त्रिविध दीक्षा का निरूपण, शक्तिपात की आवश्यकता तथा उसके लक्षणों का वर्णन, गुरु का महत्त्व, ज्ञानी गुरु से ही मोक्ष की प्राप्ति तथा गुरु के द्वारा शिष्य की परीक्षा

श्रीकृष्ण बोले – भगवन्! आपने मन्त्र का माहात्म्य तथा उसके प्रयोग का विधान बताया, जो साक्षात् वेद के तुल्य है। अब मैं उत्तम शिव-संस्कार की विधि सुनना चाहता हूँ, जिसे मन्त्र-ग्रहण के प्रकरण में आपने कुछ सूचित किया था। वह बात मुझे भूली नहीं है।

उपमन्यु ने कहा – अच्छा, मैं तुम्हें शिव द्वारा कथित परम पवित्र संस्कार का विधान बता रहा हूँ, जो समस्त पापों का शोधन करनेवाला है। मनुष्य जिसके प्रभाव से पूजा आदि में उत्तम अधिकार प्राप्त कर लेता है, उस षडध्वशोधन कर्म को संस्कार कहते हैं। संस्कार अर्थात् शुद्धि करने से ही उसका नाम संस्कार है। यह विज्ञान देता है और पाशबन्धन को क्षीण करता है। इसलिये इस संस्कार को ही दीक्षा भी कहते हैं। शिवशास्त्र में परमात्मा शिव ने 'शाम्भवी', 'शाक्ती' और 'मान्त्री' तीन प्रकार की दीक्षा का उपदेश किया है। गुरु के दृष्टिपात मात्र से, स्पर्श से तथा सम्भाषण से भी जीव को जो तत्काल पाशों का नाश करने वाली संज्ञा सम्यक् बुद्धि प्राप्त होती है, वह शाम्भवी दीक्षा कहलाती है। उस दीक्षा के भी दो भेद हैं – तीव्रा और तीव्रतरा। पाशों के क्षीण होने में जो शीघ्रता या मन्दता होती है, उसी के भेद से ये दो भेद हुए हैं। जिस दीक्षा से तत्काल सिद्धि या शान्ति प्राप्त होती है, वही तीव्रतरा मानी गयी है। जीवित पुरुष के पाप का अत्यन्त शोधन करने वाली जो दीक्षा है, उसे तीव्रा कहा गया है। गुरु योगमार्ग से शिष्य के शरीर में प्रवेश करके ज्ञानदृष्टि से जो ज्ञानवती दीक्षा देते हैं, वह शाक्ती कही गयी है। क्रियावती दीक्षा को मान्त्री दीक्षा कहते हैं। इसमें पहले होमकुण्ड और यज्ञमण्डप का निर्माण किया जाता है। फिर गुरु बाहर से मन्द या मन्दतर उद्देश्य को लेकर शिष्य का संस्कार करते हैं। शक्तिपात के अनुसार शिष्य गुरु के अनुग्रह का भाजन होता है। शैव-धर्म का अनुसरण शक्तिपात-मूलक है; अतः संक्षेप से उसके विषय में निवेदन किया जाता है। जिस शिष्य में गुरु की शक्ति का पात नहीं हुआ, उसमें शुद्धि नहीं आती तथा उसमें न तो विद्या, न शिवाचार, न मुक्ति और न सिद्धियाँ ही होती हैं; अतः प्रचुर शक्तिपात के लक्षणों को देखकर गुरु ज्ञान अथवा क्रिया के द्वारा शिष्य का शोधन करे। जो मोहवश इसके विपरीत आचरण करता है, वह दुर्बुद्धि नष्ट हो जाता है; अतः गुरु सब प्रकार से शिष्य का परीक्षण करे। उत्कृष्ट बोध और आनन्द की प्राप्ति ही शक्तिपात का लक्षण है; क्योंकि वह परमाशक्ति प्रबोधानन्दरूपिणी ही है। आनन्द और बोध का लक्षण है अन्तःकरण में (सात्त्विक) विकार। जब अन्तःकरण द्रवित होता है, तब बाह्य शरीर में कम्प, रोमांच, स्वरविकार, नेत्रविकार और अंगविकार प्रकट होते हैं। [ * १. कण्ठ से गद्गदवाणी का प्रकट होना। २. नेत्रों से अश्रुपात होना। ३. शरीर में स्तम्भ (जड़ता) तथा स्वेद आदि का उदय होना।]

शिष्य भी शिवपूजन आदिय में गुरु का सम्पर्क प्राप्त करके अथवा उनके साथ रह करके उनमें प्रकट होनेवाले इन लक्षणों से गुरु की परीक्षा करे। शिष्य गुरु का शिक्षणीय होता है और उसका गुरु के प्रति गौरव होता है। इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके शिष्य ऐसा आचरण करे, जो गुरु के गौरव के अनुरूप हो। जो गुरु है, वह शिव कहा गया है और जो शिव है, वह गुरु माना गया है। विद्या के आकार में शिव ही गुरु बनकर विराजमान हैं। जैसे शिव हैं, वैसी विद्या है। जैसी विद्या है, वैसे गुरु हैं। शिव, विद्या और गुरु के पूजन से समान फल मिलता है। शिव सर्वदेवात्मक हैं और गुरु सर्वमन्त्रमय। अतः सम्पूर्ण यत्न से गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य करना चाहिये। यदि मनुष्य अपना कल्याण चाहनेवाला और बुद्धिमान् है तो वह गुरु के प्रति मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी मिथ्याचार – कपटपूर्ण बर्ताव न करे। गुरु आज्ञा दें या न दें, शिष्य सदा उनका हित और प्रिय करे। उनके सामने और पीठ-पीछे भी उनका कार्य करता रहे। ऐसे आचार से युक्त गुरुभक्त और सदा मन में उत्साह रखनेवाला जो गुरु का प्रिय कार्य करनेवाला शिष्य है, वही शैव धर्मों के उपदेश का अधिकारी है। यदि गुरु गुणवान्, विद्वान्, परमानन्द का प्रकाशक, तत्त्ववेत्ता और शिवभक्त है तो वही मुक्ति देनेवाला है, दूसरा नहीं। ज्ञान उत्पन्न करनेवाला जो परमानन्दजनित तत्त्व है, उसे जिसने जान लिया है, वही आनन्द का साक्षात्कार करा सकता है। ज्ञानरहित नाममात्र का गुरु ऐसा नहीं कर सकता।

