आवरणपूजा की विस्तृत विधि तथा उक्त विधि से पूजन की महिमा का वर्णन

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! पहले शिवा और शिव के दायें और बायें भाग में क्रमशः गणेश और कार्तिकेय का गन्ध आदि पाँच उपचारों द्वारा पूजन करे। फिर इन सबके चारों ओर ईशान से लेकर सद्योजात पर्यन्त पाँच ब्रह्ममूर्तियों का शक्ति सहित क्रमशः पूजन करे। यह प्रथम आवरण में किया जानेवाला पूजन है। उसी आवरण में हृदय आदि छः अंगों तथा शिव और शिवा का अग्नि कोण से लेकर पूर्वदिशा पर्यन्त आठ दिशाओं में क्रमशः पूजन करे। वहीं वामा आदि शक्तियों के साथ वाम आदि आठ रुद्रों की पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः पूजा करे। यह पूजन वैकल्पिक है। यदुनन्दन! यह मैंने तुमसे प्रथम आवरण का वर्णन किया है।

अब प्रेमपूर्वक दूसरे आवरण का वर्णन किया जाता है, श्रद्धापूर्वक सुनो। पूर्व दिशावाले दल में अनन्त का और उनके वामभाग में उनकी शक्ति का पूजन करे। दक्षिण दिशावाले दल में शक्ति सहित सूक्ष्मदेव की पूजा करे। पश्चिम दिशा के दल में शक्ति सहित शिवोत्तम का, उत्तर दिशावाले दल में शक्तियुक्त एकनेत्र का, ईशान कोणवाले दल में एकरुद्र और उनकी शक्ति का, अग्नि कोणवाले दल में त्रिमूर्ति और उनकी शक्ति का, नैर्ऋत्य कोण के दल में श्रीकण्ठ और उनकी शक्ति का तथा वायव्य कोणवाले दल में शक्ति सहित शिखण्डीश का पूजन करे। समस्त चक्रवर्तियों की भी द्वितीय आवरण में ही पूजा करनी चाहिये। तृतीय आवरण में शक्तियों सहित अष्टमूर्तियों का पूर्वादि आठों दिशाओं में क्रमशः पूजन करे। भव, शर्व, ईशान, रुद्र, पशुपति, उग्र, भीम और महादेव – ये क्रमशः आठ मूर्तियाँ हैं। इसके बाद उसी आवरण में शक्तियों सहित महादेव आदि ग्यारह मूर्तियों की पूजा करनी चाहिये। महादेव, शिव, रुद्र, शंकर, नीललोहित, ईशान, विजय, भीम, देवदेव, भवोद्भव तथा कपर्दीश (या कपालीश) – ये ग्यारह मूर्तियाँ हैं। इनमें से जो प्रथम आठ मूर्तियाँ हैं, उनका अग्नि कोणवाले दल से लेकर पूर्वदिशा पर्यन्त आठ दिशाओं में पूजन करना चाहिये। देवदेव को पूर्वदिशा के दल में स्थापित एवं पूजित करे और ईशान का पुनः अग्नि कोण में स्थापन-पूजन करे। फिर इन दोनों के बीच में भवोद्भव की पूजा करे और उन्हीं के बाद कपालीश या कपर्दीश का स्थापन-पूजन करना चाहिये। उस तृतीय आवरण में फिर वृषभराज का पूर्व में, नन्दी का दक्षिण में, महाकाल का उत्तर में, शास्ता का अग्नि कोण के दल में, मातृकाओं का दक्षिण दिशा के दल में, गणेशजी का नैर्ऋत्य कोण के दल में, कार्तिकेय का पश्चिम दल में, ज्येष्ठा का वायव्य कोण के दल में, गौरी का उत्तर दल में, चण्ड का ईशान कोण में तथा शास्ता एवं नन्दीश्वर के बीच में मुनीन्द्र वृषभ का यजन करे। महाकाल के उत्तर भाग में पिंगल का, शास्ता और मातृकाओं के बीच में भृंगीश्वर का, मातृकाओं तथा गणेशजी के बीच में वीरभद्र का, स्कन्द और गणेशजी के बीच में सरस्वती देवी का, ज्येष्ठा और कार्तिकेय के बीच में शिवचरणों की अर्चना करने वाली श्रीदेवी का, ज्येष्ठा और गणाम्बा (गौरी) के बीच में महामोटी की पूजा करे। गणाम्बा और चण्ड के बीच में दुर्गा देवी की पूजा करे। इसी आवरण में पुनः शिव के अनुचरवर्ग की पूजा करे। इस अनुचरवर्ग में रुद्रगण, प्रमथगण और भूतगण आते हैं। इन सबके विविध रूप हैं और ये सब-के-सब अपनी शक्तियों के साथ हैं। इनके बाद एकाग्रचित्त हो शिवा के सखीवर्ग का भी ध्यान एवं पूजन करना चाहिये।

