मकाल से ही आपकी शरण में आया हुआ है। अतः देवि! आप अपने इस भक्त का मनोरथ सिद्ध कीजिये ॥ १९ १/२ ॥
पञ्चवक्त्रो दशभुजः शुद्धस्फटिकसंनिभः॥ २० ॥
वर्णब्रह्मकलादेहो देवः सकलनिष्कलः।
शिवमूर्तिसमारूढः शान्त्यतीतः सदाशिवः।
भक्त्या मयार्चितो मह्यं प्रार्थितं शं प्रयच्छतु॥ २१ ॥
प्रभो! आपके पाँच मुख और दस भुजाएँ हैं। आपकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल है। वर्ण, ब्रह्म और कला आपके विग्रह रूप हैं। आप सकल और निष्कल देवता हैं। शिवमूर्ति में सदा व्याप्त रहनेवाले हैं। शान्त्यतीत पद में विराजमान सदाशिव आप ही हैं। मैंने भक्तिभाव से आपकी अर्चना की है। आप मुझे प्रार्थित कल्याण प्रदान करें ॥ २०-२१ ॥
सदाशिवाङ्कमारूढा शक्तिरिच्छा शिवाह्वया।
जननी सर्वलोकानां प्रयच्छतु मनोरथम् ॥ २२ ॥
सदाशिव के अंक में आरूढ़, इच्छा-शक्तिस्वरूपा, सर्वलोकजननी शिवा मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ २२ ॥
शिवयोर्दयितौ पुत्रौ देवौ हेरम्बषण्मुखौ।
शिवानुभावौ सर्वज्ञौ शिवज्ञानामृताशिनौ ॥ २३ ॥
तृप्तौ परस्परं स्निग्धौ शिवाभ्यां नित्यसत्कृतौ।
सत्कृतौ च सदा देवौ ब्रह्माद्यैस्त्रिदशैरपि ॥ २४ ॥
सर्वलोकपरित्राणं कर्तुमभ्युदितौ सदा।
स्वेच्छावतारं कुर्वन्ती स्वांशभेदैरनेकशः ॥ २५ ॥
ताविमौ शिवयोः पार्श्वे नित्यमित्थं मयार्चितौ।
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य प्रार्थितं मे प्रयच्छताम् ॥ २६ ॥
शिव और पार्वती के प्रिय पुत्र, शिव के समान प्रभावशाली सर्वज्ञ तथा शिवज्ञानामृत का पान करके तृप्त रहनेवाले देवता गणेश और कार्तिकेय परस्पर स्नेह रखते हैं। शिवा और शिव दोनों से सत्कृत हैं तथा ब्रह्मा आदि देवता भी इन दोनों देवों का सर्वथा सत्कार करते हैं। ये दोनों भाई निरन्तर सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करने के लिये उद्यत रहते हैं और अपने विभिन्न अंशों द्वारा अनेक बार स्वेच्छापूर्वक अवतार धारण करते हैं। वे ही ये दोनों बन्धु शिव और शिवा के पार्श्व भाग में मेरे द्वारा इस प्रकार पूजित हो उन दोनों की आज्ञा ले प्रतिदिन मुझे प्रार्थित वस्तु प्रदान करें ॥ २३-२६ ॥
शुद्धस्फटिकसंकाशमीशानाख्यं सदाशिवम्।
मूद्धाभिमानिनी मूर्तिः शिवस्य परमात्मनः ॥ २७ ॥
शिवार्चनरतं शान्तं शान्त्यतीतं खमास्थितम्।
पञ्चाक्षरान्तिमं बीजं कलाभिः पञ्चभिर्युतम् ॥ २८॥
प्रथमावरणे पूर्वं शक्त्या सह समर्चितम्।
पवित्र परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ २९ ॥
जो शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल, ईशान नाम से प्रसिद्ध और सदा कल्याणस्वरूप है, परमात्मा शिव की मूर्धाभिमानिनी मूर्ति है; शिवार्चन में रत, शान्त, शान्त्यतीतकला में प्रतिष्ठित, आकाशमण्डल में स्थित शिव-पंचाक्षर का अन्तिम बीजस्वरूप, पाँच कलाओं से युक्त और प्रथम आवरण में सबसे पहले शक्ति के साथ पूजित है, वह पवित्र परब्रह्म मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करे ॥ २७-२९ ॥
बालसूर्यप्रतीकाशं पुरुषाख्यं पुरातनम्।
पूर्ववक्त्राभिमानं च शिवस्य परमेष्ठिनः ॥ ३० ॥
शान्त्यात्मकं मरुत्संस्थं शम्भोः पादार्चने रतम्।
प्रथमं शिवबीजेषु कलासु च चतुष्कलम् ॥ ३१ ॥
पूर्वभागे मया भकत्या शक्त्या सह समर्चितम्।
पवित्र परमं ब्रह्म प्राथितं मे प्रयच्छतु ॥ ३२ ॥
जो प्रातःकाल के सूर्य की भाँति अरुण प्रभा से युक्त, पुरातन, तत्पुरुष नाम से विख्यात, परमेष्ठी शिव के पूर्ववर्ती मुख का अभिमानी, शान्तिकलास्वरूप या शान्तिकला में प्रतिष्ठित, वायुमण्डल में स्थित, शिवचरणार्चन परायण, शिव के बीजों में प्रथम और कलाओं में चार कलाओं से युक्त है, मैंने पूर्वदिशा में भक्तिभाव से शक्ति सहित जिसका पूजन किया है, वह पवित्र परब्रह्म शिव मेरी प्रार्थना सफल करे ॥ ३०-३२ ॥
अञ्जनादिप्रतीकाशमघोरं घोरविग्रहम्।
देवस्य दक्षिणं वकत्रं देवदेवपदार्चकम् ॥ ३३ ॥
विद्यापदं समारूढं वह्निमण्डलमध्यगम्।
द्वितीयं शिवबीजेषु कलास्वष्टकलान्वितम् ॥ ३४ ॥
शम्भोर्दक्षिणटिग्भागे शक्त्या सह समर्चितम्।
पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ३५ ॥
जो अंजन आदि के समान श्याम, घोर शरीरवाला एवं अघोर नाम से प्रसिद्ध है, महादेवजी के दक्षिण मुख का अभिमानी तथा देवाधिदेव शिव के चरणों का पूजक है, विद्याकला पर आरूढ़ और अग्निमण्डल के मध्य विराजमान है, शिवबीजों में द्वितीय तथा कलाओं में अष्टकलायुक्त एवं भगवान् शिव के दक्षिण भाग में शक्ति के साथ पूजित है, वह पवित्र परब्रह्म मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करे ॥ ३३-३५ ॥
कुङ्कुमक्षोदसंकाशं वामाख्यं वरवेषधृक्।
वक्त्रमुत्तमीशस्य प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठितम् ॥ ३६ ॥
वारिमण्डलमध्यस्थं महादेवार्चने रतम्।
तुरीयं शिवबीजेषु त्रयोदशकलान्वितम् ॥ ३७ ॥
देवस्योत्तरदिग्भागे शकत्या सह समर्चितम्।
पवित्र परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ३८ ॥
जो कुंकुमचूर्ण अथवा केसर युक्त चन्दन के समान रक्त-पीतवर्णवाला, सुन्दर वेषधारी और वामदेव नाम से प्रसिद्ध है, भगवान् शिव के उत्तरवर्ती मुख का अभिमानी है, प्रतिष्ठाकला में प्रतिष्ठित है, जल के मण्डल में विराजमान तथा महादेवजी की अर्चना में तत्पर है, शिवबीजों में चतुर्थ तथा तेरह कलाओं से युक्त है और महादेवजी के उत्तर भाग में शक्ति के साथ पूजित हुआ है, वह पवित्र परब्रह्म मेरी प्रार्थना पूर्ण करे ॥ ३६-३८ ॥
शङ्खकुन्देन्दुधवलं सद्याख्यं सौम्यलक्षणम्।
शिवस्य पश्चिमं वक्त्रं शिवपादार्चने रतम् ॥ ३९ ॥
निवृत्तिपदनिष्ठं च पृथिव्यां समवस्थितम्।
तृतीयं शिवबीजेषु कलाभिश्चाष्टभिर्युतम् ॥ ४० ॥
देवस्य पश्चिमे भागे शकत्या सह समर्चितम्।
पवित्रं परमं ब्रह्म प्राथितं मे प्रयच्छतु ॥ ४१ ॥
