समय-संस्कार या समयाचार की दीक्षा की विधि
उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! नाना प्रकार के दोषों से रहित शुद्ध स्थान और पवित्र दिन में गुरु पहले शिष्य का 'समय' नामक संस्कार करे। गन्ध, वर्ण और रस आदि से विधिपूर्वक भूमि की परीक्षा करके वास्तु-शास्त्र में बतायी हुई पद्धति से वहाँ मण्डप का निर्माण करे। मण्डप के बीच में वेदी बनाकर आठों दिशाओं में छोटे-छोटे कुण्ड बनाये। फिर ईशानकोण में या पश्चिम दिशा में प्रधानकुण्ड का निर्माण करे। एक ही प्रधान कुण्ड बनाकर चँदोवा, ध्वज तथा अनेक प्रकार की बहुसंख्यक मालाओं से उसको सजाये। तत्पश्चात् वेदी के मध्य-भाग में शुभ लक्षणों से युक्त मण्डल बनाये। लाल रंग के सुवर्ण आदि के चूर्ण से वह मण्डल बनाना चाहिये। मण्डल ऐसा हो कि उसमें ईश्वर का आवाहन किया जा सके। निर्धन मनुष्य सिन्दूर तथा अगहनी या तिन्नी के चावल के चूर्ण से मण्डल बनाये। उस मण्डप में एक या दो हाथ का श्वेत या लाल कमल बनाये। एक हाथ के कमल को कर्णिका आठ अंगुल की होनी चाहिये। उसके केसर चार अंगुल में हों और शेष भाग में अष्टदल आदि की कल्पना करे। दो हाथ के कमल की कर्णिका आदि एक हाथवाले से दुगुनी होनी चाहिये। उक्त वेदी या मण्डप के ईशानकोण में पुनः एक वेदी पर एक हाथ या आधे हाथ का मण्डल बनाये और उसे शोभाजनक सामग्रियों से सुशोभित करे। तत्पश्चात् धान, चावल, सरसों, तिल, फूल और कुशा से उस मण्डल को आच्छादित करके उसके ऊपर शुभ लक्षण से युक्त शिवकलश की स्थापना करे। वह कलश सोना, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी का होना चाहिये। उस पर गन्ध, पुष्प, अक्षत, कुश और दूर्वांकुर रखे जायँ, उसके कण्ठ में सफेद सूत लपेटा जाय और उसे दो नूतन वस्त्रों से आच्छादित किया जाय। उसमें शुद्ध जल भर दिया जाय। कलश में एक मुट्ठा कुश अग्रभाग ऊपर की ओर करके डाला जाय। सुवर्ण आदि द्रव्य छोड़ा जाय और उस कलश को ऊपर से ढक दिया जाय। उस आसनरूप कमल के उत्तर दल में सूत्र आदि के बिना झारी या गड़ुआ, वर्धनी (विशिष्ट जलपात्र), शंख, चक्र और कमलदल आदि सब सामग्री संग्रह करके रखे। उक्त आसनमण्डल के अग्रभाग में चन्दनमिश्रित जल से भरी हुई वर्धनी अस्त्रराज के लिये रखे। फिर मण्डल के पूर्वभाग में पूर्ववत् मन्त्रयुक्त कलश की स्थापना करके शिव की विधिपूर्वक महापूजा आरम्भ करे।
समुद्र या नदी के किनारे, गोशाला में, पर्वत के शिखर पर, देवालय में अथवा घर में या किसी भी मनोहर स्थान में मण्डपादि रचना के बिना पूर्वोक्त सब कार्य करे। फिर पूर्ववत् मण्डल और अग्नि को वेदी बनाकर गुरु प्रसन्न मुख से पूजा-भवन में प्रवेश करे। वहाँ सब प्रकार के मंगल-कृत्य का सम्पादन करके नित्यकर्म के अनुष्ठानपूर्वक मण्डल के मध्य-भाग में महेश्वर की महापूजा करने के अनन्तर पुनः शिवकलश पर शिव का आवाहन-पूजन करे। पश्चिमाभिमुख यज्ञरक्षक ईश्वर का ध्यान करके अस्त्रराज की वर्धनी में दक्षिण की ओर ईश्वर के अस्त्र की पूजा करे। फिर मन्त्रयुक्त कलश में