नौकाएँ एक-दूसरी को पार लगा सकती हैं, किंतु क्या कोई शिला दूसरी शिला को तार सकती है? नाम मात्र के गुरु से नाम मात्र की ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। जिन्हें तत्त्व का ज्ञान है, वे ही स्वयं मुक्त होकर दूसरों को भी मुक्त करते हैं। तत्त्वहीन को कैसे बोध होगा और बोध के बिना कैसे 'आत्मा' का अनुभव होगा? जो आत्मानुभव से शून्य है, वह 'पशु' कहलाता है। पशु की प्रेरणा से कोई पशुत्व को नहीं लाँघ सकता; अतः तत्त्वज्ञ पुरुष ही 'मुक्त' और 'मोचक' हो सकता है, अज्ञ नहीं। समस्त शुभ लक्षणों से युक्त, सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता तथा सब प्रकार के उपाय-विधान का जानकार होने पर भी जो तत्त्वज्ञान से हीन है, उसका जीवन निष्फल है। जिस पुरुष को अनुभवपर्यन्त बुद्धि तत्त्व के अनुसंधान में प्रवृत्त होती है, उसके दर्शन, स्पर्श आदि से परमानन्द की प्राप्ति होती है। अतः जिसके सम्पर्क से ही उत्कृष्ट बोधस्वरूप आनन्द की प्राप्ति सम्भव हो, बुद्धिमान् पुरुष उसी को अपना गुरु चुने, दूसरे को नहीं। योग्य गुरु का जब तक अच्छी तरह ज्ञान न हो जाय, तब तक विनयाचार-चतुर मुमुक्षु शिष्यों को उनकी निरन्तर सेवा करनी चाहिये। उनका अच्छी तरह ज्ञान-सम्यक् परिचय हो जाने पर उनमें सुस्थिर भक्ति करे। जब तक तत्त्व का बोध न प्राप्त हो जाय, तब तक निरन्तर गुरुसेवन में लगा रहे। तत्त्व को न तो कभी छोड़े और न किसी तरह भी उसकी उपेक्षा ही करे। जिसके पास एक वर्ष तक रहने पर भी शिष्य को थोड़े से भी आनन्द और प्रबोध की उपलब्धि न हो, वह शिष्य उसे छोड़कर दूसरे गुरु का आश्रय ले।

गुरु को भी चाहिये कि वह अपने आश्रित ब्राह्मणजातीय शिष्य की एक वर्ष तक परीक्षा करे। क्षत्रिय शिष्य की दो वर्ष और वैश्य की तीन वर्ष तक परीक्षा करे। प्राणों को संकट में डालकर सेवा करने और अधिक धन देने आदि का अनुकूल-प्रतिकूल आदेश देकर, उत्तम जातिवालों को छोटे काम में लगाकर और छोटों को उत्तम काम में नियुक्त करके उनके धैर्य और सहनशीलता की परीक्षा करे। गुरु के तिरस्कार आदि करने पर भी जो विषाद को नहीं प्राप्त होते, वे ही संयमी, शुद्ध तथा शिव-संस्कार कर्म के योग्य हैं। जो किसी की हिंसा नहीं करते, सबके प्रति दयालु होते, सदा हृदय में उत्साह रखकर सब कार्य करने को उद्यत रहते; अभिमान-शून्य, बुद्धिमान् और स्पर्धारहित होकर प्रिय वचन बोलते; सरल, कोमल, स्वच्छ, विनयशील, सुस्थिरचित्त, शौचाचार से संयुक्त और शिवभक्त होते, ऐसे आचार-व्यवहारवाले द्विजातियों को मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा यथोचित रीति से शुद्ध करके तत्त्व का बोध कराना चाहिये, यह शास्त्रों का निर्णय है। शिव-संस्कार कर्म में नारी का स्वतः अधिकार नहीं है। यदि वह शिवभक्त हो तो पति की आज्ञा से ही उक्त संस्कार की अधिकारिणी होती है। विधवा स्त्री का पुत्र आदि की अनुमति से और कन्या का पिता की आज्ञा से शिव-संस्कार में अधिकार होता है। शूद्रों, पतितों और वर्णसंकरों के लिये षडध्वशोधन (शिव-संस्कार) का विधान नहीं है। वे भी यदि परमकारण शिव में स्वाभाविक अनुराग रखते हों तो शिव का चरणोदक लेकर अपने पापों की शुद्धि करें।

(अध्याय १५)