पंचाक्षर-मन्त्र के जप तथा भगवान् शिव के भजन-पूजन की महिमा, अग्निकार्य के लिये कुण्ड और वेदी आदि के संस्कार, शिवाग्नि की स्थापना और उसके संस्कार, होम, पूर्णाहुति, भस्म के संग्रह एवं रक्षण की विधि तथा हवनान्त में किये जानेवाले कृत्य का वर्णन
उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! कोई बड़ा भारी पाप करके भी भक्तिभाव से पंचाक्षर-मन्त्र द्वारा यदि देवेश्वर शिव का पूजन करे तो वह उस पाप से मुक्त हो जाता है। जो भक्तिभाव से पंचाक्षर-मन्त्र द्वारा एक ही बार शिव का पूजन कर लेता है, वह भी शिवमन्त्र के गौरववश शिवधाम को चला जाता है। जो मूढ़ दुर्लभ मानव-जन्म पाकर भगवान् शिव की अर्चना नहीं करता, उसका वह जन्म निष्फल है; क्योंकि वह मोक्ष का साधक नहीं होता। जो दुर्लभ मानव-जन्म पाकर पिनाकपाणि महादेवजी की आराधना करते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है और वे ही कृतार्थ एवं श्रेष्ठ मनुष्य हैं। जो भगवान् शिव की भक्ति में तत्पर रहते हैं, जिनका चित्त भगवान् शिव के सामने प्रणत होता है तथा जो सदा ही भगवान् शिव के चिन्तन में लगे रहते हैं, वे कभी दुःख के भागी नहीं होते। मनोहर भवन, हाव, भाव, विलास से विभूषित तरुणी स्त्रियाँ और जिससे पूर्ण तृप्ति हो जाय, इतना धन – ये सब भगवान् शिव की आराधना के फल हैं। जो देवलोक में महान् भोग और राज्य चाहते हैं, वे सदा भगवान् शिव के चरणारविन्दों का चिन्तन करते हैं। सौभाग्य, कान्तिमान् रूप, बल, त्याग, दयाभाव, शूरता और विश्व में विख्याति – ये सब बातें भगवान् शिव की पूजा करनेवाले लोगों को ही सुलभ होती हैं। इसलिये जो अपना कल्याण चाहता हो, उसे सब कुछ छोड़कर केवल भगवान् शिव में मन लगा उनकी आराधना करनी चाहिये। जीवन बड़ी तेजी से जा रहा है, जवानी शीघ्रता से बीती जा रही है और रोग तीव्र गति से निकट आ रहा है, इसलिये सबको पिनाकपाणि महादेवजी की पूजा करनी चाहिये, जब तक मृत्यु नहीं आती है, जब तक वद्धावस्था का आक्रमण नहीं होता और जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हो जाती है, तब तक ही भगवान् शंकर की आराधना कर लो। भगवान् शिव की आराधना के समान दूसरा कोई धर्म तीनों लोकों में नहीं है।
अब मैं अग्निकार्य का वर्णन करूँगा। कुण्ड में, स्थण्डिल पर, वेदी में, लोहे के हवन पात्र में या नूतन सुन्दर मिट्टी के पात्र में विधिपूर्वक अग्नि की स्थापना करके उसका संस्कार करे। तत्पश्चात् वहाँ महादेवजी की आराधना करके होमकर्म आरम्भ करे। कुण्ड दो या एक हाथ लंबा-चौड़ा होना चाहिये। वेदी को गोल या चौकोर बनाना चाहिये। साथ ही मण्डल भी बनाना आवश्यक है। कुण्ड विस्तृत और गहरा होना चाहिये। उसके मध्य-भाग में अष्टदल कमल अंकित करे। वह दो या चार अंगुल ऊँचा हो। कुण्ड के भीतर दो बित्ते की ऊँचाई पर नाभि की स्थिति बतायी गयी है। मध्यमा अंगुलि के मध्यम और उत्तम पर्वों के बराबर मध्य-भाग या कटिभाग जानना चाहिये। साधु पुरुष चौबीस अंगुल के बराबर एक हाथ का परिमाण बताते हैं। कुण्ड की तीन, दो या एक मेखला होनी चाहिये। इन मेखलाओं का इस तरह निर्माण करे, जिससे कुण्ड की शोभा बढ़े। सुन्दर और चिकनी योनि बनाये, जिसकी आकृति पीपल के पत्ते की भाँति अथवा हाथी के