साधक-संस्कार और मन्त्र-माहात्म्य का वर्णन

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! अब मैं साधक-संस्कार और मन्त्र-माहात्म्य का वर्णन करूँगा। इस बात की सूचना मैं पहले दे चुका हूं। पूर्ववत् मण्डल में कलश पर स्थापित महादेवजी की पूजा करने के पश्चात् हवन करे। फिर नंगे सिर शिष्य को उस मण्डल के पास भूमि पर बिठावे। पूर्णाहति-होम पर्यन्त सब कार्य पूर्ववत् करके मूलमन्त्र से सौ आहुतियाँ दे। श्रेष्ठ गुरु कलशों से मूलमन्त्र के उच्चारणपूर्वक तर्पण करके संदीपन कर्म करे। फिर क्रमशः पूर्वोक्त कर्मों का सम्पादन करके अभिषेक करे। तत्पश्चात् गुरु शिष्य को उत्तम मन्त्र दे; वहाँ विद्योपदेशान्त सब कार्य विस्तारपूर्वक सम्पादित करके पुष्पयुक्त जल से शिष्य के हाथ पर शैवी विद्या को समर्पित करे और इस प्रकार कहे –

तवैहिकामुष्मिकयोः सर्वसिद्धिफलप्रदः।
भवत्वेष महामन्त्रः प्रसादात्परमेष्ठिनः ॥


'सौम्य! यह महामन्त्र परमेश्वर शिव के कृपा-प्रसाद से तुम्हारे लिये ऐहलौकिक तथा पारलौकिक सम्पूर्ण सिद्धियों के फल को देनेवाला हो।'

ऐसा कह महादेवजी की पूजा करके उनकी आज्ञा ले गुरु साधक को साधन और शिवयोग का उपदेश दे। गुरु के उस उपदेश को सुनकर मन्त्रसाधक शिष्य उनके सामने ही विनियोग करके मन्त्र-साधन आरम्भ करे। मूलमन्त्र के साधन को पुरश्चरण कहते हैं; क्योंकि विनियोग नामक कर्म सबसे पहले आचरण में लाने योग्य है। यही पुरश्चरण शब्द की व्युत्पत्ति है। मुमुक्षु के लिये मन्त्रसाधन अत्यन्त कर्तव्य है; क्योंकि किया हुआ मन्त्रसाधन इहलोक और परलोक में साधक के लिये कल्याणदायक होता है।

शुभ दिन और शुभ देश में निर्दोष समय में दाँत और नख साफ करके अच्छी तरह स्नान करे और पूर्वाह्नकालिक कृत्य पूर्ण करके यथाप्राप्त गन्ध, पुष्पमाला तथा आभूषणों से अलंकृत हो, सिर पर पगड़ी रख, दुपट्टा ओढ़ पूर्णतः श्वेत वस्त्र धारण कर देवालय में, घर में या और किसी पवित्र तथा मनोहर देश में पहले से अभ्यास में लाये गये सुखासन से बैठकर शिवशास्त्रोक्त पद्धति के अनुसार अपने शरीर को शिवरूप बनाये। फिर देवदेवेश्वर नकुलीश्वर शिव का पूजन करके उन्हें खीर का नैवेद्य अर्पित करे। क्रमशः उनकी पूजा पूरी करके उन प्रभु को प्रणाम करे और उनके मुख से आज्ञा पाकर एक करोड़, आधा करोड़ अथवा चौथाई करोड़ शिवमन्त्र का जप करे अथवा बीस लाख या दस लाख जप करे। उसके बाद से सदा खीर एवं क्षार नमकरहित अन्य पदार्थ का दिन-रात में केवल एक बार भोजन करे। अहिंसा, क्षमा, शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रियसंयम) का पालन करता रहे। खीर न मिले तो फल, मूल आदि का भोजन करे। भगवान् शिव ने निम्नांकित भोज्य पदार्थों का विधान किया है, जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। पहले तो चरु भक्षण करने योग्य है। उसके बाद सत्तू के कण, जौ के आटे का हलुआ, साग, दूध, दही, घी, मूल, फल और जल – ये आहार के लिये विहित हैं। इन भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थों की मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित करके प्रतिदिन मौनभाव से भोजन करे। इस साधन में विशेष रूप से ऐसा करने का विधान है। व्रती को चाहिये कि एक सौ आठ मन्त्र से अभिमन्त्रित किये हुए पवित्र जल से स्नान करे अथवा नदी-नद के जल को यथाश्क्ति मन्त्र-जप के द्वारा अभिमन्त्रित करके अपने शरीर का प्रोक्षण कर ले, प्रतिदिन तर्पण करे और शिवाग्नि में आहुति दे। हवनीय पदार्थ सात, पाँच या तीन द्रव्यों के मिश्रण से तैयार करे अथवा केवल घृत से ही आहुति दे।

जो शिवभक्त साधक इस प्रकार भक्तिभाव से शिव की साधना या आराधना करता है, उसके लिये इहलोक और परलोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। अथवा प्रतिदिन बिना भोजन किये ही एकाग्रचित्त हो एक सहस्त्र मनत्र का जप किया करे। मन्त्र-साधना के बिना भी जो ऐसा करता है, उसके लिये न तो कुछ दुर्लभ है और न कहीं उसका अमंगल ही होता है। वह इस लोक में विद्या, लक्ष्मी तथा सुख पाकर अन्त में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। साधन, विनियोग तथा नित्य-नैमित्तिक कर्म में क्रमशः जल से, मन्त्र से और भस्म से भी स्नान करके पवित्र शिखा बाँधकर यज्ञोपवीत धारण कर कुश की पवित्री हाथ में ले ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाकर रुद्राक्ष की माला लिये पंचाक्षर-मन्त्र का जप करना चाहिये।

(अध्याय १९)