मन्त्र तथा मुद्रा आदि का न्यास करके मन्त्रविशारद गुरु मन्त्र-याग करे। इसके बाद देशिकशिरोमणि गुरु प्रधान कुण्ड में शिवाग्नि की स्थापना करके उसमें होम करे। साथ ही दूसरे ब्राह्मण भी चारों ओर से उसमें आहुति डालें। आचार्य से आधे या चौथाई होम का उनके लिये विधान है। आचार्यशिरोमणि को प्रधान कुण्ड में ही हवन करना चाहिये। दूसरे लोगों को स्वाध्याय, स्तोत्र एवं मंगलपाठ करना चाहिये। अन्य शिवभक्त भी वहाँ विधिवत् जप करे। नृत्य, गीत, वाद्य एवं अन्य मंगल कृत्य भी होने चाहिये। सदस्यों का विधिवत् पूजन, पुण्याहवाचन तथा पुनः भगवान् शंकर का पूजन सम्पन्न करके शिष्य पर अनुग्रह करने की इच्छा मन में ले आचार्य महादेवजी से इस प्रकार प्रार्थना करे –
प्रसीद देवदेवेश देहमाविश्य मामकम्।
विमोचयैनं विश्वेश घृणया च घृणानिधे ॥
'देवदेवेश्वर! प्रसन्न होइये। विश्वनाथ! दयानिधे! मेरे शरीर में प्रवेश करके आप कृपापूर्वक इस शिष्य को बन्धनमक्त कराइये।।
तदनन्तर 'मैं ऐसा ही करूँगा' इस प्रकार इष्टदेव की अनुमति पाकर गुरु उस शिष्य को जिसने उपवास किया हो या हविष्य भोजन किया हो, अपने निकट बुलाये। वह शिष्य एक समय भोजन करनेवाला और विरक्त हो। स्नान करके प्रातःकाल का कृत्य पूरा कर चुका हो। मंगल-कृत्य का सम्पादन करके प्रणव का जप और महादेवजी का ध्यान कर रहा हो। उसे पश्चिम या दक्षिण द्वार के सामने मण्डल में कुश के आसन पर उत्तर की ओर मुँह करके बिठाये और गुरु स्वयं पूर्व की ओर मुँह करके खड़ा रहे। शिष्य ऊपर की ओर मुँह करके हाथ जोड़ ले। गुरु प्रोक्षणी के जल से शिष्य का प्रोक्षण करके उसके मस्तक पर अस्त्रमुद्राद्वारा फूल फेंककर मारे। फिर अभिमन्त्रित नूतन वस्त्र – आधे दुपट्टे से उसकी आँख बाँध दे। इसके बाद शिष्य को दरवाजे से मण्डल के भीतर प्रवेश कराये। शिष्य भी गुरु से प्रेरित हो शंकरजी की तीन बार प्रदक्षिणा करे। इसके बाद प्रभु को सुवर्णमिश्रित पुष्पांजलि चढ़ाकर पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिरकर साष्टांग प्रणाम करे। तदनन्तर मूलमन्त्र से गुरु शिष्य का प्रोक्षण करके पूर्ववत् अस्त्रमन्त्र के द्वारा उसके मस्तक पर फूल से ताड़न करने के पश्चात् नेत्र-बन्धन खोल दे। शिष्य पुनः मण्डल की ओर देखकर हाथ जोड़ प्रभु को प्रणाम करे। इसके बाद शिवस्वरूप आचार्य शिष्य को मण्डल के दक्षिण अपने बायें भाग में कुश के आसन पर बिठाये और महादेवजी की आराधना करके उसके मस्तक पर शिव का वरद हाथ रखे। 'मैं शिव हूँ' इस अभिमान से युक्त गुरु शिव के तेज से सम्पन्न अपने हाथ को शिष्य के मस्तक पर रखे और शिवमन्त्र का उच्चारण करे। उसी हाथ से वह शिष्य के सम्पूर्ण अंगों का स्पर्श करे। शिष्य भी आचार्यरूप में उपस्थित हुए ईश्वर को पृथ्वी पर गिरकर साष्टांग प्रणाम करे। तदनन्तर जब शिष्य शिवाग्नि में महादेवजी की विधिवत् पूजा करके तीन आहुति दे ले, तब गुरु पुनः पूर्ववत् शिष्य को अपने पास बिठा ले। कुशों के अग्रभाग से उसका स्पर्श करते हुए विद्या या मन्त्र द्वारा अपने-आपको उसके भीतर आविष्ट करे।