इस प्रकार तृतीय आवरण के देवताओं का विस्तारपूर्वक पूजन हो जाने पर उसके बाह्य भाग में चतुर्थ आवरण का चिन्तन एवं पूजन करे। पूर्व दल में सूर्य का, दक्षिण दल में चतुर्मुख ब्रह्मा का, पश्चिम दल में रुद्र का और उत्तरदिशा के दल में भगवान् विष्णु का पूजन करे। इन चारों देवताओं के भी पृथक्-पृथक आवरण हैं। इनके प्रथम आवरण में छहों अंगों तथा दीप्ता आदि शक्तियों की पूजा करनी चाहिये। दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा और विद्युता – इनकी क्रमशः पूर्व आदि आठ दिशाओं में स्थिति है। द्वितीय आवरण में पूर्व से लेकर उत्तर तक क्रमशः चार मूर्तियों की और उनके बाद उनकी शक्तियों की पूजा करे। आदित्य, भास्कर, भानु और रवि – ये चार मूर्तियाँ क्रमशः पूर्वादि चारों दिशाओं में पूजनीय हैं। तत्पश्चात् अर्क, ब्रह्मा, रुद्र तथा विष्णु – ये चार मूर्तियाँ भी पूर्वादि दिशाओं में पूजनीय हैं। पूर्व दिशा में विस्तरा, दक्षिण दिशा में सुतरा, पश्चिम दिशा में बोधिनी और उत्तर दिशा में आप्यायिनी की पूजा करें। ईशान कोण में उषा की, अग्नि कोण में प्रभा की, नैर्ऋत्य कोण में प्राज्ञा की और वायव्य कोण में संध्या की पूजा करे। इस तरह द्वितीय आवरण में इन सबकी स्थापना करके विधिवत् पूजा करनी चाहिये।

तृतीय आवरण में सोम, मंगल, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ बुध, विशालबुद्धि बृहस्पति, तेजोनिधि शुक्र, शनैश्चर तथा धूम्रवर्णवाले भयंकर राहु-केतु का पूर्वादि दिशाओं में पूजन करे अथवा द्वितीय आवरण में, द्वादश आदित्यों की पूजा करनी चाहिये और तृतीय आवरण में द्वादश राशियों की। उसके बाह्य भाग में सात-सात गणों की सब ओर पूजा करनी चाहिये। ऋषियों, देवताओं, गन्धर्वों, नागों, अप्सराओं, ग्रामणियों, यक्षों, यातुधानों, सात छन्दोमय अश्वों तथा वालखिल्यों का पूजन करे। इस तरह तृतीय आवरण में सूर्यदेव का पूजन करने के पश्चात् तीन आवरणों सहित ब्रह्माजी का पूजन करे।

पूर्वदिशा में हिरण्यगर्भ का, दक्षिण में विराद का, पश्चिम दिशा में काल का और उत्तर दिशा में पुरुष का पूजन करे। हिरण्यगर्भ नामक जो पहले ब्रह्मा हैं, उनकी अंगकान्ति कमल के समान है। काल जन्म से ही अंजन के समान काले हैं और पुरुष स्फटिकमणि के समान निर्मल हैं। त्रिगुण, राजस, तामस तथा सात्त्विक – ये चारों भी पूर्वादि दिशा के क्रम से प्रथम आवरण में ही स्थित हैं।

