षडध्वशोधन की विधि

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! तदनन्तर गुरु की आज्ञा ले शिष्य स्नान आदि सम्पूर्ण कर्म को समाप्त करके शिव का चिन्तन करता हुआ हाथ जोड़ शिवमण्डल के समीप जाय। इसके बाद पूजा के सिवा पहले दिन का शेष सारा कृत्य नेत्रबन्धन-पर्यन्त कर लेने के अनन्तर गुरु उसे मण्डल का दर्शन कराये। आँख में पट्टी बँधे रहने पर शिष्य कुछ फूल बिखेरे। जहाँ भी फूल गिरें, वहीं उसको उपदेश दे। फिर पूर्ववत् उसे निर्माल्य मण्डल में ले जाकर ईशानदेव की पूजा कराये और शिवाग्नि में हवन करे। यदि शिष्य ने दुःस्वप्न देखा हो तो उसके दोष की शान्ति के लिये सौ या पचास बार मूलमन्त्र से अग्नि में आहुति दे। तदनन्तर शिखा में बंधे हुए सूत को पूर्ववत् लटकाकर आधार-शक्ति की पूजा से लेकर निवृत्तिकला सम्बन्धी वागीश्वरीपूजन पर्यन्त सब कार्य होमपूर्वक करे।

इसके बाद निवृत्तिकला में व्यापक सती वागीश्वरी को प्रणाम करके मण्डल में महादेवजी के पूजनपूर्वक तीन आहुतियाँ दे। शिष्य को एक ही समय सम्पूर्ण योनियों में प्राप्त कराने की भावना करे। फिर शिष्य के सूत्रमय शरीर में ताड़न-प्रोक्षण आदि करके उसके आत्मचैतन्य को लेकर द्वादशान्त में निवेदन करे। फिर वहाँ से भी उसे लेकर आचार्य मूलमन्त्र से शास्त्रोक्त मुद्रा द्वारा मानसिक भावना से एक ही साथ सम्पूर्ण योनियों में संयुक्त करे। देवताओं की आठ जातियाँ हैं, तिर्यक्-योनियों (पशु-पक्षियों) की पाँच और मनुष्यों की एक जाति। इस प्रकार कुल चौदह योनियाँ हैं। उन सब में शिष्य को एक साथ प्रवेश कराने के लिये गुरु मन-ही-मन भावना द्वारा शिष्य की आत्मा को यथोचित रीति से वागीश्वरी के गर्भ में निविष्ट करे। वागीश्वरी में गर्भ की सिद्धि के लिये महादेवजी का पूजन, प्रणाम और उनके निमित्त हवन करके यह चिन्तन करे कि यथावत् रूप से वह गर्भ सिद्ध हो गया। सिद्ध हुए गर्भ की उत्पत्ति, कर्मानुवृत्ति, सरलता, भोगप्राप्ति और परा प्रीति का चिन्तन करे। तत्पश्चात् उस जीव के उद्धार तथा जाति, आयु एवं भोग के संस्कार की सिद्धि के लिये तीन आहुति का हवन करके श्रेष्ठ गुरु महादेवजी से प्रार्थना करे। भोक्तृत्वविषयक आसक्ति (अथवा भोक्तृता और विषयासक्ति) रूप मल के निवारणपूर्वक शिष्य के शरीर का शोधन करके उसके त्रिविध पाश का उच्छेद कर डाले। कपट या माया से बँधे हुए शिष्य के पाश का अत्यन्त भेदन करके उसके चैतन्य को केवल स्वच्छ माने। फिर अग्नि में पूर्णाहुति देकर ब्रह्मा का पूजन करे। ब्रह्मा के लिये तीन आहुति देकर उन्हें शिव की आज्ञा सुनाये।

पितामह त्वया नास्य यातुः शैवं परं पदम्।
प्रतिबन्धो विधातव्यः शैवाज्ञैषा गरीयसी ॥


'पितामह! यह जीव शिव के परम पद को जानेवाला है। तुम्हें इसमें विघ्न नहीं डालना चाहिये। यह भगवान् शिव की गुरुतर आज्ञा है।'

ब्रह्मजी को शिव का यह आदेश सुनाकर उनकी विधिवत् पूजा और विसर्जन करके महादेवजी की अर्चना करे और उनके लिये तीन आहुति दे। तत्पश्चात् निवृत्ति द्वारा शुद्ध हुए शिष्य के आत्मा का पूर्ववत् उद्धार करके अपनी आत्मा एवं सूत्र में स्थापित कर वागीश का पूजन करे। उनके लिये तीन आहुति दे और प्रणाम करके विसर्जन कर दे। तत्पश्चात् निवृत्त पुरुष प्रतिष्ठाकला के साथ सांनिध्य स्थापित करे। उस समय एक बार पूजा करके तीन आहुति दे और शिष्य के आत्मा के प्रतिष्ठाकला में प्रवेश की भावना करे। इसके बाद प्रतिष्ठा का आवाहन करके पूर्वोक्त सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् उसमें व्यापक वागीश्वरी देवी का ध्यान करे। उनकी कान्ति पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान है। ध्यान के पश्चात् शेष कार्य पूर्ववत् करे।