तत्पश्चात् महादेवजी को प्रणाम करके नाड़ी-संधान करे। फिर शिव-शास्त्र में बताये हुए मार्ग से प्राण का निष्क्रमण करके शिष्य के शरीर में प्रवेश की भावना करे, साथ ही मन्त्रों का तर्पण भी करे। मूलमन्त्र के तर्पण के लिये उसी के उच्चारणपूर्वक दस आहुतियाँ देनी चाहिये। फिर अंगों के तर्पण के लिये अंग-मन्त्रों द्वारा ही क्रमशः तीन आहुतियाँ दे। इसके बाद पूर्णाहुति देकर मन्त्रवेत्ता गुरु प्रायश्चित्त के निमित्त मूलमन्त्र से पुनः दस आहुतियाँ अग्नि में डाले। फिर देवेश्वर शिव का पूजन करके सम्यक् आचमन और हवन करने के पश्चात् यथोचित रीति से जातितः वैश्य का उद्धार करे। भावना द्वारा उसके वैश्यत्व को निकालकर उसमें क्षत्रियत्व की उत्पत्ति करे। फिर इसी तरह क्षत्रियत्व का भी उद्धार करके गुरु उसमें ब्राह्मणत्व की उद्भावना करे। इसी प्रणाली से जातितः क्षत्रिय का भी उद्धार करके ब्राह्मण बनाये। फिर उन दोनों शिष्यों में रुद्रत्व की उत्पत्ति करे। जो जाति से ही ब्राह्मण है, उस शिष्य में केवल रुद्रत्व की ही स्थापना क्र। फिर शिष्य का प्रोक्षण और ताड़न करके उसके आग की चिनगारियों के समान प्रकाशमान शिवस्वरूप आत्मा को अपने आत्मा में स्थित होने की भावना करे। तदनन्तर पूर्वोक्त नाड़ी से गुरु-मन्त्रोच्चारण पूर्वक् वायु का रेचन (निःसारण) करे। वायु का निःसारण करके उस नाड़ी के द्वारा ही शिष्य के हृदय में वह स्वयं प्रवेश करे। प्रवेश करके उसके चैतन्य का नील बिन्दु के समान चिन्तन करे। साथ ही यह भावना करे कि मेरे तेज से इसका सारा मल नष्ट हो गया और यह पूर्णतः प्रकाशित हो रहा है। इसके बाद उस जीव-चैतन्य को लेकर नाड़ी से संहारमुद्रा एवं पूरक प्राणायाम द्वारा अपने आत्मा से एकीभूत करने के लिये उसमें निविष्ट करे। फिर रेचक की ही भाँति कुम्भक द्वारा उसी नाड़ी से उस जीव-चैतन्य को वहाँ से लेकर शिष्य के हृदय में स्थापित कर दे। तत्पश्चात् शिष्य का स्पर्श करके शिव से उपलब्ध हुए यज्ञोपवीत को उसे देकर गुरु तीन बार आहुति दे पूर्णाहुति होम करे। इसके बाद आराध्यदेव के दक्षिण भाग में शिष्य को कुश तथा फूल से आच्छादित करके श्रेष्ठ आसन पर बिठाकर उसका मुँह उत्तर की ओर करके उसे स्वस्तिकासन में स्थित करे। शिष्य गुरु की ओर हाथ जोड़े रहे। गुरु स्वयं पूर्वाभिमुख हो एक श्रेष्ठ आसन पर खड़ा रहे और पहले से ही स्थापनपूर्वक सिद्ध किये हुए पूर्ण घट को लेकर शिव का ध्यान करते हुए मन्त्रपाठ तथा मांगलिक वाद्यों की ध्वनि के साथ शिष्य का अभिषेक करे। तदनन्तर शिष्य उस अभिषेक के जल को पोंछकर श्वेत वस्त्र धारण करं, आचमन करके अलंकृत हो हाथ जोड़ मण्डप में जाय। तब गुरु पहले की भाँति उसे कुशासन पर बिठाकर मण्डल में महादेवजी की पूजा करके करन्यास करे। इसके बाद मन-ही-मन महादेवजी का ध्यान करते हुए दोनों हाथों में भस्म ले शिष्य के अंगों में लगाये और शिब-मन्त्र का उच्चारण करे।
