काम्य कर्म के प्रसंग में शक्ति सहित पंचमुख महादेव की पूजा के विधान का वर्णन
तदनन्तर शिवाश्रमसेवियों के लिये नैमित्तिक कर्म की विधि बताकर उपमन्युजी ने कहा – यदुनन्दन! अब मैं काम्य कर्म का वर्णन करूँगा, जो इहलोक और परलोक में भी फल देनेवाला है। शैवों तथा माहेश्वरों को क्रमशः भीतर और बाहर इसे करना चाहिये। जैसे शिव और महेश्वर में यहाँ अत्यन्त भेद नहीं है, उसी प्रकार शैवों और माहेश्वरों में भी अधिक भेद नहीं है। जो मनुष्य शिव के आश्रित रहकर ज्ञानयज्ञ में तत्पर होते हैं, वे शैव कहलाते हैं और जो शिवाश्रित भक्त भूतल पर कर्मयज्ञ में संलग्न रहते हैं, वे महान् ईश्वर का यजन करने के कारण माहेश्वर कहे गये हैं। इसलिये ज्ञानयोगी शैवों को अपने भीतर भगवान् द्वारा कर्म का अनुष्ठान करना चाहिये और कर्म परायण माहेश्वरों को बाहर विहित द्रव्यों तथा उपकरणों द्वारा उसका सम्पादन करना चाहिये। आगे बताये जानेवाले कर्म के प्रयोग में उनके लिये कोई भेद नहीं है।
गन्ध, वर्ण और रस आदि के द्वारा विधिपूर्वक भूमि की परीक्षा करके मनोऽभिलषित स्थान पर आकाश में चँदोवा तान दे और उस स्थान को भलीभाँति लीप-पोतकर दर्पण के समान स्वच्छ बना दे। तत्यश्चात् शास्त्रोक्त मार्ग से वहाँ पहले पूर्व दिशा की कल्पना करे। उस दिशा में एक या दो हाथ का मण्डल बनाये। उस मण्डल में सुन्दर अष्टदल कमल अंकित करे। कमल में कर्णिका भी होनी चाहिये। यथासम्भव संचित रत्न और सुवर्ण आदि के चूर्ण से उसका निर्माण करे। वह अत्यन्त शोभायमान और पाँच आवरणों से युक्त हो! कमल के आठ दलों में पूर्वादि क्रम से अणिमा आदि आठ सिद्धियों की कल्पना करे तथा उनके केसरों में शक्ति सहित वामदेव आदि आठ रुद्रों को पूर्वादि दल के क्रम से स्थापित करे। कमल की कर्णिका में वैराग्य को स्थान दे और बीजों में नवशक्तियों की स्थापना करे। कमल के कन्द में शिव सम्बन्धी धर्म और नाल में शिव सम्बन्धी ज्ञान की भावना करे। कर्णिका के ऊपर अग्निमण्डल, सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डल की भावना करे। इन मण्डलों के ऊपर शिवतत्त्व, विद्यातत्व और आत्मतत्व का चिन्तन करे। सम्पूर्ण कमलासन के ऊपर सुखपूर्वक विराजमान और नाना प्रकार के विचित्र पुष्पों से अलंकृत, पाँच आवरणों सहित भगवान् शिव का माता पार्वती के साथ पूजन करे। उनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकमणि के समान उज्ज्वल है। वे सतत प्रसन्न रहते हैं। उनकी प्रभा शीतल है। मस्तक पर विद्युन्मण्डल के समान चमकीली जटारूप मुकुट उनकी शोभा बढ़ाता है। वे व्याघ्रचर्म धारण किये हुए हैं। उनके मुखारविन्द पर कुछ-कुछ मन्द मुसकान की छटा छा रही है। उनके हाथ की हथेलियाँ और पैरों के तलवे लाल कमल के समान अरुण प्रभा से उद्भासित हैं। वे भगवान् शिव समस्त शुभलक्षणों से सम्पन्न और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं। उनके हाथों में उत्तमोत्तम दिव्य आयुध शोभा पा रहे हैं और अंगों में दिव्य चन्दन का लेप लगा हुआ है। उनके पाँच मुख और दस भुजाएँ हैं। अर्धचन्द्र उनकी शिखा के मणि हैं। उनका पूर्ववर्ती मुख प्रातःकाल के सूर्य की भाँति अरुण प्रभा से उद्भासित एवं सौम्य है। उसमें तीन नेत्र रूपी कमल खिले हुए हैं तथा सिर पर बालचन्द्रमा का मुकुट शोभा पाता है। दक्षिणमुख नील जलधर के समान श्याम प्रभा से भासित होता है। उसकी भौंहें टेढ़ी हैं। वह देखने में भयानक है। उसमें