जो शंख, कुन्द और चन्द्रमा के समान धवल, सौम्य तथा सद्योजात नाम से विख्यात है, भगवान् शिव के पश्चिम मुख का अभिमानी एवं शिवचरणों की अर्चना में रत है, निवृत्तिकला में प्रतिष्ठित तथा पृथ्वीमण्डल में स्थित है, शिवबीजों में तृतीय, आठ कलाओं से युक्त और महादेवजी के पश्चिम भाग में शक्ति के साथ पूजित हुआ है, वह पवित्र परब्रह्म मुझे मेरी प्रार्थित वस्तु दे ॥ ३९-४१ ॥
शिवस्य तु शिवायाश्च हन्मूर्त्ती शिवभाविते।
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ४२ ॥
शिव और शिवा की हृदयरूपी मूर्तियाँ शिवभाव से भावित हो उन्हीं दोनों की आज्ञा शिरोधार्य करके मेरा मनोरथ पूर्ण करें ॥ ४२ ॥
शिवस्य च शिवायाश्च शिखामूर्त्ती शिवाश्रिते।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे काम प्रयच्छताम् ॥ ४३ ॥
शिव और शिवा की शिखारूपा मूर्तियाँ शिव के ही आश्रित रहकर उन दोनों की आज्ञा का आदर करके मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ॥ ४३ ॥
शिवस्य च शिवायाश्च वर्मणा शिवभाविते।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ४४ ॥
शिव और शिवा की कवचरूपा मूर्तियाँ शिवभाव से भावित हो शिव-पार्वती की आज्ञा का सत्कार करके मेरी कामना सफल करें ॥ ४४ ॥
शिवस्य च शिवायाश्च नेत्रमृर्त्ती शिवाश्रिते।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते में काम प्रयच्छताम् ॥ ४५ ॥
शिव और शिवा की नेत्ररूपा मूर्तियाँ शिव के आश्रित रह उन्हीं दोनों की आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मेरा मनोरथ प्रदान करें ॥ ४५ ॥
अस्त्रमुर्त्ती च शिवयोर्नित्यमर्चनतत्परे।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ४६ ॥
शिव और शिवा की अस्त्ररूपा मूर्तियाँ नित्य उन्हीं दोनों के अर्चन में तत्पर रह उनकी आज्ञा का सत्कार करती हुई मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ॥ ४६ ॥
वामो ज्येष्ठस्तथा रुद्रः कालो विकरणस्तथा।
बलो विकरणश्चैव बलप्रमथनः परः ॥ ४७ ॥
सर्वभूतस्य दमनस्तादृशाश्चाष्टशक्तयः।
प्रार्थितं मे प्रयच्छन्तु शिवयोरेव शासनात् ॥ ४८ ॥
वाम, ज्येष्ठ, रुद्र, काल, विकरण, बलविकरण, बलप्रमथन तथा सर्वभूत दमन – ये आठ शितवमूर्तियाँ तथा इन की वैसी ही आठ शक्तियाँ – वामा, ज्येष्ठा, रुद्राणी, काली, विकरणी, बलविकरणी, बलप्रमथनी तथा सर्वभूतदमनी – ये सब शिव और शिवा के ही शासन से मुझे प्रार्थित वस्तु प्रदान करें ॥ ४७-४८ ॥
अथानन्तश्च सूक्ष्मश्च शिवश्चाप्येकनेत्रकः।
एकरुद्रस्त्रिमूर्तिश्च श्रीकण्ठश्च शिखण्डिकः ॥ ४९ ॥
तथाष्टौ शक्तयस्तेषां द्वितीयावरणेऽर्चिताः।
ते मे काम प्रयच्छन्तु शिवयोरेव शासनात् ॥ ५० ॥
अनन्त, सूक्ष्म, शिव (अथवा शिवोत्तम), एकनेत्र, एकरूद्र, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ और शिखण्डी – ये आठ विद्येश्वर तथा इनकी वैसी ही आठ शक्तियाँ – अनन्ता, सूक्ष्मा, शिवा (अथवा शिवोत्तमा), एकनेत्रा, एकरूद्रा, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठी और शिखण्डिनी, जिनकी द्वितीय आवरण में पूजा हुई है, शिवा और शिव के ही शासन से मेरी मनःकामना पूर्ण करें ॥ ४९-५० ॥
भवाद्या मूर्तयश्चाष्टौ तासामपि च शक्तयः।
महादेवादयश्चान्ये तथैकादशमूर्तयः ॥ ५१ ॥
शक्तिभिः सहिताः सर्वे तृतीयावरणे स्थिताः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां दिशन्तु फलमीप्सितम् ॥ ५२ ॥
भव आदि आठ मूर्तियाँ और उनकी शक्तियाँ तथा शक्तियों सहित महादेव आदि ग्यारह मूर्तियाँ, जिनकी स्थिति तीसरे आवरण में है, शिव और पार्वती की आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे अभीष्ट फल प्रदान करें ॥ ५१-५२ ॥
वृषरजो महातेजा महामेघसमस्वनः।
मेरुमन्दरकैलासहिमाद्रिशिखरोपमः ॥ ५३ ॥
सिताभ्रशिखराकारककुदा परिशोभितः।
महाभोगीन्द्रकल्पेन वालेन च विराजितः ॥ ५४ ॥
रक्तास्यश्रृङ्गचरणो रक्तप्रायविलोचनः।
पीवरोन्नतसर्वाङ्गः सुचारुगमनोज्ज्वलः ॥ ५५ ॥
प्रशस्तलक्षणः श्रीमान् प्रज्वलन्मणिभूषणः।
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवयोध्र्वजवाहनः ॥ ५६ ॥
तथा तच्चरणन्यासपावितापरविग्रहः।
गोराजपुरुषः श्रीमाञ् श्रीमच्छूलवरायुधः।
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे काम प्रयच्छतु ॥ ५७ ॥
जो वृषभों के राजा महातेजस्वी, महान् मेघ के समान शब्द करनेवाले, मेरु, मन्दराचल, कैलास और हिमालय के शिखर की भाँति ऊँचे एवं उज्ज्वल वर्णवाले हैं, श्वेत बादलों के शिखर की भाँति ऊँचे ककुद् से शोभित हैं, महानागराज (शेष) के शरीर की भाँति पूँछ जिनकी शोभा बढ़ाती है, जिनके मुख, सींग और पैर भी लाल हैं, नेत्र भी प्रायः लाल ही हैं, जिनके सारे अंग मोटे और उन्नत हैं, जो अपनी मनोहर चाल से बड़ी शोभा पाते हैं, जिनमें उत्तम लक्षण विद्यमान हैं, जो चमचमाते हुए मणिमय आभूषणों से विभूषित हो अत्यन्त दीप्तिमान् दिखायी देते हैं, जो भगवान् शिव को प्रिय हैं और शिव में ही अनुरक्त रहते हैं, शिव और शिवा दोनों के ही जो ध्वज और वाहन हैं तथा उनके चरणों के स्पर्श से जिनका पृष्ठ भाग परम पवित्र हो गया है, जो गौओं के राजपुरुष हैं, वे श्रेष्ठ और चमकीला त्रिशूल धारण करनेवाले नन्दिकेश्वर वृषभ शिव और शिवा की आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ॥ ५३-५७ ॥
नन्दीश्वरो महातेजा नगेन्द्रतनयात्मजः।
सनारायणकैर्देवैर्नित्यमभ्यर्च्य वन्दितः ॥ ५८ ॥
शर्वस्यान्तःपुरद्वारि सार्धं परिजनैः स्थितः।
सर्वेश्वरसमप्रख्यः सर्वासुरविमर्दनः ॥ ५९ ॥
सर्वेषां शिवधर्माणामध्यक्षत्वेऽभिषेचितः।
शिवप्रियः शिवासक्तः श्रीमच्छुलवरायुधः ॥ ६० ॥
शिवाश्रितेषु संसक्तस्त्वनुरक्तश्व तैरपि।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ६१ ॥