अधरोष्ठ के समान हो; कुण्ड के दक्षिण या पश्चिम भाग में मेखला के बीचोबीच सुन्दर योनि का निर्माण करना चाहिये, जो मेखला से कुछ नीची हो। उसका अग्रभाग कुण्ड की ओर हो तथा वह मेखला को कुछ छोड़कर बनायी गयी हो। वेदी के लिये ऊँचाई का कोई नियम नहीं है। वह मिट्टी या बालू की होनी चाहिये। गाय के गोबर या जल से मण्डल बनाना चाहिये। पात्र का परिमाण नहीं बताया गया है। कुण्ड और मिट्टी की वेदी को गोबर और जल से लीपना चाहिये। पात्र को धोकर तपाये तथा अन्य वस्तुओं का जल से प्रोक्षण करे। अपने-अपने गृह्यसूत्र में बतायी हुई विधि के अनुसार कुण्ड में और वेदी पर उललेखन (रेखा) करे। (रेखाओं पर से मृत्ति का लेकर ईशान कोण में फेंक दे।) फिर अग्नि के उस आसन का कुशों अथवा पुष्पों द्वारा जल से प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् पूजन और हवन के लिये सब प्रकार के द्रव्यों का संग्रह करे। धोने योग्य वस्तुओं को धोकर प्रोक्षणी के जल से उनका प्रोक्षण करके उन्हें शुद्ध करे। इसके बाद सूर्यकान्तमणि से प्रकट, काष्ठ से उत्पन्न, श्रोत्रिय की अग्निशाला में संचित अथवा दूसरी किसी उत्तम अग्नि को आधार सहित ले आये। उसे कुण्ड अथवा वेदी के ऊपर तीन बार प्रदक्षिणक्रम से घुमाकर अग्निबीज (रं) का उच्चारण करके उस अग्नि को उक्त कुण्ड या वेदी के आसन पर स्थापित कर दे। कुण्ड में स्थापित करना हो तो योनिमार्ग से अग्नि का आधान करे और वेदी पर अपने सामने की ओर अग्नि की स्थापना करे। योनिप्रदेश के पास स्थित विद्वान् पुरुष समस्त कुण्ड को अग्नि से संयुक्त करे। साथ ही यह भावना करे कि अपनी नाभि के भीतर जो अग्निदेव विराजमान हैं, वे ही नाभिरन्ध्र से चिनगारी के रूप में निकलकर बाह्य अग्नि में मण्डलाकार होकर लीन हुए हैं। अग्नि पर समिधा रखने से लेकर घी के संस्कार पर्यन्त सारा कार्य मन्त्रज्ञ पुरुष अपने गृह्यसूत्र में बताये हुए क्रम से मूलमन्त्र द्वारा सम्पन्न करे। तदनन्तर शिवमूर्ति की पूजा करके दक्षिण पाश्र्व में मन्त्र-न्यास करे और घृत में धेनुमुद्रा का प्रदर्शन करे। स्त्रुक् और स्त्रुवा – ये दोनों धातु के बने हुए हों तो ग्रहण करने योग्य हैं। परंतु काँसी, लोहे और शीशे के बने हुए स्त्रुक्, स्त्रुवा को नहीं ग्रहण करना चाहिये अथवा यज्ञ सम्बन्धी काष्ठ के बने हुए स्त्रुक्, स्त्रुवा ग्राह्य हैं। स्मृति या शिवशास्त्र में जो विहित हों, वे भी ग्राह्य हैं अथवा ब्रह्मवृक्ष (पलास या गूलर) आदि के छिद्ररहित बिचले दो पत्ते लेकर उन्हें कुश से पोंछे और अग्नि में तपाकर फिर उनका प्रोक्षण करे। उन्हीं पत्तों को स्त्रुक् और स्त्रुवा का रूप दे उनमें घी उठाये और अपने गृह्यसूत्र में बताये हुए क्रम से शिवबीज (ॐ) सहित आठ बीजाक्षरों द्वारा अग्नि में आहुति दे। इससे अग्नि का संस्कार सम्पन्न होता है। वे बीज इस प्रकार हैं – भ्रुं स्तुं ब्रु श्रुं पुं ड्रूं द्रूं। ये सात हैं, इनमें शिवबीज (ॐ) को सम्मिलित कर लेने पर आठ बीजाक्षर होते हैं। उपर्युक्त सात बीज क्रमशः अग्नि की सात जिह्वाओं के हैं। उनकी मध्यमा जिह्वा का नाम बहुरूपा है। उसकी तीन शिखाएँ हैं। उनमें से एक शिखा दक्षिण में और दूसरी वाम दिशा (उत्तर) में प्रज्वलित होती है और बीचवाली