गोलाकार लाल-लाल आँखें दृष्टिगोचर होती हैं। दाढ़ों के कारण वह मुख विकराल जान पड़ता है। उसका पराभव करना किसी के लिये भी कठिन है। उसके अधरपल्लव फड़कते रहते हैं। उत्तरवर्ती मुख मूँगे की भाँति लाल है। काले-काले केशपाश उसकी शोभा बढ़ाते हैं। उसमें विभ्रमविलास से युक्त तीन नेत्र हैं और उसका मस्तक अर्द्धचन्द्रमय मुकुट से विभूषित है। भगवान् शिव का पश्चिम मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल तथा तीन नेत्रों से प्रकाशमान है। उसका मस्तक चन्द्रलेखा की शोभा धारण करता है। वह मुख देखने में सौम्य है और मन्द मुसकान की शोभा से उपासकों के मन को मोहे लेता है। उनका पाँचवाँ मुख स्फटिकमणि के समान निर्मल, चन्द्रलेखा से समुज्ज्वल, अत्यन्त सौम्य तथा तीन प्रफुल्ल नेत्रकमलों से प्रकाशमान है।
भगवान् शिव अपने दाहिने हाथों में शूल, परशु, वज्र, खड्ग और अग्नि धारण करके उन सबकी प्रभा से प्रकाशित होते हैं तथा बायें हाथों में नाग, बाण, घण्टा, पाश तथा अंकुश उनकी शोभा बढ़ाते हैं। पैरों से लेकर घुटनों तक का भाग निवृत्तिकला से सम्बद्ध है। उससे ऊपर नाभि तक का भाग प्रतिष्ठाकला से, कण्ठ तक का भाग विद्याकला से, ललाट तक का भाग शान्तिकला से और उसके ऊपर का भाग शान्त्यतीताकला से संयुक्त है। इस प्रकार वे पंचाध्वव्यापी तथा साक्षात् पंचकलामय शरीरधारी हैं। ईशान मन्त्र उनका मुकुट है। तत्पुरुष मन्त्र उन पुरातन देव का मुख है। अघोर मन्त्र हृदय है। वामदेव मन्त्र उन महेश्वर का गुह्य भाग है और सद्योजात मन्त्र उनका युगल चरण है। उनकी मूर्ति अड़तीस कलामयी * है। परमेश्वर शिव का विग्रह मातृका- (वर्णमाला) मय, पंचब्रह्म ('ईशानः सर्वविद्यानाम्' इत्यादि पाँच मन्त्र) मय, प्रणवमय तथा हंसशक्ति से सम्पन्न है। इच्छाशक्ति उनके अंक में आरूढ़ है, ज्ञानशक्ति दक्षिण भाग में है तथा क्रियाशक्ति वाम भाग में विराजमान है। वे त्रितत्त्वमय हैं। अर्थात् आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व उनके स्वरूप हैं। वे सदाशिव साक्षात् विद्यामूर्ति हैं। इस प्रकार उनका ध्यान करना चाहिये।
[ * कला, काल, नियति, विद्या, राग, प्रकृति और गुण – ये सात तत्त्व, पंचभूत, पंचतन्मात्रा, दस इन्द्रियाँ, चार अन्तःकरण और पाँच शब्द आदि विषय – ये छत्तीस तत्त्व हैं। ये सब तत्त्व जीव के शरीर में होते हैं। परमेश्वर के शरीर को शाक्त (शक्तिस्वरूप एवं चिन्मय) तथा मन्त्रमय बताया गया है। इन दो तत्त्वों को जोड़ लेने से अड़तीस कलाएँ होती हैं। समस्त जड-चेतन परमेश्वर का स्वरूप होने से उनकी मूर्ति को अड़तीस कलामयी बताया गया है। अथवा पाँच स्वर और तैंतीस व्यंजन रूप होने से उनके शरीर को अड़तीस कलामय कहा गया है।]
मूलमन्त्र से मूर्ति की कल्पना और सकलीकरण की क्रिया करके मूलमन्त्र से ही यथोचित रीति से क्रमशः पाद्य आदि विशेषार्घ्य पर्यन्त पूजन करे। फिर पराशक्ति के साथ साक्षात् मूर्तिमान् शिव का पूर्वोक्त मूर्ति में आवाहन करके सदसद्व्यक्तिरहित परमेश्वर महादेव का गन्धादि पंचोपचारों से पूजन करे। पाँच ब्रह्म मन्त्रों से, छः अंग मन्त्रों से, मातृका मन्त्र से, प्रणव से, शक्तियुक्त शिवमन्त्र से, शान्त तथा अन्य वेदमन्त्रों से अथवा केवल शिवमन्त्र से उन परम देव का पूजन करे। पाद्य से लेकर मुखशुद्धि पर्यन्त पूजन सम्पन्न करके दृष्टदेव का विसर्जन किये बिना ही क्रमशः पाँच आवरणों की पूजा आरम्भ करे।
(अध्याय २८ - २९)