जो गिरिराजनन्दिनी पार्वती के लिये पुत्र के तुल्य प्रिय हैं, श्रीविष्पु आदि देवताओं द्वारा नित्य पूजित एवं वन्दित हैं, भगवान् शंकर के अन्तःपुर के द्वार पर परिजनों के साथ खड़े रहते हैं, सर्वेश्वर शिव के समान ही तेजस्वी हैं तथा समस्त असुरों को कुचल देने की शक्ति रखते हैं, शिवधर्म का पालन करनेवाले सम्पूर्ण शिवभक्तों के अध्यक्ष पद पर जिनका अभिषेक हुआ है, जो भगवान् शिव के प्रिय, शिव में ही अनुरक्त तथा तेजस्वी त्रिशूल नामक श्रेष्ठ आयुध धारण करनेवाले हैं, भगवान् शिव के शरणागत भक्तों पर जिनका स्नेह है तथा शिवभक्तों का भी जिनमें अनुराग है, वे महातेजस्वी नन्दीश्वर शिव और पार्वती की आज्ञा को शिरोधार्य करके मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ ५८-६१ ॥
महाकालो महाबाहुर्महादेव इवापरः।
महादेवाश्रितानां तु नित्यमेवाभिरक्षतु ॥ ६२ ॥
दूसरे महादेव के समान महातेजस्वी महाबाहु महाकाल महादेवजी के शरणागत भक्तों की नित्य ही रक्षा करें ॥ ६२ ॥
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवयोरर्चकः सदा।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ६३ ॥
वे भगवान् शिव के प्रिय हैं, भगवान् शिव में उनकी आसक्ति है तथा वे सदा ही शिव तथा पार्वती के पूजक हैं, इसलिये शिवा और शिव की आज्ञा का आदर करके मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ ६३ ॥
सर्वशात्त्रार्थतत्त्वज्ञः शास्ता विष्णोः परा तनुः।
महामोहात्मतनयो मधुमांसासवप्रियः।
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ६४ ॥
जो सम्पूर्ण शास्त्रों के तात्त्विक अर्थ के ज्ञाता, भगवान् विष्णु के द्वितीय स्वरूप, सबके शासक तथा महामोहात्मा कद्रू के पुत्र हैं, मधु, फल का गूदा और आसव जिन्हें प्रिय हैं, वे नागराज भगवान् शेष शिव और पार्वती की आज्ञा को सामने रखते हुए मेरी इच्छा को पूर्ण करें ॥ ६४ ॥
ब्रह्माणी चैव माहेशी कौमारी वैष्णवी तथा।
वाराही चैव माहेन्द्री चामुण्डा चण्डविक्रमा ॥ ६५ ॥
एता वै मातरः सप्त सर्वलोकस्य मातरः।
प्रार्थितं मे प्रयच्छन्तु परमेश्वरशासनात् ॥ ६६ ॥
ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री तथा प्रचणड पराक्रमशालिनी चामुण्डादेवी – ये सर्वलोकजननी सात माताएँ परमेश्वर शिव के आदेश से मुझे मेरी प्रार्थित वस्तु प्रदान करें ॥ ६५-६६ ॥
मत्तमातङ्गवदनो गङ्गोमाशङ्करात्मजः।
आकाशदेहो दिग्बाहुः सोमसूर्याग्निलोचनः ॥ ६७॥
ऐरावतादिभिर्दिव्यैर्दिग्गजैर्नित्यमर्चितः।
शिवज्ञानमदोद्भिन्नस्त्रिदशानामविघ्नकृत् ॥ ६८ ॥
विघ्नकृच्चासुरादीनां विघ्नेशः शिवभावितः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ६९ ॥
जिनका मतवाले हाथी का-सा मुख है; जो गंगा, उमा और शिव के पुत्र हैं; आकाश जिनका शरीर है, दिशाएँ भुजाए हैं तथा चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि जिनके तीन नेत्र हैं; ऐरावत आदि दिव्य दिग्गज जिनकी नित्य पूजा करते हैं, जिनके मस्तक से शिवज्ञानमय मद की धारा बहती रहती है, जो देवताओं के विघ्न का निवारण करते और असुर आदि के कार्यों में विघ्न डालते रहते हैं, वे विध्नराज गणेश शिव से भावित हो शिवा और शिव की आज्ञा शिरोधार्य करके मेरा मनोरथ प्रदान करें ॥ ६७-६९ ॥
षण्मुखः शिवसम्भूतः शक्तिवज्रधरः प्रभुः।
अग्नेश्व तनयो देवो ह्यपर्णातनयः पुनः ॥ ७० ॥
गङ्गायाश्च गणाम्बायाः कृत्तिकानां तथैव च।
विशाखेन च शाखेन नैगमेयेन चावृतः ॥ ७१ ॥
इन्द्रजिच्चेन्द्रसेनानीस्तारकासुरजित्तथा।
शैलानां मेरुमुख्यानां वेधकश्च स्वतेजसा ॥ ७२ ॥
तप्तचामीकरप्रख्यः शतपत्रदलेक्षणः।
कुमारः सुकुमाराणां रूपोदाहरणं महत् ॥ ७३ ॥
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चकः सदा।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ७४ ॥
जिनके छः मुख हैं, भगवान् शिव से जिनकी उत्पत्ति हुई है, जो शक्ति और वज्र धारण करनेवाले प्रभु हैं, अग्नि के पुत्र तथा अपर्णा (शिवा) के बालक हैं; गंगा, गणाम्बा तथा कृत्तिकाओं के भी पुत्र हैं; विशाख, शाख और नैगमेय – इन तीनों भाइयों से जो सदा घिरे रहते हैं; जो इन्द्र-विजयी, इन्द्र के सेनापति तथा तारकासुर को परास्त करनेवाले हैं; जिन्होंने अपनी शक्ति से मेरु आदि पर्वतों को छेद डाला है, जिनकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है, नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान सुन्दर हैं, कुमार नाम से जिनकी प्रसिद्धि है, जो सुकुमारों के रूप के सबसे बड़े उदाहरण हैं; शिव के प्रिय, शिव में अनुरक्त तथा शिव-चरणों की नित्य अर्चना करनेवाले हैं; स्कन्द, शिव और शिवा की आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मनोवांछित वस्तु दें ॥ ७०-७४ ॥
ज्येष्ठा वरिष्ठा वरदा शिवयोर्यजने रता।
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य सा मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ७५ ॥
सर्वश्रेष्ठ और वरदायिनी ज्येष्ठादेवी, जो सदा भगवान् शिव और पार्वती के पूजन में लगी रहती हैं, उन दोनों की आज्ञा मानकर मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ ७५ ॥
त्रैलोक्यवन्दिता साक्षादुल्काकारा गणाम्बिका।
जगत्सृष्टिविवृद्धयर्थं ब्रह्मणाभ्यर्थिता शिवात् ॥ ७६ ॥
शिवायाः प्रविभक्ताया भ्रुवोरन्तरनिस्सृता।
दाक्षायणी सती मेना तथा हैमवती ह्युमा ॥ ७७ ॥
कौशिक्याश्चैव जननी भद्रकाल्यास्तथैव च।
अपर्णायाश्व जननी पाटलायास्तथैव च ॥ ७८ ॥
शिवार्चनरता नित्यं रुद्राणी रुद्रवल्लभा।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां सा मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ७९ ॥
त्रैलोक्यवन्दिता, साक्षात् उल्का (लुकाठी) जैसी आकृतिवाली गणाम्बिका, जो जगत् की सृष्टि बढ़ाने के लिये ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर शिव के शरीर से पृथक हुई शिवा के दोनों भौंहों के बीच से निकली थीं, जो दाक्षायणी, सती, मेना तथा हिमवान् कुमारी उमा आदि के रूप में प्रसिद्ध हैं; कौशिकी, भद्रकाली, अपर्णा और पाटला की जननी हैं; नित्य शिवार्चन में तत्पर रहती हैं एवं रुद्रवल्लभा रुद्राणी कहलाती हैं, वे शिव और शिवा की आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मनोवांछित वस्तु दें ॥ ७६-७९ ॥