शिखा बीच में ही प्रकाशित होती है। ईशान कोण में जो जिह्वा है, उसका नाम हिरण्या है। पूर्वदिशा में विद्यमान जिह्वा कनका नाम से प्रसिद्ध है। अग्नि कोण में रक्ता, नैर्ऋत्य कोण में कृष्णा और वायव्य कोण में सुप्रभा नाम की जिह्वा प्रकाशित होती है। इनके अतिरिक्त पश्चिम में जो जिह्वा प्रज्वलित होती है, उसका नाम मरुत् है। इन सबकी प्रभा अपने-अपने नाम के अनुरूप है। अपने-अपने बीज के अनन्तर क्रमशः इनका नाम लेना चाहिये और नाम के अन्त में स्वाहा का प्रयोग करना चाहिये। इस तरह जो जिह्वामन्त्र बनते हें, उनके द्वारा क्रमशः प्रत्येक जिह्वा के लिये एक-एक घी की आहुति दे, परंतु मध्यमा की तीन जिह्वाओं के लिये तीन आहुतियाँ दे। कुण्ड के मध्य-भाग में 'रं वह्नये स्वाहा' बोलकर तीन आहुतियाँ दे। ये आहुतियाँ घी अथवा समिधा से देनी चाहिये। आहुति देने के पश्चात् अग्नि में जल का सेचन करे। ऐसा करने पर वह अग्नि भगवान् शिव की हो जाती है। फिर उसमें शिव के आसन का चिन्तन करे और वहाँ अर्धनारीश्वर भगवान् शिव का आवाहन करके पूजन करे। पाद्य-अर्ध्य आदि से लेकर दीपदान पर्यन्त पूजन करके अग्नि का जल से प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् समिधाओं की आहुति दे। वे समिधाएँ पलास की या गूलर आदि दूसरे यज्ञिय वृक्ष की होनी चाहिये। उनकी लंबाई बारह अंगुल की हो। समिधाएँ टेढ़ी न हों। स्वतः सूखी हुई भी न हों। उनके छिल के न उतरे हों तथा उन पर किसी प्रकार की चोट न हो। सब समिधाएँ एक-सी होनी चाहिये। दस अंगुल लंबी समिधाएँ भी हवन के लिये विहित हैं। उनकी मोटाई कनिष्ठिका अंगुलि के समान होनी चाहिये अथवा प्रादेश मात्र (अँगूठे से लेकर तर्जनी पर्यन्त) लंबी समिधाएँ उपयोग में लानी चाहिये। यदि उपयुक्त समिधाएं न मिलें तो जो मिल सकें, उन सबका ही हवन करना चाहिये। समिधा हवन के बाद घी की आहुति दे। घी की धारा दूर्वादल के समान पतली और चार अंगुल लंबी हो। उसके बाद अन्न की आहुति देनी चाहिये, जिसका प्रत्येक ग्रास सोलह-सोलह माशे के बराबर हो। लावा, सरसों, जौ और तिल – इन सब में घी मिलाकर यथासम्भव भक्ष्य, लेह्या और चोष्य का भी मिश्रण करे तथा इन सबकी यथाशक्ति दस, पाँच या तीन आहुतियाँ दे अथवा एक ही आहुति दे। स्त्रुवा से, समिधा से, स्त्रुक् से अथवा हाथ से आहुति देनी चाहिये। उसमें भी दिव्य तीर्थ से अथवा ऋषितीर्थ से आहुति देने का विधान है; यदि उपर्युक्त सभी द्रव्य न मिलें तो किसी एक ही द्रव्य से श्रद्धापूर्वक आहुति देनी चाहिये। प्रायश्चित्त के लिये मन्त्र से अभिमन्त्रित करके तीन आहुतियाँ दे। फिर होमावशिष्ट घृत से स्त्रुक् को भरकर उसके अग्रभाग में फूल रखकर उसे दर्भ सहित अधोमुख स्त्रवा से ढक दे। इसके बाद खड़ा हो उसे अंजलि में लेकर 'ओं नमः शिवाय वौषट्' का उच्चारण करके जौ के तुल्य घी की धारा की आहुति दे। इस प्रकार पूर्णाहुति करके अग्नि में पूर्ववत् जल का छींटा दे। तत्पश्चात् देवेश्वर शिव का विसर्जन करके अग्नि की रक्षा करे। फिर अग्नि का भी विसर्जन करके भावना द्वारा नाभि में स्थापित करके नित्य यजन करे।