द्वितीय आवरण में पूर्वांदि दिशाओं के दलों में क्रमशः सनत्कुमार, सनक, सनन्दन और सनातन का पूजन करना चाहिये। तत्पश्चात् तीसरे आवरण में ग्यारह प्रजापतियों की पूजा करे। उनमें से प्रथम आठ का तो पूर्व आदि आठ दिशाओं में पूजन करे, फिर शेष तीन का पूर्व आदि के क्रम से अर्थात् पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम में स्थापन-पूजन करे। दक्ष, रुचि, भृगु, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, कश्यप और वसिष्ठ – ये ग्यारह विख्यात प्रजापति हैं। इनके साथ इनकी पत्नियों का भी क्रमशः पूजन करना चाहिये। प्रसूति, आकूति, ख्याति, सम्भूति, धृति, स्मृति, क्षमा, संनति, अनसूया, देवमाता अदिति तथा अरून्धती – ये सभी ऋषिपत्नियाँ पतिव्रता, सदा शिव-पूजन परायणा, कान्तिमती और प्रियदर्शना (परम सुन्दरी) हैं। अथवा प्रथम आवरण में चारों वेदों का पूजन करे, फिर द्वितीय आवरण में इतिहास पुराणों की अर्चना करे तथा तृतीय आवरण में धर्मशास्त्र सहित सम्पूर्ण वैदिक विद्याओं का सब ओर पूजन करना चाहिये। चार वेदों को पूर्वादि चार दिशाओं में पूजना चाहिये, अन्य ग्रन्थों को अपनी रुचि के अनुसार आठ या चार भागों में बाँटकर सब ओर उनकी पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार दक्षिण में तीन आवरणों से युक्त ब्रह्माजी की पूजा करके पश्चिम में आवरण सहित रुद्र का पूजन करे।

ईशान आदि पाँच ब्रह्म और हृदय आदि छः अंगों को रुद्र देव का प्रथम आवरण कहा गया है। द्वितीय आवरण विद्येश्वरमय (१) है। तृतीय आवरण में भेद है। अतः उसका वर्णन किया जाता है। उस आवरण में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से त्रिगुणादि चार मूर्तियों की पूजा करनी चाहिये। पूर्व दिशा में पूर्ण रूप शिव नामक महादेव पूजित होते हैं, इनकी 'त्रिगुण' संज्ञा है (क्योंकि ये त्रिगुणात्मक जगत् के आश्रय हैं)। दक्षिण दिशा में 'राजस' पुरुष के नाम से प्रसिद्ध सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का पूजन किया जाता है, ये 'भव' कहलाते हैं। पश्चिम दिशा में 'तामस' पुरुष अग्नि की पूजा की जाती है, इन्हीं को संहारकारी हर कहा गया है। उत्तर दिशा में 'सात्त्विक' पुरुष सुखदायक विष्णु का पूजन किया जाता है। ये ही विश्वपालक 'मृड' हैं। इस प्रकार पश्चिम भाग में शम्भु के शिव रूप का, जो पच्चीस तत्त्वों का साक्षी छब्बीसवाँ (२) तत्त्व रूप है, पूजन करके उत्तर दिशा में भगवान् विष्णु का पूजन करना चाहिये।

[१-पाशुपत-दर्शन में विद्येश्वरों की संख्या आठ बतायी गयी है। उनके नाम इस प्रकार हैं – अनन्त, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकनेत्र, एकरुद्र, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ और शिखण्डी। इन को क्रमशः पूर्व आदि दिशाओं में स्थापित करके इनकी पूजा करे। द्वितीय आवरण में इन्हीं की पूजा बतायी गयी है।

२-सांख्योक्त २४ प्राकृत तत्त्वों के साक्षी जीव को पचीसवाँ तत्त्व कहा गया है; जो इससे भी परे हैं, वे सर्वसाक्षी परमात्मा शिव छब्बीसवें तत्त्वरूप हैं।]