चण्डः सर्वगणेशानः शम्भोर्वदनसम्भवः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ८० ॥
समस्त शिवगणों के स्वामी चण्ड, जो भगवान् शंकर के मुख से प्रकट हुए हैं, शिवा और शिव की आज्ञा का आदर करके मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान करें ॥ ८० ॥
पिङ्गलो गणपः श्रीमाञ् शिवासक्तः शिवप्रियः।
आज्ञया शिवयोरेव स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ८१ ॥
भगवान् शिव में आसक्त और शिव के प्रिय गणपाल श्रीमान् पिंगल शिव और शिवा की आज्ञा से ही मेरी मनःकामना पूर्ण करें ॥ ८१ ॥
भृङ्गीशो नाम गणपः शिवाराधनतत्परः।
प्रयच्छतु स मे कामं पत्युराज्ञापुरस्सरम् ॥ ८२ ॥
शिव की आराधना में तत्पर रहनेवाले भृंगीश्वर नामक गणपाल अपने स्वामी की आज्ञा ले मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ ८२ ॥
वीरभद्रो महातेजा हिमकुन्देन्दुसंनिभः।
भद्रकालीप्रियो नित्यं मातृणां चाभिरक्षिता ॥ ८३ ॥
यज्ञस्य च शिरोहर्ता दक्षस्य च दुरात्मनः।
उपेन्द्रेन्द्रयमादीनां देवानामङ्गतक्षकः ॥ ८४ ॥
शिवस्यानुचरः श्रीमाञ् शिवशासनपालकः।
शिवयोः शासनादेव स मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ८५ ॥
हिम, कुन्द और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, भद्रकाली के प्रिय, सदा ही मातृगणों की रक्षा करनेवाले; दुरात्मा दक्ष और उसके यज्ञ का सिर काटनेवाले; उपेन्द्र, इन्द्र और यम आदि देवताओं के अंगों में घाव कर देने वाले, शिव के अनुचर तथा शिव की आज्ञा के पालक, महातेजस्वी श्रीमान् वीरभद्र शिव और शिवा के आदेश से ही मुझे मेरी मनचाही वस्तु दें ॥ ८३-८५ ॥
सरस्वती महेशस्य वाक्सरोजसमुद्भवा।
शिवयोः पूजने सक्ता सा मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ८६ ॥
महेश्वर के मुखकमल से प्रकट हुई तथा शिव-पार्वती के पूजन में आसक्त रहनेवाली वे सरस्वती देवी मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ ८६ ॥
विष्णोर्वक्षःस्थिता लक्ष्मीः शिवयोः पूजने रता।
शिवयोः शासनादेव सा मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ८७ ॥
भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में विराजमान लक्ष्मी देवी, जो सदा शिव और शिवा के पूजन में लगी रहती हैं, उन शिवदम्पती के आदेश से ही मेरी अभिलाषा पूर्ण करें ॥ ८७ ॥
महामोटी महादेव्याः पादपूजापरायणा।
तस्या एवं नियोगेन सा मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ८८ ॥
महादेवी पार्वती के पादपद्मों की पूजा में परायण महामोटी उन्हीं की आज्ञा से मेरी मनचाही वस्तु मुझे दें ॥ ८८ ॥
कौशिकी सिंहमारूढा पार्वत्याः परमा सुता।
विष्णोर्निद्रा महामाया महामहिषमर्दिनी ॥ ८९ ॥
निशुम्भशुम्भसंहर्त्री मधुमांसासवप्रिया।
सत्कृत्य शासनं मातुः सा मे दिशतु काङ्क्षितम् ॥ ९० ॥
पार्वती की सबसे श्रेष्ठ पुत्री सिंहवाहिनी कौशिकी, भगवान् विष्णु की योगनिद्रा महामाया, महामहिषमर्दिनी, महालक्ष्मी तथा मधु और फलों के गूदे तथा रस को प्रेमपूर्वक भोग लगानेवाली निशुम्भ-शुम्भ संहारिणी महासरस्वती माता पार्वती की आज्ञा से मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ ८९-९० ॥
रुद्रा रुद्रसमप्रख्याः प्रमथाः प्रथितौजसः।
भूताख्याश्च महावीर्या महादेवसमप्रभाः ॥ ९१ ॥
नित्यमुक्ता निरुपमा निर्द्वन्द्वा निरुपप्लवाः।
सशक्तयः सानुचराः सर्वलोकनमस्कृताः ॥ ९२ ॥
सर्वेषामेव लोकानां सृष्टिसंहरणक्षमाः।
परस्परानुरक्ताश्च परस्परमनुव्रताः ॥ ९३ ॥
परस्परमतिस्निग्धाः परस्परनमस्कृताः।
शिवप्रियतमा नित्यं शिवलक्षणलक्षिताः ॥ ९४ ॥
सौम्या घोरास्तथा मिश्राश्चान्तरालद्वयात्मिकाः।
विरूपाश्च सुरूपाश्च नानारूपधरास्तथा ॥ ९५ ॥
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं दिशन्तु वै।
रुद्रदेव के समान तेजस्वी रुद्रगण, प्रख्यात पराक्रमी प्रमथगण तथा महादेवजी के समान तेजस्वी महाबली भूतगण, जो नित्यमुक्त, उपमारहित, निर्द्वन्द्व, उपद्रवशून्य, शक्तियों और अनुचरों के साथ रहनेवाले, सर्वलोकवन्दित, समस्त लोकों की सृष्टि और संहार में समर्थ, परस्पर एक-दूसरे के अनुरक्त और भक्त, आपस में अत्यन्त स्नेह रखने वाले, एक-दूसरे को नमस्कार करनेवाले, शिव के नित्य प्रियतम, शिव के ही चिह्नों से लक्षित सौम्य, घोर, उभय भावयुक्त, दोनों के बीच में रहनेवाले द्विरूप, कुरूप, सुरूप और नानारूपधारी हैं, वे शिव और शिवा की आज्ञा का सत्कार करते हुए मेरा मनोरथ सिद्ध करें ॥ ९१-९५ १/२ ॥
देव्याः प्रियसखीवर्गो देवीलक्षणलक्षितः ॥ ९६ ॥
सहितो रुद्रकन्याभिः शक्तिभिश्चाप्यनेकशः।
तृतीयावरणे शम्भोर्भक्त्या नित्यं समर्चितः ॥ ९७॥
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मङ्गलम्।
देवी की प्रिय सखियों का समुदाय, जो देवी के ही लक्षणों से लक्षित है और भगवान् शिव के तीसरे आवरण में रुद्रकन्याओं तथा अनेक शक्तियों सहित नित्य भक्तिभाव से पूजित हुआ है, वह शिव-पार्वती की आज्ञा का सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करे ॥ ९६-९७ १/२ ॥
दिवाकरो महेशस्य मूर्तिर्दीप्तसुमण्डलः ॥ ९८ ॥
निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः।
अविकारात्मकश्चाद्य एकः सामान्यविक्रियः ॥ ९९ ॥
असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात्।
एवं त्रिधा चतुर्द्धा च विभक्तः पञ्चधा पुनः ॥ १०० ॥
चतुर्थावरणे शम्भोः पूजितश्चानुगैः सह।
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ १०१ ॥
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मङ्गलम्।