तदनन्तर भगवान् विष्णु को परमात्मा शिव की आज्ञा सुनाये। फिर उनका भी विसर्जन आदि शेष कृत्य पूर्ण करके प्रतिष्ठा का विद्या से संयोग करे। उसमें भी पूर्ववत् सब कार्य करे। साथ ही उसमें व्याप्त वागीश्वरी देवी का चिन्तन-पूजन तथा प्रज्वलित अग्नि में पूर्णहोमान्त सब कर्म क्रमशः सम्पन्न करके पूर्ववत् नीलरुद्र का आवाहन एवं पूजन आदि करे। फिर पूर्वोक्त रीति से उन्हें भी शिव की आज्ञा सुना दे। तदनन्तर उनका भी विसर्जन करके शिष्य की दोष शान्ति के लिये विद्याकला को लेकर उसकी व्याप्ति का अवलोकन करे और उसमें व्यापिका वागीश्वरी देवी का पूर्ववत् ध्यान करे। उनकी आकृति प्रातःकाल के सूर्य की भाँति अरुण रंग की है और वे दसों दिशाओं को उद्भासित कर रही हैं। इस प्रकार ध्यान करके शेष कार्य पूर्ववत् करे। फिर महेश्वरदेव का आवाहन, पूजन और उनके उद्देश्य से हवन करके उन्हें मन-ही-मन शिव की पूर्वोक्त आज्ञा सुनाये। तत्पश्चात् महेश्वर का विसर्जन करके अन्य शान्तिकला को शान्त्यतीताकला तक पहुँचाकर उसकी व्यापकता का अवलोकन करे। उसके स्वरूप में व्यापक वागीश्वरी देवी का चिन्तन करे। उनका स्वरूप आकाश-मण्डल के समान व्यापक है। इस प्रकार ध्यान करके पूर्णाहुति-होमपर्यन्त सारा कार्य पूर्ववत् करे। शेष कार्य की पूर्ति करके सदाशिव की विधिवत् पूजा करे और उन्हें भी अमित पराक्रमी शम्भु की आज्ञा सुना दे। फिर वहाँ भी पूर्ववत् शिष्य के मस्तक पर शिव की पूजा करके उन वागीश्वर देव को प्रणाम करे और उनका विसर्जन कर दे।

तदनन्तर शिव-मन्त्र से पूर्ववत् शिष्य के मस्तक का प्रोक्षण करके यह चिन्तन करे कि शान्त्यतीताकला का शिव-मन्त्र में विलय हो गया। छहों अध्वाओं से परे जो शिव की सर्वाध्वव्यापिनी पराशक्ति है, वह करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्विनी है, ऐसा उसके स्वरूप का ध्यान करे। फिर उस शक्ति के आगे शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल हुए शिष्य को ले आकर बिठा दे और आचार्य कैंची को धोकर शिव-शास्त्र में बतायी हुई पद्धति के अनुसार सूत्र सहित उसकी शिखा का छेदन करे। उस शिखा को पहले गोबर में रखकर फिर 'ॐ नमः शिवाय वौषट्' का उच्चारण करके उसका शिवाग्नि में हवन कर दे। फिर कैंची धोकर रख दे और शिष्य की चेतना को उसके शरीर में लौटा दे। इसके बाद जब शिष्य स्नान, आचमन और स्वस्तिवाचन कर ले, तब उसे मण्डल के निकट ले जाय और शिव को दण्डवत् प्रणाम करके क्रियालोपजनित दोष की शुद्धि के लिये यथोचित रीति से पूजा करे। तदनन्तर वाचक मन्त्र का धीरे-धीरे उच्चारण करके अग्नि में तीन आहुतियाँ दे। फिर मन्त्र-वैकल्पजनित दोष की शुद्धि के लिये देवेश्वर शिव का पूजन करके मन्त्र का मानसिक उच्चारण करते हुए अग्नि में तीन आहुतियाँ दे। वहाँ मण्डल में विराजमान अम्बा पार्वती सहित शम्भु की समाराधना करके तीन आहुतियों का हवन करने के पश्चात् गुरु हाथ जोड़ इस प्रकार प्रार्थना करे –