इनके प्रथम आवरण में वासुदेव को पूर्व में, अनिरुद्ध को दक्षिण में, प्रद्युम्न को पश्चिम में और संकर्षण को उत्तर में स्थापित करके इनकी पूजा करनी चाहिये। यह प्रथम आवरण बताया गया। अब द्वितीय शुभ आवरण बताया जाता है। मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, तीनों में से एक राम, आप श्रीकृष्ण और हयग्रीव – ये द्वितीय आवरण में पूजित होते हैं। तृतीय आवरण में पूर्व भाग में चक्र की पूजा करे, दक्षिण भाग में कहीं भी प्रतिहत न होनेवाले नारायणास्त्र का यजन करे, पश्चिम में पांचजन्य का और उत्तर में शार्ङ्गधनुष की पूजा करे। इस प्रकार तीन आवरणों से युक्त साक्षात् विश्व नामक परम हरि महाविष्णु की, जो सदा सर्वत्र व्यापक हैं, मूर्ति में भावना करके पूजा करे। इस तरह विष्णु के चतुर्व्यूह क्रम से चार मूर्तियों का पूजन करके क्रमशः उनकी चार शक्तियों का पूजन करे। प्रभा का अग्नि कोण में, सरस्वती का नैर्ऋत्य कोण में, गणाम्बि का वायव्य कोण में तथा लक्ष्मी का ईशान कोण में पूजन करे। इसी प्रकार भानु आदि मूर्तियों और उनकी शक्तियों का पूजन करके उसी आवरण में लोकेश्वरों की पूजा करे। उनके नाम इस प्रकार हैं - इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति,वरुण, वायु, सोम, कुबेर तथा ईशान। इस प्रकार चौथे आवरण की विधिपूर्वक पूजा सम्पन्न करके बाह्य भाग में महेश्वर के आयुधों की अर्चना करे। ईशान कोण में तेजस्वी त्रिशुल की, पूर्वदिशा में वज्र की, अग्नि कोण में परशु की, दक्षिण में बाण की, नैर्ऋत्य कोण में खड़्ग की, पश्चिम में पाश की, वायव्य कोण में अंकुश की और उत्तर दिशा में पिनाक की पूजा करे। तत्पश्चात् पश्चिमाभिमुख रौद्ररूपधारी क्षेत्रपाल का अर्चन करे।

इस तरह पंचम आवरण की पूजा का सम्पादन करके समस्त आवरण देवताओं के बाह्य भाग में अथवा पाँचवें आवरण में ही मातृकाओं सहित महावृषभ नन्दिकेश्वर का पूर्व दिशा में पूजन करे। तदनन्तर समस्त देवयोनियों की चारों ओर अर्चना करे। इसके सिवा जो आकाश में विचरनेवाले ऋषि, सिद्ध, दैत्य, यक्ष, राक्षस, अनन्त आदि नागराज, उन-उन नागेश्वरों के कुल में उत्पन्न हुए अन्य नाग, डाकिनी, भूत, वेताल, प्रेत और भैरवों के नायक, नाना योनियों में उत्पन्न हुए अन्य पातालवासी जीव, नदी, समुद्र, पर्वत, वन, सरोवर, पशु, पक्षी, वृक्ष, कीट आदि क्षुद्र योनि के जीव, मनुष्य, नाना प्रकार के आकारवाले मृग, क्षुद्र जन्तु, ब्रह्माण्ड के भीतर के लोक, कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड, ब्रह्माण्ड के बाहर के असंख्य भुवन और उनके अधीश्वर तथा दसों दिशाओं में स्थित ब्रह्माण्ड के आधारभूत रुद्र हैं और गुणजनित, मायाजनित, शक्तिजनित तथा उससे भी परे जो कुछ भी शब्दवाच्य जड-चेतनात्मक प्रपंच है, उन सबको शिवा और शिव के पार्श्व भाग में स्थित जानकर उनका सामान्य रूप से यजन करे। वे सब लोग हाथ जोड़कर मन्द मुसकान युक्त मुख से सुशोभित होते हुए प्रेमपूर्वक महादेव और महादेवी का दर्शन कर रहे हैं, ऐसा चिन्तन करना चाहिये। इस तरह आवरण-पूजा सम्पन्न करके विक्षेप की शान्ति के लिये पुनः देवेश्वर शिव की अर्चना करने के पश्चात् पंचाक्षर-मन्त्र का जप करे। तदनन्तर शिव और पार्वती के सम्मुख उत्तम व्यंजनों से युक्त तथा अमृत के समान मधुर, शुद्ध एवं मनोहर महाचरु का नैवेद्य निवेदन करे। यह महाचरु बत्तीस आढक (लगभग तीन मन आठ सेर) का हो तो उत्तम है और कम-से-कम एक आढक (चार सेर) का हो तो निम्न श्रेणी का माना गया है। अपने वैभव के अनुसार जितना हो सके, महाचरु तैयार करके उसे श्रद्धापूर्वक निवेदित करे। तदनन्तर जल और ताम्बूल-इलायची आदि निवेदन करके आरती उतारकर शेष पूजा समाप्त करे। याग के उपयोग में आनेवाले द्रव्य, भोजन, वस्त्र आदि को उत्तम श्रेणी का ही तैयार कराकर दे। भक्तिमान् पुरुष वैभव होते हुए धनव्यय करने में कंजूसी न करे। जो शठ या कंजूस है और पूजा के प्रति उपेक्षा की भावना रखता है, वह यदि कृपणतावश कर्म को किसी अंग से हीन कर दे तो उसके वे काम्य कर्म सफल नहीं होते, ऐसा सत्पुरुषों का कथन है।