तदनन्तर शिवाचार्य मातृकान्यास के मार्ग से शिष्य का दहन-प्लावनादि सकलीकरण करके उसके मस्तक पर शिव के आसन का ध्यान करे और वहाँ शिव का आवाहन करके यथोचित रीति से उनकी मानसिक पूजा करे। तत्पश्चात् हाथ जोड़ महादेवजी की प्रार्थना करे – 'प्रभो! आप नित्य यहाँ विराजमान हों।' इस तरह प्रार्थना करके मन-ही-मन यह भावना करे कि शिष्य भगवान् शंकर के तेज से प्रकाशित हो रहा है। इसके बाद पुनः शिव की पूजा करके शिवारूपिणी शैवी आज्ञा प्राप्त करके गुरु शिष्य के कान में धीरे-धीरे शिवमन्त्र का उच्चारण करे। शिष्य हाथ जोड़े हुए उस मन्त्र को सुनकर उसी में मन लगा शिवाचार्य की आज्ञा के अनुसार धीरे-धीरे उसकी आवृत्ति करे। फिर मन्त्र-ज्ञानकुशल आचार्य शाक्त-मन्त्र का उपदेश दे, उसका सुखपूर्वक उच्चारण करवाकर शिष्य के प्रति मंगलाशंसा करे। तत्पश्चात् संक्षेप से वाच्य-वाचक योग के अनुसार ईश्वररूप मन्त्र का उपदेश देकर योगासन की शिक्षा दे। तदनन्तर शिष्य गुरु की आज्ञा से शिव, अग्नि तथा गुरु के समीप भक्तिभाव से प्रतिज्ञापूर्वक निम्नांकितरूप से दीक्षावाक्य का उच्चारण करे –
वरं प्राण परित्यागश्छेदनं शिरसोऽपि वा।
न त्वनभ्यर्च्य भुञ्जीय भगवन्तं त्रिलोचनम्॥
'मेरे लिये प्राणों का परित्याग कर देना अच्छा होगा अथवा सिर कटा देना भी अच्छा होगा; किंतु मैं भगवान् त्रिलोचन की पूजा किये बिना कभी भोजन नहीं कर सकता।'
जब तक मोह दूर न हो, तब तक वह भगवान् शिव में ही निष्ठा रखकर उन्हीं के आश्रित हो नियमपूर्वक उन्हीं की आराधना करता रहे। फिर भगवान् शिव ही उसे योगक्षेम प्रदान करते हैं। ऐसा करने से उस शिष्य का नाम 'समय' होगा। उसे शिवाश्रम में रहने का अधिकार प्राप्त होगा। वहाँ रहनेवाले शिष्य को गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए सदा उनके वश में रहना चाहिये। इसके बाद गुरु करन्यास करके अपने हाथ से भस्म लेकर मूलमन्त्र का उच्चारण करते हुए उस भस्म तथा रुद्राक्ष को अभिमन्त्रित करके शिष्य के हाथ में दे दे। साथ ही महादेवजी की प्रतिमा अथवा उनका गूढ़ शरीर (लिंग) और यथासम्भव पूजा, होम, जप एवं ध्यान के साधन भी दे। फिर वह शिष्य भी शिवाचार्य से प्राप्त हुई उन बस्तुओं को उन्हीं की आज्ञा से बड़े आदर के साथ ग्रहण करे। उनकी आज्ञा का उल्लंघन न करे, आचार्य से प्राप्त हुई सारी वस्तुओं को भक्तिभाव से सिर पर रखकर ले जाय और उनकी रक्षा करे। अपनी रुचि के अनुसार मठ में या घर में शंकरजी की पूजा करता रहे, इसके बाद गुरु भक्ति, श्रद्धा और बुद्धि के अनुसार शिष्य को शिवाचार्य की शिक्षा दे। शिवाचार्य ने समयाचार के विषय में जो कुछ कहा हो, जो आज्ञा दी हो तथा और भी जो कुछ बातें बतायी हों, उन सबको शिष्य शिरोधार्य करे। गुरु के आदेश से ही वह शिवागम का ग्रहण, पठन और श्रवण करे। न तो अपनी इच्छा से करे और न दूसरे की प्रेरणा से ही। इस प्रकार मैंने संक्षेप से समयाख्य-संस्कार – समयाचार की दीक्षा का वर्णन किया है। यह मनुष्यों को साक्षात् शिवधाम की प्राप्ति कराने के लिये सबसे उत्तम साधन है।
(अध्याय १६)