भगवंस्त्वत्प्रसादेन शुद्धिरस्य षडध्वनः।
कृता तस्मात्परं धाम गमयैनं तवाव्ययम् ॥


'भगवन्! आपकी कृपा से इस शिष्य की षडध्वशुद्धि की गयी; अतः अब आप इसे अपने अविनाशी परम धाम में पहुँचाइये।'

इस तरह भगवान् से प्रार्थना कर नाड़ी-संधानपूर्वक पूर्ववत् पूर्णाहुति-होमपर्यन्त कर्म का सम्पादन करके भूतशुद्धि करे। स्थिर- तत्त्व (पृथ्वी), अस्थिर-तत्त्व (वायु), शीत-तत्त्व (जल), उष्ण-तत्त्व (अग्नि) तथा व्यापकता एवं एकतारूप आकाश-तत्त्व का भूतशुद्धि कर्म में चिन्तन करे। यह चिन्तन उन भूतों की शुद्धि के उद्देश्य से ही करना चाहिये। भूतों की ग्रन्थियों का छेदन करके उनके अधिपतियों या अधिष्ठाता देवताओं सहित उनके त्यागपूर्वक स्थितियोग के द्वारा उन्हें परम शिव में नियोजित करे। इस प्रकार शिष्य के शरीर का शोधन करके भावना द्वारा उसे दग्ध करे। फिर उसकी राख को भावना द्वारा ही अमृतकणों से आप्लावित करे। तदनन्तर उसमें आत्मा की स्थापना करके उसके विशुद्ध अध्वमय शरीर का निर्माण करे। उसमें पहले सम्पूर्ण अध्वों में व्यापक शुद्ध शान्त्यतीताकला का शिष्य के मस्तक पर न्यास करे। फिर शान्तिकला का मुख में, विद्याकला का गले से लेकर नाभिपर्यन्त भाग में, प्रतिष्ठाकला का उससे नीचे के अंगों में चिन्तन करे। तदनन्तर अपने बीजों सहित सूत्रमन्त्र का न्यास करके सम्पूर्ण अंगों सहित शिष्य को शिष्यस्वरूप समझे। फिर उसके हृदयकमल में महादेवजी का आवाहन करके पूजन करे। गुरु को चाहिये कि शिष्य में भगवान् शिव के स्वरूप की नित्य उपस्थिति मानकर शिव के तेज से तेजस्वी हुए उस शिष्य के अणिमा आदि गुणों का भी चिन्तन करे। फिर भगवान् शिव से 'आप प्रसन्न हों' ऐसा कहकर अग्नि में तीन आहुतियाँ दे। इसी प्रकार पुनः शिष्य के लिये निम्नांकित गुणों का ही उपपादन करे। सर्वज्ञता, तृप्ति, आदि-अन्त रहित बोध, अलुप्तशक्तिमत्ता, स्वतन्त्रता और अनन्त-शक्ति – इन गुणों की उसमें भावना करे।

इसके बाद महादेवजी से आज्ञा लेकर उन देवेश्वर का मन-ही-मन चिन्तन करते हुए सद्योजात आदि कलशों द्वारा क्रमशः शिष्य का अभिषेक करे। तदनन्तर शिष्य को अपने पास बिठाकर पूर्ववत् शिव की अर्चना करके उनकी आज्ञा ले। उस शिष्य को शैवी विद्या का उपदेश करे। उस शैवी विद्या के आदि में ओंकार हो। वह उस ओंकार से ही सम्पुटित हो और उसके अन्त में नमः लगा हुआ हो। वह विद्या शिव और शक्ति दोनों से संयुक्त हो। यथा ॐ ॐ नमः शिवाय ॐ नमः। इसी तरह शक्ति विद्या का भी उपदेश करे। यथा – ॐ ॐ नमः शिवायै ॐ नमः। इन विद्याओं के साथ ऋषि, छन्द, देवता, शिवा और शिव की शिवरूपता, आवरण पूजा तथा शिवसम्बन्धी आसनों का भी उपदेश दे। तत्पश्चात् देवेश्वर शिव का पुनः पूजन करके कहे – 'भगवन्! मैंने जो कुछ किया है, वह सब आप सुकृत रूप कर दें।' इस तरह भगवान् शिव से निवेदन करना चाहिये। तदनन्तर शिष्य सहित गुरु पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिरकर महादेवजी को प्रणाम करे। प्रणाम के अनन्तर उस मण्डल से और अग्नि से भी उनका विसर्जन कर दे। इसके बाद समस्त पूजनीय सदस्यों का क्रमशः पूजन करना चाहिये। सदस्यों और ऋत्विजों की अपने वैभव के अनुसार सेवा करनी चाहिये। साधक यदि अपना कल्याण चाहे तो धन खर्च करने में कंजूसी न करे।

(अध्याय १८)