भगवान् सूर्य महेश्वर की मूर्ति हैं, उनका सुन्दर मण्डल दीप्तिमान् है, वे निर्गुण होते हुए भी कल्याणमय गुणों से युक्त हैं, केवल सद्गुणरूप हैं; निर्विकार, सबके आदि कारण और एकमात्र (अद्वितीय) हैं; यह सामान्य जगत् उन्हीं की सृष्टि है, सृष्टि, पालन और संहार के क्रम से उनके कर्म असाधारण हैं; इस तरह वे तीन, चार और पाँच रूपों में विभक्त हैं, भगवान् शिव के चौथे आवरण में अनुचरों सहित उनकी पूजा हुई है; वे शिव के प्रिय, शिव में ही आसक्त तथा शिव के चरणारविन्दों की अर्चना में तत्पर हैं; ऐसे सूर्यदेव शिवा और शिव की आज्ञा का सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें ॥ ९८-१०१ १/२ ॥
दिवाकरषडङ्गानि दीप्ताद्याश्चाष्टशक्तयः ॥ १०२ ॥
आदित्यो भास्करो भानू रविश्चेत्यनुपूर्वशः।
अर्को ब्रह्मा तथा रुद्रो विष्णुश्चादित्यमूर्तयः ॥ १०३ ॥
विस्तरा सुतरा बोधिन्याप्यायिन्यपराः पुनः।
उषा प्रभा तथा प्राज्ञा संध्या चेत्यपि शक्तयः ॥ १०४॥
सोमादिकेतुपर्यन्ता ग्रहाश्च शिवभाविताः।
शिवयोराज्ञया नुन्ना मङ्गलं प्रदिशन्तु मे ॥ १०५ ॥
अथ वा द्वादशादित्यास्तथा द्वादश शक्तयः।
ऋषयो देवगन्धर्वाः पन्नगाप्सरसां गणाः ॥ १०६ ॥
ग्रामण्यश्च तथा यक्षा राक्षसाश्च सुरास्तथा।
सप्त सप्तगणाश्चैते सप्तच्छन्दोमया हयाः ॥ १०७ ॥
वालखिल्यादयश्चैव सर्वे शिवपदार्चकाः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मङ्गलं प्रदिशन्तु मे ॥ १०८॥
सूर्यदेव से सम्बन्ध रखने वाले छहों अंग, उनकी दीप्ता आदि आठ शक्तियाँ; आदित्य, भास्कर, भानु, रवि, अर्क, ब्रह्मा, रुद्र तथा विष्णु – ये आठ आदित्यमूर्तियाँ और उनकी विस्तरा, सुतरा, बोधिनी, आप्यायिनी तथा उनके अतिरिक्त उषा, प्रभा, प्राज्ञा और संध्या – ये शक्तियाँ; चन्द्रमा से लेकर केतुपर्यन्त शिवभावित ग्रह, बारह आदित्य, उनकी बारह शक्तियाँ तथा ऋषि, देवता, गन्धर्व, नाग, अप्सराओं के समूह, ग्रामणी (अगुवा), यक्ष, राक्षस – ये सात-सात संख्यावाले गण, सात छन्दोमय अश्व, वालखिल्य आदि मुनि – ये सब-के-सब भगवान् शिव के चरणारविन्दों की अर्चना करनेवाले हैं। ये लोग शिव और पार्वती की आज्ञा का आदर करते हुए मुझे मंगल प्रदान करें ॥ १०२-१०८ ॥
ब्रह्माथ देवदेवस्य मूर्तिर्भूमण्डलाधिपः।
चतुःषष्टिगुणैश्वर्यो बुद्धितत्त्वे प्रतिष्ठितः ॥ १०९ ॥
निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः।
अविकारात्मको देवस्ततः साधारणः पुरः ॥ ११० ॥
असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात्।
एवं त्रिधा चतुर्द्धा च विभक्तः पञ्चधा पुनः ॥ १११ ॥
चतुर्थावरणे शम्भोः पूजितश्च सहानुगैः।
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ ११२॥
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मङ्गलम्।
ब्रह्माजी देवाधिदेव महादेवजी की मूर्ति हैं। भूमण्डल के अधिपति हैं। चौंसठ गुणों के ऐश्वर्य से युक्त हैं और बुद्धितत्त्व में प्रतिष्ठित हैं। वे निर्गुण होते हुए भी अनेक कल्याणमय गुणों से सम्पन्न हैं, सद्गुणसमूह रूप हैं, निर्विकार देवता हैं, उनके सामने दूसरे सब लोग साधारण हैं। सृष्टि, पालन और संहार के क्रम से उनके सब कर्म असाधारण हैं। इस तरह वे तीन, चार एवं पाँच आवरणों या स्वरूपों में विभक्त हैं। भगवान् शिव के चौथे आवरण में अनुचरों सहित उनकी पूजा हुई है; वे शिव के प्रिय, शिव में ही आसक्त तथा शिव के चरणारविन्दों की अर्चना में तत्पर हैं; ऐसे ब्रह्मदेव शिवा और शिव की आज्ञा का सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें ॥ १०९-११२ १/२ ॥
हिरण्यगर्भो लोकेशो विराट् कालश्च पूरुषः ॥ ११३ ॥
सनत्कुमारः सनकः सनन्दश्च सनातनः।
प्रजानां पतयश्चैव दक्षाद्या ब्रह्मसूनवः ॥ ११४ ॥
एकादश सपत्नीका धर्मः संकल्प एव च।
शिवार्चनरताश्चैते शिवभक्तिपरायणाः ॥ ११५ ॥
शिवाज्ञावशगाः सर्वे दिशन्तु मम मङ्गलम्।
हिरण्यगर्भ, लोकेश, विराट्, कालपुरुष, सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, दक्ष आदि ब्रह्म पुत्र, ग्यारह प्रजापति और उनकी पत्नियाँ, धर्म तथा संकल्प – ये सब-के-सब शिव की अर्चना में तत्पर रहनेवाले और शिवभक्ति परायण हैं, अतः शिव की आज्ञा के अधीन हो मुझे मंगल प्रदान करें ॥ ११३-११५ १/२ ॥
चत्वारश्च तथा वेदाः सेतिहासपुराणकाः ॥ ११६ ॥
धर्मशास्त्राणि विद्याभिर्वैदिकीभिः समन्विताः।
परस्पराविरुद्धार्थाः शिवप्रकृतिपादकाः ॥ ११७ ॥
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मङ्गलं प्रदिशन्तु मे।
चार वेद, इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र और वैदिक विद्याएँ – ये सब-के-सब एकमात्र शिव के स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाले हैं; अतः इनका तात्पर्य एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं है। ये सब शिव और शिवा की आज्ञा शिरोधार्य करके मेरा मंगल करें ॥ ११६-११७ १/२ ॥
अथ रुद्रो महादेवः शम्भोर्मूर्तिर्गरीयसी ॥ ११८ ॥
वाह्नेयमण्डलाधीशः पौरुषैश्वर्यवान् प्रभुः।
शिवाभिमानसम्पन्नो निर्गुणस्त्रिगुणात्मकः ॥ ११९ ॥
केवलं सास्विकश्चापि राजसश्चैव तामसः।
अविकाररतः पूर्वं ततस्तु समविक्रियः ॥ १२० ॥
असाधारणकर्मा च सृष्ट्यादिकरणात्पृथक्।
ब्रह्मणोऽपि शिरश्छेता जनकस्तस्य तत्सुतः ॥ १२१ ॥
जनकस्तनयश्चापि विष्णोरपि नियामकः।
बोधकश्च तयोर्नित्यमनुग्रहकरः प्रभुः ॥ १२२ ॥
अण्डस्यान्तर्बहिर्वर्ती रुद्रो लोकद्वयाधिपः।
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ १२३ ॥
शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य स मे दिशतु मङ्गलम्।
महादेव रुद्र शम्भु की सबसे गरिष्ठ मूर्ति हैं। ये अग्निमण्डल के अधीश्वर हैं। समस्त पुरुषार्थों और ऐश्वर्यों से सम्पन्न हैं, सर्वसमर्थ हैं। इनमें शिवत्व का अभिमान जाग्रत् है। ये निर्गुण होते हुए भी त्रिगुण रूप हैं। केवल सात्त्विक, राजस और तामस भी हैं। ये पहले से ही निर्विकार हैं। सब कुछ इन्हीं की सृष्टि है। सृष्टि, पालन और संहार करने के कारण इनका कर्म असाधारण माना जाता है। ये ब्रह्माजी के भी मस्तक का छेदन करनेवाले हैं। ब्रह्माजी के पिता और पुत्र भी हैं। इसी तरह विष्णु के भी जनक और पुत्र हैं तथा उन्हें नियन्त्रण में रखने वाले हैं। ये उन दोनों – ब्रह्मा और विष्णु को ज्ञान देने वाले तथा नित्य उन पर अनुग्रह रखने वाले हैं। ये प्रभु ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर भी व्याप्त हैं तथा इहलोक और परलोक – दोनों लोकों के अधिपति रुद्र हैं। ये शिव के प्रिय, शिव में ही आसक्त तथा शिव के ही चरणारविन्दों की अर्चना में तत्पर हैं, अतः शिव की आज्ञा को सामने रखते हुए मेरा मंगल करें ॥ ११८-१२३ १/२ ॥
