योग्य शिष्य के आचार्यपद पर अभिषेक का वर्णन तथा संस्कार के विविध प्रकारों का निर्देश
उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! जिसका इस प्रकार संस्कार किया गया हो और जिसने पाशुपत-व्रत का अनुष्ठान पूरा कर लिया हो, वह शिष्य यदि योग्य हो तो गुरु उसका आचार्य पद पर अभिषेक करे, योग्यता न होने पर न करे। इस अभिषेक के लिये पूर्ववत् मण्डल बनाकर परमेश्वर शिव की पूजा करे। फिर पूर्ववत् पाँच कलशों की स्थापना करे। इनमें चार तो चारों दिशाओं में हों और पाँचवाँ मध्य में हो। पूर्ववाले कलश पर निवृत्तिकला का, पश्चिमवाले कलश पर प्रतिष्ठाकला का, दक्षिण कलश पर विद्याकला का, उत्तर कलश पर शान्तिकला का और मध्यवर्ती कलश पर शान्त्यतीताकला का न्यास करके उनमें रक्षा आदि का विधान करके धेनुमुद्रा बाँधकर कलशों को अभिमन्त्रित करके पूर्ववत् पूर्णाहुतिपर्यन्त होम करे। फिर नंगे सिर शिष्य को मण्डल में ले आकर गुरु-मन्त्रों का तर्पण आदि करे और पूर्णाहुतिपर्यनत हवन एवं पूजन करके पूर्ववत् देवेश्वर की आज्ञा ले शिष्य को अभिषेक के लिये ऊँचे आसन पर बिठाये। पहले सकलीकरण की क्रिया करके पंचकलारूपी शिष्य के शरीर में मन्त्र का न्यास करे। फिर उस शिष्य को बाँधकर शिव को सौंप दे। तदनन्तर निवृत्तिकला आदि से युक्त कलशों को क्रमशः उठाकर शिष्य का शिवमन्त्र से अभिषेक करे। अन्त में मध्यवर्ती कलश के जल से अभिषेक करना चाहिये। इसके बाद शिवभाव को प्राप्त हुए आचार्य शिष्य के मस्तक पर शिवहस्त * रखे और उसे शिवाचार्य की संज्ञा दे। तदनन्तर उसको वस्त्राभूषणों से अलंकृत करके शिवमण्डल में महादेवजी की आराधना करके एक सौ आठ आहुति एवं पूर्णाहति दे। फिर देवेश्वर की पूजा एवं भूतल पर साष्टांग प्रणाम करके गुरु मस्तक पर हाथ जोड़ भगवान् शिव से यह निवेदन करे –
भगवंस्त्वत्प्रसादेन देशिकोऽयं मया कृतः।
अनुगृह्य त्वया देव दिव्याज्ञास्मै प्रदीयताम्॥
[* गुरु पहले अपने दाहिने हाथ पर सुगन्ध द्रव्य द्वारा मण्डल का निर्माण करे, तत्पश्चात् वह उस पर विघिपूर्वक भ्रगवान् शिव की पूजा करें। इस प्रकार वह 'शिवहस्त' हो जाता है। 'मैं स्वयं परम शिव हूँ' यह निश्चय करके श्रीगुरुदेव असंदिग्धचित्त से शिष्य के सिर का स्पर्श करते हैं। उस 'शिवहस्त' के स्पर्श मात्र से शिष्य का शिवत्व अभिव्यक्त हो जाता है।]
'भगवन्! आपकी कृपा से मैंने इस योग्य शिष्य को आचार्य बना दिया है। देव! अब आप अनुग्रह करके इसे दिव्य आज्ञा प्रदान करें।' इस प्रकार कहकर गुरु शिष्य के साथ पुनः शिव को प्रणाम करे और दिव्य शिवशास्त्र का शिव की ही भाँति पूजन करे। इसके बाद शिव की आज्ञा लेकर आचार्य अपने उस शिष्य को अपने दोनों हाथों से शिव सम्बन्धी ज्ञान की पुस्तक दे। वह उस शिवागम विद्या को मस्तक पर रखकर फिर उसे विद्यासन पर रखे और यथोचित रीति से प्रणाम कर उसकी पूजा करे। तदनन्तर गुरु उसे राजोचित चिह्न प्रदान करे; क्योंकि आचार्य-पदवी को प्राप्त हुआ पुरुष राज्य पाने के भी योग्य है।
तत्पश्चात् गुरु उसे पूर्वाचार्यो द्वारा आचारित शिवशास्त्रोक्त आचार का अनुशासन करे, जिससे सब लोकों में सम्मान होता है। 'आचार्य' पदवी को प्राप्त हुआ पुरुष शिवशास्त्रोक्त लक्षणों के अनुसार यत्नपूर्वक शिष्यों की परीक्षा करके उनका संस्कार करने के अनन्तर उन्हें शिवज्ञान का उपदेश दे। इस प्रकार वह बिना किसी आयास के शौच, क्षमा, दया, अस्पृहा (कामना-त्याग) तथा अनसूया (ईर्ष्या-त्याग) आदि गुणों का यत्नपूर्वक अपने भीतर संग्रह करे। इस तरह उस शिष्य को आदेश देकर मण्डल से शिवका, शिवकलशों का तथा अग्नि आदि का विसर्जन करके वह सदस्यों का भी पूजन (दक्षिणा आदि से सत्कार) करे।
अथवा, अपने गणों सहित गुरु एक साथ ही सब संस्कार करे। जहाँ दो या तीन संस्कारों का प्रयोग करना हो, वहाँ के लिये विधि का उपदेश किया जाता है – वहाँ आदि में ही अध्वशुद्धि-प्रकरण में कहे अनुसार कलशों की स्थापना करे। अभिषेक के सिवा समयाचार दीक्षा के सब कर्म करके शिव का पूजन और अध्वशोधन करे। अध्वशुद्धि हो जाने पर फिर महादेवजी की पूजा करे। इसके बाद हवन और मन्त्रतर्पण करके दीपन-कर्म करे तथा महेश्वर की आज्ञा ले शिष्य के हाथ में मन्त्रसमर्पणपूर्वक शेष कार्य पूर्ण करे।
अथवा सम्पूर्ण मन्त्र-संस्कार का क्रमशः अनुचिन्तन करके गुरु अभिषेकपर्यनतः अध्वशुद्धि का कार्य सम्पन्न करे। वहाँ शान्त्यतीता आदि कलाओं के लिये जिस विधि का अनुष्ठान किया गया है। वह सारा विधान तीन तत्त्वों की शुद्धि के लिये भी कर्तव्य है। शिव-तत्त्व, विद्या-तत्त्व और आत्म-तत्त्व – ये तीन तत्त्व कहे गये हैं। शक्ति में पहले शिव का, फिर विद्या का और उसके बाद उसकी आत्मा का आविर्भाव हुआ है। शिव से 'शान्त्यतीताध्वा' व्याप्त है, उससे 'शान्तिकलाध्वा' उससे 'विद्याकलाध्वा' विद्या से परिशिष्ट 'प्रतिष्ठाकलाध्वा' और उससे 'निवृत्तिकलाध्वा' व्याप्त है। शिवशास्त्र के पारंगत मनीषी पुरुष मन्त्रमूलक शाम्भव (शैव) संस्कार को दुर्लभ मानकर शाक्त संस्कार का प्रतिपादन करते हैं। श्रीकृष्ण! इस प्रकार मैंने तुमसे सम्पूर्ण यह चतुर्विध संस्कार-कर्म का वर्णन किया।
(अध्याय २०)