अथवा शिव शास्त्र में बतायी हुई पद्धति के अनुसार वागीश्वरी के गर्भ से प्रकट हुए अग्निदेव को लाकर विधिवत् संस्कार करके उनका पूजन करे। फिर समिधा का आधान करके सब ओर से परिधियों का निर्माण करे। इसके बाद वहाँ दो-दो पात्र रखकर शिव का यजन करके प्रोक्षणी पात्र का शोधन करे। उस पात्र के जल से पूर्वोक्त वस्तुओं का प्रोक्षण करके जल से भरे हुए प्रणीता पात्र को ईशान कोण में रखे। घी के संस्कार तक का सारा कार्य करके स्त्रुक् और स्त्रुवा का संशोधन करे। तदनन्तर पिता शिव द्वारा माता वागीश्वरी का गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन-संस्कार करके प्रत्येक संस्कार के निमित्त पृथक्-पृथक् आहुति दे और गर्भ से अग्नि के उत्पन्न होने की भावना करे। उनके तीन पैर, सात हाथ, चार सींग और दो मस्तक हैं। मधु के समान पिंगल वर्णवाले तीन नेत्र हैं। सिर पर जटाजूट और चन्द्रमा का मुकुट है। उनकी अंगकान्ति लाल है। लाल रंग के ही वस्त्र, चन्दन, माला और आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते हैं। सब लक्षणों से सम्पन्न, यज्ञोपवीतधारी तथा त्रिगुण मेखला से युक्त हैं। उनके दायें हाथों में शक्ति है, स्त्रुक् और स्त्रुवा है तथा बायें हाथों में तोमर, ताड़ का पंखा और घी से भरा हुआ पात्र है। इस आकृति में उत्पन्न हुए अग्निदेव का ध्यान करके उनका 'जातकर्म' संस्कार करे। तत्पश्चात् नालच्छेदन करके सूतक की शुद्धि करे। फिर आहुति देकर उस शिव सम्बन्धी अग्नि का रुचि नाम रखे। इसके बाद माता-पिता का विसर्जन करके चूडाकर्म और उपनयन आदि से लेकर आप्तोर्याम पर्यन्त संस्कार करे।* तत्पश्चात् घृतधारा आदि का होम करके स्विष्टकृत् होम करे। इसके बाद 'रं' बीज का उच्चारण करके अग्नि पर जल का छींटा डाले। फिर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, ईश, लोकेश्वर गण और उनके अस्त्रों का सब ओर क्रमशः पूजन _ करके धूप, दीप आदि की सिद्धि के लिये अग्नि को अलग निकालकर कर्मविधि का ज्ञाता पुरुष पुनः घृतयुक्त पूर्वोक्त होम-द्रव्य तैयार करके अग्नि में आसन की कल्पना (भावना) करे और उस पर पूर्ववत् महादेव और महादेवी का आवाहन, पूजन करके पूर्णाहति पर्यनत सब कार्य सम्पन्न करे।
[* उपनयन से आप्तोर्याम पर्यन्त संस्कारों की नामावली इस प्रकार है – उपनयन, व्रतबन्ध, समावर्तन, विवाह, उपाकर्म, उत्सर्जन, (सात पाक-यज्ञ) हुत, प्रहुत, आहुत, शूलगव, बलिहरण, प्रत्यवरोहण, अष्टकाहोम, (सात हविर्यज्ञ-संस्था) अग्न्याधान, अग्नहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयणेष्टि, निरूढपशुबन्ध, सौत्रामणि, (सात सोमयज्ञ-संस्था) अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतितात्र, आप्तोर्याम।]
अथवा अपने आश्रम के लिये शास्त्रविहित अग्निहोत्र कर्म करके उसे भगवान् शिव को समर्पित करे। शिवाश्रमी पुरुष इन सब बातों को समझकर होमकर्म करे। इसके लिये दूसरी कोई विधि नहीं है। शिवाग्नि का भस्म संग्रहणीय है। अग्निहोत्र कर्म का भस्म भी संग्रह करने के योग्य है। वैवाहिक अग्नि का भस्म भी जो परिपक्व, पवित्र एवं सुगन्धित हो, संग्रह करके रखना चाहिये। कपिला गाय का वह गोबर, जो गिरते समय आकाश में ही दोनों हाथों पर रोक लिया गया हो, उत्तम माना गया है। वह यदि अधिक गीला वा अधिक कड़ा न हो, दुर्गन्ध युक्त और सूखा हुआ न हो तो अच्छा माना गया है। यदि