इसलिये मनुष्य यदि फलसिद्धि का इच्छुक हो तो उपेक्षा भाव को त्यागकर सम्पूर्ण अंगों के योग से काम्य कर्मों का सम्पादन करे। इस तरह पूजा समाप्त करके महादेव और महादेवी को प्रणाम करे। फिर भक्तिभाव से मन को एकाग्र करके स्तुतिपाठ करे। स्तुति के पश्चात् साधक उत्सुकतापूर्वक कम-से-कम एक सौ आठ बार और सम्भव हो तो एक हजार से अधिक बार पंचाक्षरी विद्या का जप करे। तत्पश्चात् क्रमशः विद्या और गुरु की पूजा करके अपने अभ्युदय और श्रद्धा के अनुसार यज्ञमण्डप के सदस्यों का भी पूजन करे। फिर आवरणों सहित देवेश्वर शिव का विसर्जन करके यज्ञ के उपकरणों सहित वह सारा मण्डल गुरु को अथवा शिवचरणाश्रित भक्तों को दे दे। अथवा उसे शिव के ही उद्देश्य से शिव के क्षेत्र में समर्पित कर दे। अथवा समस्त आवरण-देवताओं का यथोचित रीति से पूजन करके सात प्रकार के होमद्रव्यों द्वारा शिवाग्नि में इष्ट देवता का यजन करे।

यह तीनों लोकों में विख्यात योगेश्वर नामक योग है। इससे बढ़कर कोई योग त्रिभुवन में कहीं नहीं है। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो इससे साध्य न हो। इस लोक में मिलनेवाला कोई फल हो या परलोक में, इसके द्वारा सब सुलभ हैं। यह इसका फल नहीं है, ऐसा कोई नियन्त्रण नहीं किया जा सकता; क्योंकि सम्पूर्ण श्रेयोरूप साध्य का यह श्रेष्ठ साधन है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पुरुष जो कुछ फल चाहता है, वह सब चिन्तामणि के समान इससे प्राप्त हो सकता है। तथापि किसी क्षुद्र फल के उद्देश्य से इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि किसी महान् से लघु फल की इच्छा रखनेवाला पुरुष स्वयं लघुतर हो जाता है। महादेवजी के उद्देश्य से महान् या अल्प जो भी कर्म किया जाय, वह सब सिद्ध होता है। अतः उन्हीं के उद्देश्य से कर्म का प्रयोग करना चाहिये। शत्रु तथा मृत्यु पर विजय पाना आदि जो फल दूसरों से सिद्ध होनेवाले नहीं हैं, उन्हीं लौकिक या पारलौकिक फलों के लिये विद्वान् पुरुष इसका प्रयोग करे। महापातकों में, महान् रोग से भय आदि में तथा दुर्भिक्ष आदि में यदि शान्ति करने की आवश्यकता हो तो इसी से शान्ति करे। अधिक बढ़-बढ़कर बातें बनाने से कया लाभ? इस योग को महेश्वर शिव ने शैवों के लिये बड़ी भारी आपत्ति का निवारण करनेवाला अपना निजी अस्त्र बताया है। अतः इससे बढ़कर यहाँ अपना कोई रक्षक नहीं है, ऐसा समझकर इस कर्म का प्रयोग करनेवाला पुरुष शुभ फल का भागी होता है। जो प्रतिदिन पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर स्तोत्र मात्र का पाठ करता है, वह भी अभीष्ट प्रयोजन का अष्टमांश फल पा लेता है। जो अर्थ का अनुसंधान करते हुए पूर्णिमा, अष्टमी अथवा चतुर्दशी को उपवासपूर्वक स्तोत्र का पाठ करता है, उसे आधा अभीष्ट फल प्राप्त हो जाता है। जो अर्थ का अनुसंधान करते हुए लगातार एक मास तक स्तोत्र का पाठ करता है और पूर्णिमा, अष्टमी एवं चतुर्दशी को व्रत रखता है, वह सम्पूर्ण अभीष्ट फल का भागी होता है।

(अध्याय ३०)