तस्य ब्रह्म षडङ्गानि विद्येशानां तथाष्टकम् ॥ १२४ ॥
चत्वारो मूर्तिभेदाश्च शिवपूर्वाः शिवार्चकाः।
शिवो भवो हरश्चैव मृडश्चैव तथापरः।
शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य मङ्गलं प्रदिशन्तु मे ॥ १२५ ॥
भगवान् शंकर के स्वरूपभूत ईशानादि ब्रह्म, हृदयादि छः अंग, आठ विद्येश्वर, शिव आदि चार मूर्तिभेद – शिव, भव, हर और मृड – ये सब-के-सब शिव के पूजक हैं। ये लोग शिव की आज्ञा को शिरोधार्य करके मुझे मंगल प्रदान करें ॥ १२४-१२५ ॥
अथ विष्णुर्महेशस्य शिवस्यैव परा तनुः।
वारितत्त्वाधिपः साक्षादव्यक्तपदसंस्थितः ॥ १२६ ॥
निर्गुणः सत्वबहुलस्तथैव गुणकेवल।
अविकाराभिमानी च त्रिसाधारणविक्रियः ॥ १२७ ॥
असाधारणकर्मा च सृष्ट्यादिकरणात्पृथक्।
दक्षिणाङ्गभवेनापि स्पर्धमानः स्वयम्भुवा ॥ १२८ ॥
आद्येन ब्रह्मणा साक्षात्सृष्टः स्रष्टा च तस्य तु।
अण्डस्यान्तर्बहिर्वर्ती विष्णुर्लोकद्वयाधिपः ॥ १२९ ॥
असुरान्तकरश्चक्री शक्रस्यापि तथानुजः।
प्रादुर्भूतश्च दशधा भृगुशापच्छलादिह ॥ १३० ॥
भूभारनिग्रहार्थाय स्वेच्छ्यावातरत् क्षितौ।
अप्रमेयबलो मायी मायया मोहयञ्जगत् ॥ १३१ ॥
मूर्तिं कृत्वा महाविष्णुं सदाविष्णुमथापि वा।
वैष्णवैः पूजितो नित्यं मूर्तित्रयमयासने ॥ १३२ ॥
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः।
शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य स मे दिशतु मङ्गलम् ॥ १३३ ॥
भगवान् विष्णु महेश्वर शिव के ही उत्कृष्ट स्वरूप हैं। वे जलतत्त्व के अधिपति और साक्षात् अव्यक्त पद पर प्रतिष्ठित हैं। प्राकृत गुणों से रहित हैं। उनमें दिव्य सत्त्वगुण की प्रधानता है तथा वे विशुद्ध गुणस्वरूप हैं। उनमें निर्विकाररूपता का अभिमान है। साधारणतया तीनों लोक उनकी कृति हैं। सृष्टि, पालन आदि करने के कारण उनके कर्म असाधारण हैं। वे रुद्र के दक्षिणांग से प्रकट हुए स्वयम्भू के साथ एक समय स्पर्धा कर चुके हैं। साक्षात् आदिब्रह्मा द्वारा उत्पादित होकर भी वे उनके भी उत्पादक हैं। ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर व्याप्त हैं। इसलिये विष्णु कहलाते हैं। दोनों लोकों के अधिपति हैं। असुरों का अन्त करनेवाले, चक्रधारी तथा इन्द्र के भी छोटे भाई हैं। दस अवतारविग्रहों के रूप में यहाँ प्रकट हुए हैं। भृगु के शाप के बहाने पृथ्वी का भार उतारने के लिये उन्होंने स्वेच्छा से इस भूतल पर अवतार लिया है। उनका बल अप्रमेय है। वे मायावी हैं और अपनी माया द्वारा जगत् को मोहित करते हैं। उन्होंने महाविष्णु अथवा सदाविष्णु का रूप धारण करके त्रिमूर्तिमय आसन पर वैष्णवों द्वारा नित्य पूजा प्राप्त की है। वे शिव के प्रिय, शिव में ही आसक्त तथा शिव के चरणों की अर्चना में तत्पर हैं। वे शिव की आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मंगल प्रदान करें ॥ १२६-१३३ ॥
वासुदेवोऽनिरुद्धश्च प्रद्युम्नश्च ततः परः।
संकर्षणः समाख्याताश्चतस्त्रो मूर्तयो हरेः ॥ १३४ ॥
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः।
रामत्रयं तथा कृष्णो विष्णुस्तुरगवक्त्रकः ॥ १३५ ॥
चक्र नारायणस्यास्त्रं पाञ्चजन्यं च शार्ङ्गकम्।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मङ्गलं प्रदिशन्तु मे ॥ १३६ ॥
वासुदेव, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न तथा संकर्षण – ये श्रीहरि की चार विख्यात मूर्तियाँ (व्यूह) हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, श्रीकृष्ण, विष्णु, हयग्रीव, चक्र, नारायणास्त्र, पांचजन्य तथा शार्ङ्गधनुष – ये सब-के-सब शिव और शिवा की आज्ञा का सत्कार करते हुए मुझे मंगल प्रदान करें ॥ १३४-१३६ ॥
प्रभा सरस्वती गौरी लक्ष्मीश्च शिवभाविता।
शिवयोः शासनादेता मङ्गलं प्रदिशन्तु मे ॥ १३७ ॥
प्रभा, सरस्वती, गौरी तथा शिव के प्रति भक्तिभाव रखनेवाली लक्ष्मी – ये शिव और शिवा के आदेश से मेरा मंगल करें ॥ १३७ ॥
इन्द्रोऽग्निश्च यमश्चैव निर्ऋतिर्वरुणस्तथा।
वायुः सोमः कुबेरश्च तथेशानस्त्रिशूलधृक् ॥ १३८ ॥
सर्वे शिवार्चनरताः शिवसद्भावभाविताः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मङ्गलं प्रदिशन्तु मे ॥ १३९॥
इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, सोम, कुबेर तथा त्रिशूलधारी ईशान – ये सब-के-सब शिवसद्भाव से भावित होकर शिवार्चन में तत्पर रहते हैं। ये शिव और शिवा की आज्ञा का आदर मानकर मुझे मंगल प्रदान करें ॥ १३८-१३९ ॥
त्रिशूलमथ वज्रं च तथा परशुसायकौ।
खड्गपाशाङ्कुशाश्चैव पिनाकश्चायुधोत्तमः ॥ १४० ॥
दिव्यायुधानि देवस्य देव्याश्चैतानि नित्यशः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां रक्षां कुर्वन्तु मे सदा ॥ १४१ ॥
त्रिशूल, वज्र, परशु, बाण, खड़्ग, पाश, अंकुश और श्रेष्ठ आयुध पिनाक – ये महादेव तथा महादेवी के दिव्य आयुध शिव और शिवा की आज्ञा का नित्य सत्कार करते हुए सदा मेरी रक्षा करें ॥ १४०-१४१ ॥
वृषरूपधरो देवः सौरभेयो महाबलः।
वडवाख्यानलस्पर्द्धी पञ्चगोमातृभिर्वतः ॥ १४२ ॥
वाहनत्वमनुप्राप्तस्तपसा परमेशयोः।
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे कामं प्रयच्छतु ॥ १४३ ॥
वृषभरूपधारी देव, जो सुरभि के महाबली पुत्र हैं, वड़वानल से भी होड़ लगाते हैं, पाँच गोमाताओं से घिरे रहते हैं और अपनी तपस्या के प्रभाव से परमेश्वर शिव तथा परमेश्वरी शिवा के वाहन हुए हैं, उन दोनों की आज्ञा शिरोधार्य करके मेरी इच्छा पूर्ण करें ॥ १४२-१४३ ॥
