अन्तर्याग अथवा मानसिक पूजाविधि का वर्णन
तदनन्तर श्रीकृष्ण के पूछने पर नित्य नैमित्तिक कर्म तथा न्यास का वर्णन करने के पश्चात् उपमन्यु बोले – अब मैं पूजा के विधान का संक्षेप से वर्णन करता हूँ। इसे शिवशास्त्र में शिव ने शिवा के प्रति कहा है। मनुष्य अग्निहोत्र पर्यन्त अन्तर्याग का अनुष्ठान करके पीछे बहिर्याग (बाह्यपूजन) करे। (उसकी विधि इस प्रकार है –) अन्तर्याग में पहले पूजाद्रव्यों को मन से कल्पित और शुद्ध करके गणेशजी का विधिपूर्वक चिन्तन एवं पूजन करे। तत्पश्चात् दक्षिण और उत्तर भाग में क्रमशः नन्दीश्वर और सुयशा की आराधना करके विद्वान् पुरुष मन से उत्तम आसन की कल्पना करे। सिंहासन, योगासन अथवा तीनों तत्त्वों से युक्त निर्मल पद्मासन की भावना करे। उसके ऊपर सर्वमनोहर साम्बशिव का ध्यान करे। वे शिव समस्त शुभ लक्षणों से युक्त और सम्पूर्ण अवयवों से शोभायमान हैं। वे सबसे बढ़कर हैं और समस्त आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते हैं। उनके हाथ-पैर लाल हैं। उनका मुसकराता हुआ मुख कुन्द और चन्द्रमा के समान शोभा पाता है। उनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल है। तीन नेत्र प्रफुल्ल कमल की भाँति सुन्दर हैं। चार भुजाएँ, उत्तम अंग और मनोहर चन्द्रकला का मुकुट धारण किये भगवान् हर अपने दो हाथों में वरद तथा अभय की मुद्रा धारण करते हैं और शेष दो हाथों में मृगमुद्रा एवं टंक लिये हुए हैं। उनकी कलाई में सर्पों की माला कड़े का काम देती है। गले के भीतर मनोहर नील चिह्न शोभित होता है, उनकी कहीं कोई उपमा नहीं है। वे अपने अनुगामी सेवकों तथा आवश्यक उपकरणों के साथ विराजमान हैं।
इस तरह ध्यान करके उनके वामभाग में महेश्वरी शिवा का चिन्तन करे। शिवा की अंगकान्ति प्रफुल्ल कमलदल के समान परम सुन्दर है। उनके नेत्र बड़े-बड़े हैं। मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान सुशोभित है। मस्तक पर काले-काले घुँघराले केश शोभा पाते हैं। वे नील उत्पलदल के समान कान्तिमती हैं। मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट धारण करती हैं। उनके पीन पयोधर अत्यन्त गोल, घनीभूत, ऊँचे और स्निग्ध हैं। शरीर का मध्य-भाग कृश है। नितम्बभाग स्थूल है। वे महीन पीले वस्त्र धारण किये हुए हैं। सम्पूर्ण आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते हैं। ललाट पर लगे हुए सुन्दर तिलक से उनका सौन्दर्य और खिल उठा है। विचित्र फूलों की माला से गुम्फित केशपाश उनकी शोभा बढ़ाते हैं। उनकी आकृति सब ओर से सुन्दर और सुडौल है। मुख लज्जा से कुछ-कुछ झुका है। वे दाहिने हाथ में शोभाशाली सुवर्णमय कमल धारण किये हुए हैं और दूसरे हाथ को दण्ड की भाँति सिंहासन पर रखकर उसका सहारा ले उस महान् आसन पर बैठी हुई हैं। शिवादेवी समस्त पाशों का छेदन करने वाली साक्षात् सच्चिदानन्द-स्वरूपिणी हैं। इस प्रकार महादेव और महादेवी का ध्यान करके शुभ एवं श्रेष्ठ आसन पर सम्पूर्ण उपचारों से युक्त भावमय पुष्पों द्दारा उनका पूजन करे।
अथवा उपर्युक्त वर्णन के अनुसार प्रभु शिव की एक मूर्ति बनवा ले, उसका नाम शिव या सदाशिव हो। दूसरी मूर्ति शिवा की होनी चाहिये; उसका नाम माहेश्वरी षड़्विंश का अथवा 'श्रीकण' हो। फिर अपने ही शरीर की भाँति मूर्ति में मन्त्रन्यास आदि करके उस मूर्ति में सत्-असत् से परे मूर्तिमान् परम शिव का ध्यान करे। इसके बाद बाह्य पूजन के ही क्रम से मन से पूजा सम्पादित करे। तत्पश्चात् समिधा और घी आदि से नाभि में होम की भावना करे। तदनन्तर भ्रूमध्य में शुद्ध दीपशिखा के समान आकारवाले ज्योतिर्ममय शिव का ध्यान करे। इस प्रकार अपने अंग में अथवा स्वतन्त्र विग्रह में शुभ ध्यानयोग के द्वारा अग्नि में होमपर्यनत सारा पूजन करना चाहिये। यह विधि सर्वत्र ही समान है। इस तरह ध्यानमय आराधना का सारा क्रम समाप्त करके महादेवजी का शिवलिंग में, वेदी पर अथवा अग्नि में पूजन करे।
(अध्याय २१ - २३)