वह पृथ्वी पर गिर गया हो तो उसमें से ऊपर और नीचे के हिस्से को त्यागकर बीच का भाग ले ले। उस गोबर का पिण्ड बनाकर उसे शिवाग्नि आदि में मूल-मन्त्र के उच्चारणपूर्वक छोड़ दे। जब वह पक जाय, तब उसे निकाल ले। उसमें जितना अधप का हो, उसको और जो भाग बहुत अधिक पक गया हो, उसको भी त्यागकर श्वेत भस्म ले ले और उसे घोटकर चूर्ण बना दे। इसके बाद उसे भस्म रखने के पात्र में रख दे। भस्मपात्र धातु का, लकड़ी का, मिट्टी का, पत्थर का अथवा और किसी वस्तु का बनवा ले। वह देखने में सुन्दर होना चाहिये। उसमें रखे हुए भस्म को धन की भाँति किसी शुभ, शुद्ध एवं समतल स्थान में रखे। किसी अयोग्य या अपवित्र के हाथ में भस्म न दे। नीचे अपवित्र स्थान में भी न डाले। नीचे के अंगों से उसका स्पर्श न करे। भस्म की न तो उपेक्षा करे और न उसे लाँघे ही। शास्त्रोक्त समय पर उस पात्र से भस्म लेकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक अपने ललाट आदि में लगाये। दूसरे समय में उसका उपयोग न करे और न अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में उसे दे। भगवान् शिव का विसर्जन न हुआ हो, तभी भस्म-संग्रह कर ले; क्योंकि विसर्जन के बाद उस पर चण्ड का अधिकार हो जाता है।
जब अग्निकार्य सम्पन्न कर लिया जाय, तब शिवशास्त्रोक्त मार्ग से अथवा अपने गृह्यसूत्र में बतायी हुई विधि से बलिकर्म करे। तदनन्तर अच्छी तरह लिपे-पुते मण्डल में विद्यासन को बिछाकर विद्याकोश की स्थापना करके क्रमशः पुष्प आदि के द्वारा यजन करे। विद्या के सामने गुरु का भी मण्डल बनाकर वहाँ श्रेष्ठ आसन रखे और उस पर पुष्प आदि के द्वारा गुरु की पूजा करे। तदनन्तर पूजनीय पुरुषों की पूजा करे और भूखों को भोजन कराये। इसके बाद स्वयं सुखपूर्वक शुद्ध अन्न भोजन करे। वह अन्न तत्काल भगवान् शिव को निवेदित किया गया हो अथवा उनका प्रसाद हो। उसे आत्मशुद्धि के लिये श्रद्धापूर्वक भोजन करे। जो अन्न चण्ड को समर्पित हो, उसे लोभवश ग्रहण न करे। गन्ध और पुष्पमाला आदि जो अन्य वस्तुएँ हैं, उनके लिये भी यह विधि समान ही है अर्थात् चण्ड का भाग होने पर उन्हें ग्रहण नहीं करना चाहिये। वहाँ विद्वान् पुरुष 'मैं ही शिव हूँ' ऐसी बुद्धि न करे। भोजन और आचमन करके शिव का मन-ही-मन चिन्तन करते हुए मूलमन्त्र का उच्चारण करे। शेष समय शिवशास्त्र की कथा के श्रवण आदि योग्य कार्यों में बिताये। रात का प्रथम प्रहर बीत जाने पर मनोहर पूजा करके शिव और शिवा के लिये एक परम सुन्दर शय्या प्रस्तुत करे। उसके साथ ही भक्ष्य, भोज्य, वस्त्र, चन्दन और पुष्पमाला आदि भी रख दे। मन से और क्रिया द्वारा भी सब सुन्दर व्यवस्था करके पवित्र हो महादेवजी और महादेवी के चरणों के निकट शयन करे। यदि उपासक गृहस्थ हो तो वह वहाँ अपनी पत्नी के साथ शयन करे। जो गृहस्थ न हों, वे अकेले ही सोयें। उषःकाल आया जान मन-ही-मन पार्वती देवी तथा पार्षदों सहित अविनाशी भगवान् शिव को प्रणाम करके देशकालोचित कार्य तथा शौच आदि कृत्य पूर्ण करे। फिर यथाशक्ति शंख आदि वाद्यों की दिव्य ध्वनियों से महादेव और महादेवी को जगाये। इसके बाद उस समय खिले हुए परम सुगन्धित पुष्पों द्वारा शिवा और शिव की पूजा करके पूर्वोक्त कार्य आरम्भ करे।
(अध्याय २७)