नन्दा सुनन्दा सुरभिः सुशीला सुमनास्तथा।
पञ्च गोमातरस्त्वेताः शिवलोके व्यवस्थिताः ॥ १४४ ॥
शिवभक्तिपरा नित्यं शिवार्चनपरायणाः।
शिवयोः शासनादेव दिशन्तु मम वाज्छितम् ॥ १४५ ॥
नन्दा, सुनन्दा, सुरभि, सुशीला और सुमना – ये पाँच गोमाताएँ सदा शिवलोक में निवास करती हैं। ये सब-की-सब नित्य शिवार्चन में लगी रहती और शिवभक्तिपरायणा हैं, अतः शिव तथा शिवा के आदेश से ही मेरी इच्छा की पूर्ति करें ॥ १४४-१४५ ॥
क्षेत्रपालो महातेजा नीलजीमूतसंनिभः।
दंष्ट्रकरालवदनः स्फुरद्रक्ताधरोज्ज्वलः ॥ १४६ ॥
रक्तोर्ध्वमूर्द्धजः श्रीमान् भ्रुकुटीकुटिलेक्षणः।
रक्तवृत्तत्रिनयनः शशिपन्नगभूषणः ॥ १४७ ॥
नग्नस्त्रिशूलपाशासिकपालोद्यतपाणिकः।
भैरवो भैरवैः सिद्धै्र्योगिनीभिश्च संवृतः ॥ १४८ ॥
क्षेत्रे क्षेत्रसमासीनः स्थितो यो रक्षकः सताम्।
शिवप्रणामपरमः शिवसद्भावभावितः ॥ १४९ ॥
शिवाश्रितान् विशेषेण रक्षन् पुत्रानिवौरसान्।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मङ्गलम् ॥ १५० ॥
क्षेत्रपाल महान् तेजस्वी हैं, उनकी अंगकान्ति नील मेघ के समान है और मुख दाढ़ों के कारण विकराल जान पड़ता है। उनके लाल-लाल ओठ फड़कते रहते हैं, जिससे उनकी शोभा बढ़ जाती है, उनके सिर के बाल भी लाल और ऊपर को उठे हुए हैं। वे तेजस्वी हैं, उनकी भौंहें तथा आँखें भी टेढ़ी ही हैं। वे लाल और गोलाकार तीन नेत्र धारण करते हैं। चन्द्रमा और सर्प उनके आभूषण हैं। वे सदा नंगे ही रहते हैं तथा उनके हाथों में त्रिशूल, पाश, खड्ग और कपाल उठे रहते हैं। वे भैरव हैं और भैरवों, सिद्धों तथा योगिनियों से घिरे रहते हैं। प्रत्येक क्षेत्र में उनकी स्थिति है। वे वहाँ सत्पुरुषों के रक्षक होकर रहते हैं। उनका मस्तक सदा शिव के चरणों में झुका रहता है, वे सदा शिव के सद्भाव से भावित हैं तथा शिव के शरणागत भक्तों की औरस पुत्रों की भाँति विशेष रक्षा करते हैं। ऐसे प्रभावशाली क्षेत्रपाल शिव और शिवा की आज्ञा का सत्कार करते हुए मुझे मंगल प्रदान करें ॥ १४६-१५० ॥
तालजङ्घादयस्तस्य प्रथमावरणेऽर्चिताः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां चत्वारः समवन्तु माम् ॥ १५१ ॥
तालजंघ आदि शिव के प्रथम आवरण में पूजित हुए हैं, वे चारों देवता शिव की आज्ञा का आदर करके मेरी रक्षा करें ॥ १५१ ॥
भैरवाद्याश्च ये चान्ये समन्तात्तस्य वेष्टिताः।
तेऽपि मामनुगृह्णन्तु शिवशासनगौरवात् ॥ १५२ ॥
जो भैरव आदि तथा दूसरे लोग शिव को सब ओर से घेरकर स्थित हैं, वे भी शिव के आदेश का गौरव मानकर मुझ पर अनुग्रह करें ॥ १५२ ॥
नारदाद्याश्च मुनयो दिव्या देवैश्च पूजिताः।
साध्या नागाश्च ये देवा जनलोकनिवासिनः ॥ १५३ ॥
विनिर्वृत्ताधिकाराश्व महर्लोकनिवासिनः।
सप्तर्षयस्तथान्ये वै वैमानिकगणैः सह ॥ १५२ ॥
सर्वे शिवार्चनरताः शिवाज्ञावशवर्तिनः।
शिवयोराज्ञया मह्यं दिशन्तु समकाङ्क्षितम् ॥ १५५ ॥
नारद आदि देवपूजित दिव्य मुनि, साध्य, नाग, जनलोकनिवासी देवता, विशेषाधिकार से सम्पन्न महलोकनिवासी, सप्तर्षि तथा अन्य वैमानिकगण सदाशिव की अर्चना में तत्पर रहते हैं। ये सब शिव की आज्ञा के अधीन हैं, अतः शिवा और शिव की आज्ञा से मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें ॥ १५३-१५५ ॥
गन्धर्वाद्याः पिशाचान्ताश्चतस्नो देवयोनयः।
सिद्धा विद्याधराद्याश्व येऽपि चान्ये नभश्चराः ॥ १५६ ॥
असुरा राक्षसाश्चैव पातालतलवासिनः।
अनन्ताद्याश्च नागेन्द्रा वैनतेयादयो द्विजाः ॥ १५७ ॥
कृष्माण्डाः प्रेतवेताला ग्रहा भूतगणाः परे।
डाकिन्यश्चापि योगिन्यः शाकिन्यश्चापि तादृशाः ॥ १५८ ॥
क्षेत्रामगृहादीनि तीर्थान्यायवनानि च।
द्वीपाः समुद्रा नद्यश्च नदाश्चान्ये सरांसि च ॥ १५९ ॥
गिरयश्च सुमेर्वाद्याः काननानि समन्ततः।
पशवः पक्षिणो वृक्षाः कृमिकीटादयो मृगाः ॥ १६० ॥
भुवनान्यपि सर्वाणि भुवनानामधीश्वराः।
अण्डान्यावरणैः सार्धं मासाश्च दश दिग्गजाः ॥ १६१ ॥
वर्णाः पदानि मन्त्राश्च तत्त्वान्यपि सहाधिपैः।
ब्रह्माण्डधारका रुद्रा रुद्राश्चान्ये सशक्तिकाः ॥ १६२ ॥
यच्च किंचिज्जगत्यस्मिन्दृष्टं चानुमितं श्रुतम्।
सर्वे कामं प्रयच्छन्तु शिवयोरेव शासनात् ॥ १६३ ॥
गन्धर्वों से लेकर पिशाच पर्यन्त जो चार देवयोनियाँ हैं, जो सिद्ध, विद्याधर, अन्य आकाशचारी, असुर, राक्षस, पातालतलवासी अनन्त आदि नागराज, गरुड आदि दिव्य पक्षी, कुष्माण्ड, प्रेत, वेताल, ग्रह, भूतगण, डाकिनियाँ, योगिनियाँ, शाकिनियाँ तथा वैसी ही और स्त्रियाँ, क्षेत्र, आराम (बगीचे), गृह आदि तीर्थ, देवमन्दिर, द्वीप, समुद्र, नदियाँ, नद, सरोवर, सुमेरू आदि पर्वत, सब ओर फैले हुए वन, पशु, पक्षी, वृक्ष, कृमि, कीट आदि, मृग, समस्त भुवन, भुवनेश्वर, आवरणों सहित ब्रह्माण्ड, बारह मास, दस दिग्गज, वर्ण, पद, मन्त्र, तत्त्व, उनके अधिपति, ब्रह्माण्डधारक रुद्र, अन्य रुद्र और उनकी शक्तियाँ तथा इस जगत् में जो कुछ भी देखा, सुना और अनुमान किया हुआ है – ये सब-के-सब शिवा और शिव की आज्ञा से मेरा मनोरथ पूर्ण करें ॥ १५६-१६३ ॥
अथ विद्या परा शैवी पशुपाशविमोचिनी।
पञ्चार्थसंहिता दिव्या पशुविद्याबहिष्कृता ॥ १६४ ॥
शास्त्रं च शिवधर्माख्यं धर्माख्यं च तदुत्तरम्।
शैवाख्यं शिवधर्माख्यं पुराणं श्रुतिसम्मितम् ॥ १६५ ॥
शैवागमाश्च ये चान्ये कामिकाद्याश्चतुर्विधाः।
शिवाभ्यामविशेषेण उत्कृत्येह समर्चिताः ॥ १६६ ॥
ताभ्यामेव समाज्ञाता ममाभिप्रेतसिद्धये।
कर्मेदमनुमन्यन्तां सफलं साध्वनुष्ठितम् ॥ १६७॥
जो पंच-पुरुषार्थस्वरूपा होने से पंचार्था कही गयी है, जिसका स्वरूप दिव्य है तथा जो पशुविद्या की कोटि से बाहर है, वह पशुओं को पाश से मुक्त करने वाली शैवी परा विद्या, शिवधर्मशास्त्र, शैवधर्म, श्रुतिसम्मत शिवसंज्ञकपुराण, शैवागम तथा धर्मकामादि चतुर्विध पुरुषार्थ, जिन्हें शिव और शिवा के समान ही मानकर उन्हीं के समान पूजा दी गयी है, उन्हीं दोनों की आज्ञा लेकर मेरे अभीष्ट की सिद्धि के लिये इस कर्म का अनुमोदन करें, इसे सफल और सुसम्पन्न घोषित करें ॥ १६४-१६७ ॥
श्वेताद्या नकुलीशान्ताः सशिष्याश्चापि देशिकाः।
तत्संततीया गुरवो विशेषाद् गुरवो मम ॥ १६८॥
शैवा माहेश्वराश्चैव ज्ञानकर्मपरायणाः।
कर्मेदमनुमन्यन्तां सफलं साध्वनुष्ठितम् ॥ १६९ ॥
श्वेत से लेकर नकुलीशपर्यन्त, शिष्य सहित आचार्यगण, उनकी संतान-परम्परा में उत्पन्न गुरुजन, विशेषतः मेरे गुरु, शैव, माहेश्वर, जो ज्ञान और कर्म में तत्पर रहनेवाले हैं, मेरे इस कर्म को सफल और सुसम्पन्न मानें ॥ १६८-१६९ ॥
लौकिका ब्राह्मणाः सर्वे क्षत्रियाश्च विशःक्रमात्।
वेदवेदाङ्गतत्वज्ञाः सर्वशास्त्रविशारदाः ॥ १७० ॥
सांख्या वैशेषिकाश्चैव यौगा नैयायिका नराः।
सौरा ब्राह्मास्तथा रौद्रा वैष्णवाश्चापरे नराः ॥ १७१ ॥
शिष्टाः सर्वे विशिष्टाश्च शिवशासनयनत्रिताः।
कर्मेदमनुमन्यन्तां ममाभिप्रेतसाधकम् ॥ १७२ ॥
लौकिक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, वेदवेदांगों के तत्त्वज्ञ विद्वान्, सर्वशास्त्रकुशल, सांख्यवेत्ता, वैशेषिक, योगशास्त्र के आचार्य, नैयायिक, सूर्योपासक, ब्रह्मोपासक, शैव, वैष्णव तथा अन्य सब शिष्ट और विशिष्ट पुरुष शिव की आज्ञा के अधीन हो मेरे इस कर्म को अभीष्टसाधक मानें ॥ १७०-१७२ ॥
शैवाः सिद्धान्तमार्गस्थाः शैवाः पाशुपतास्तथा।
शैवा महाव्रतधराः शैवाः कापालिकाः परे ॥ १७३ ॥
शिवाज्ञापालकाः पूज्या ममापि शिवशासनात्।
सर्वे मामनुगृहणन्तु शंसन्तु सफलक्रियाम् ॥ १७४ ॥
सिद्धान्तमार्गी शैव, पाशुपत शैव, महाव्रतधारी शैव तथा अन्य कापालिक शैव – ये सब-के-सब शिव की आज्ञा के पालक तथा मेरे भी पूज्य हैं। अतः शिव की आज्ञा से इन सबका मुझ पर अनुग्रह हो और वे इस कार्य को सफल घोषित करें ॥ १७३-१७४ ॥
दक्षिणज्ञाननिष्ठाश्च दक्षिणोत्तरमार्गगाः।
अविरोधेन वर्तन्तां मन्त्रं श्रेयोऽर्थिनो मम ॥ १७५ ॥
जो दक्षिणाचार के ज्ञान में परिनिष्ठ तथा दक्षिणाचार के उत्कृष्ट मार्ग पर चलनेवाले हैं, वे परस्पर विरोध न रखते हुए मन्त्र का जप करें और मेरे कल्याणकामी हों ॥ १७५० ॥
नास्तिकाश्च शठाश्चैव कृतघ्नाश्चैव तामसाः।
पाषण्डाश्चातिपापाश्च वर्तन्तां दूरतो मम ॥ १७६॥
बहुभिः किं स्तुतैरत्र येऽपि केऽपि चिदास्तिकाः।
सर्वे मामनुगृह्णन्तु सन्तः शंसन्तु मङ्गलम् ॥ १७७ ॥
नास्तिक, शठ, कृतघ्न, तामस, पाखण्डी और अति पापी प्राणी मुझसे दूर ही रहें। यहाँ बहुतों की स्तुति से कया लाभ? जो कोई भी आस्तिक संत हैं, वे सब मुझ पर अनुग्रह करें और मेरे मंगल होने का आशीर्वाद दें ॥ १७६-१७७ ॥
नमः शिवाय साम्बाय ससुतायादिहेतवे।
पञ्चावरणरूपेण प्रपञ्चेनावृताय ते ॥ १७८ ॥
जो पंचावरण रूपी प्रपंच से घिरे हुए हैं और सबके आदि कारण हैं, उन आप पुत्र सहित साम्ब सदाशिव को मेरा नमस्कार है ॥ १७८ ॥
इत्युक्त्वा दण्डवद् भूमौ प्रणिपत्य शिवं शिवाम्।
जपेत्पञ्चाक्षरीं विद्यामष्टोत्तशतावराम् ॥ १७९ ॥
तथैव शक्तिविद्यां च जपित्वा तत्समर्पणम्।
कृत्वा तं क्षमयित्वेशं पूजाशेषं समापयेत् ॥ १८० ॥
ऐसा कहकर शिव और शिवा के उद्देश्य से भूमि पर दण्ड की भाँति गिरकर प्रणाम करे और कम-से-कम एक सौ आठ बार पंचाक्षरी विद्या का जप करे। इसी प्रकार शक्तिविद्या (ॐ नमः शिवाय) का जप करके उसका समर्पण करे और महादेवजी से क्षमा माँगकर शेष पूजा की समाप्ति करे ॥ १७९-१८० ॥
एतत्पुण्यतमं स्तोत्रं शिवयोर्हृदयंगमम्।
सर्वाभीष्टप्रदं साक्षाद्भक्तिमुक्त्येकसाधनम् ॥ १८१ ॥
यह परम पुण्यमय स्तोत्र शिव और शिवा के हृदय को अत्यन्त प्रिय है, सम्पूर्ण मनोरथों को देनेवाला है और भोग तथा मोक्ष का एकमात्र साक्षात् साधन है ॥ १८१ ॥
य इदं कीर्तयेन्नित्यं श्रृणुयाद्वा समाहितः।
स विधूयाशु पापानि शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ १८२ ॥
जो एकाग्रचित्त हो प्रतिदिन इसका कीर्तन अथवा श्रवण करता है, वह सारे पापों को शीघ्र ही धो-बहाकर भगवान् शिव का सायुज्य प्राप्त कर लेता है ॥ १८२ ॥
गोघ्नश्चैव कृतघ्नश्च वीरहा भ्रूणहापि वा।
शरणागतघाती च मित्रविश्रम्भधातकः ॥ १८३ ॥
दुष्टपापसमाचारो मातृहा पितृहापि वा।
स्तवेनानेन जप्तेन तत्तत्पापात् प्रमुच्यते ॥ १८४ ॥
जो गोहत्यारा, कृतघ्न, वीरघाती, गर्भस्थ शिशु की हत्या करनेवाला, शरणागत का वध करनेवाला और मित्र के प्रति विश्वासघाती है, दुराचार और पापाचार में ही लगा रहता है तथा माता और पिता का भी घातक है, वह भी इस स्तोत्र के जप से तत्काल पाप-मुक्त हो जाता है ॥ १८३-१८४ ॥
दुःस्वप्नादिमहानर्थसूचकेषु भयेषु च।
यदि संकीर्तयेदेतन्न ततोऽनर्थभाग्भवेत् ॥ १८५ ॥
दुःस्व्णन आदि महान् अनर्थसूचक भयों के उपस्थित होने पर यदि मनुष्य इस स्तोत्र का कीर्तन करे तो वह कदापि अनर्थ का भागी नहीं हो सकता ॥ १८५ ॥
आयुरारोग्यमैश्वर्यं यच्चान्यदपि वाञ्छितम्।
स्तोत्रस्यास्य जपे तिष्ठंस्तत्सर्वं लभते नरः ॥ १८६ ॥
आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य तथा और जो भी मनोवांछित वस्तु है, उन सबको इस स्तोत्र के जप में संलग्न रहनेवाला पुरुष प्राप्त कर लेता है ॥ १८६ ॥
असम्पूज्य शिवं स्तोत्रजपात्फलमुदाहृतम्।
सम्पूज्य च जपे तस्य फलं वक्तुं न शक्यते ॥ १८७ ॥
शिव की पूर्वोक्त पूजा न करके केवल स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है, उसको यहाँ बताया गया है; परंतु शिव की पूजा करके इस स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है, उसका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता ॥ १८७ ॥
आस्तामियं फलावाप्तिरस्मिन् संकीर्तिते सति।
सार्धमम्बिकया देवः श्रुत्वैव दिवि तिष्ठति ॥ १८८ ॥
तस्मान्नभसि सम्पूज्य देवदेवं सहोमया।
कृताञ्जलिपुटस्तिष्ठन् स्तोत्रमेतदुदीरयेत् ॥ १८९ ॥
यह फल की प्राप्ति अलग रहे, इस स्तोत्र का कीर्तन करने पर इसे सुनते ही माता पार्वती सहित महादेवजी आकाश् में आकर खड़े हो जाते हैं। अतः उस समय उमा सहित देवदेव महादेव की आकाश में पूजा करके दोनों हाथ जोड़ खड़ा हो जाय और इस स्तोत्र का पाठ करे ॥ १८८-१८९ ॥
(अध्याय ३१)