प्रयाग में ऋषियों द्वारा सम्मानित सूतजी के द्वारा कथा का आरम्भ, विद्यास्थानों एवं पुराणों का परिचय तथा वायुसंहिता का प्रारम्भ
व्यास उवाच
नमः शिवाय सोमाय सगणाय ससूनवे ।
प्रधानपुरुषेशाय सर्गस्थित्यन्तहेतवे ॥
शक्तिरप्रतिमा यस्य ह्यैश्वर्यं चापि सर्वगम् ।
स्वामित्वं च विभुत्वं च स्वभावं सम्प्रचक्षते ॥
तमजं विश्वकर्माणं शाश्वतं शिवमव्ययम् ।
महादेवं महात्मानं व्रजामि शरणं शिवम्॥
व्यासजी कहते हैं – जो जगत् की सृष्टि, पालन और संहार के हेतु तथा प्रकृति और पुरुष के ईश्वर हैं, उन प्रमथगण, पुत्रद्वय तथा उमा सहित भगवान् शिव को नमस्कार है। जिनकी शक्ति की कहीं तुलना नहीं है, जिनका ऐश्वर्य सर्वत्र व्यापक है तथा स्वामित्त और विभुत्व जिनका स्वभाव कहा गया है, उन विश्वस्त्रष्टा, सनातन, अजन्मा, अविनाशी, महान् देव, मंगलमय परमात्मा शिव की मैं शरण लेता हूँ।
जो धर्म का क्षेत्र और महान् तीर्थ है, जहाँ गंगा और यमुना का संगम हुआ है तथा जो ब्रह्मलोक का मार्ग है, उस प्रयाग में शुद्ध हृदयवाले सत्यव्रतपरायण महातेजस्वी एवं महाभाग मुनियों ने एक महान् यज्ञ का आयोजन किया। वहाँ क्लेशरहित कर्म करनेवाले उन महात्माओं के यज्ञ का समाचार सुनकर निपुण कथावाचक, त्रिकालवेत्ता, उत्तम नीति के ज्ञाता तथा क्रान्तदर्शी विद्वान् पौराणिकशिरोमणि सूतजी उस स्थान पर आये। सूतजी को आते देख मुनियों का मन प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने उनसे सान्त्वनापूर्ण मधुर बातें कहकर उनकी यथायोग्य पूजा की। मुनियों द्वारा की हुई उस पूजा को ग्रहण करके सूतजी ने उनकी प्रेरणा से अपने लिये बताये गये उपयुक्त आसन को स्वीकार किया। उस समय महर्षियों ने अनुकूल वचनों द्वारा उनका सत्कार करते हुए उन्हें अत्यन्त अभिमुख करके यह बात कही।
ऋषि बोले – शिवभक्तशिरोमणि महाबुद्धिमान् महाभाग रोमहर्षणजी! आप सर्वज्ञ हैं और हमारे महान् सौभाग्य से यहाँ पधारे हैं। तीनों लोकों में ऐसी कोई बात नहीं है, जो आपको विदित न हो। आप भाग्यवश हमें दर्शन देने के लिये स्वयं यहाँ आ गये हैं। अतः अब हमारा कोई कल्याण किये बिना आपको यहाँ से व्यर्थ नहीं जाना चाहिये। इसलिये आप हमें शीघ्र वह पवित्र पुराण सुनायें, जो अत्यन्त श्रवणीय, उत्तम कथा और ज्ञान से युक्त तथा वेदान्त के सारसर्वस्व से सम्पन्न हो। वेदवादी मुनियों ने जब इस प्रकार प्रार्थाना की, तब सूतजी ने मधुर, न्याययुक्त एवं शुभ वचनों में उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया।
सूतजी ने कहा – महर्षियों! आपने मेरा सत्कार किया और मुझ पर कृपा की है, ऐसी दशा में आपसे प्रेरित होकर मैं आपके समक्ष महर्षियों द्वारा सम्मानित पुराण का भलीभाँति प्रवचन क्यों नहीं करूँगा। अब मैं महादेवजी, देवी पार्वती, कुमार स्कन्द, गणेशजी, नन्दी तथा सत्यवती कुमार साक्षात् भगवान् व्यास को प्रणाम करके उस परम पवित्र वेदतुल्य पुराण की कथा कहूँगा, जो शिवतत्त्व के ज्ञान का सागर है और भोग एवं मोक्षरूपी फल देनेवाला साक्षात् साधन है। विद्या के सम्पूर्ण स्थानों का, पुराणों की संख्या का और उनकी उत्पत्ति का विवरण दे रहा हूँ। आप लोग मुझसे इस विषय को ध्यानपूर्वक सुनें। छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, विस्तृत न्यायशास्त्र, पुराण और धर्मशास्त्र – ये चौदह विद्याएं हैं। इनके साथ आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और उत्तम अर्थशास्त्र को भी गिन लिया जाय तो ये विद्याएं अठारह हो जाती हैं। इन अठारह विद्याओं के मार्ग एक-दूसरे से भिन्न हैं। इन सबके निर्माता त्रिकालदर्शी विद्वान् साक्षात् भगवान् शूलपाणि शिव हैं, ऐसा श्रुति का कथन है। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी उन भगवान् शिव को जब समस्त संसार की सृष्टि करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने सबसे पहले अपने सनातन पुत्र साक्षात् ब्रह्माजी को उत्पन्न किया और अपने उन प्रथम पुत्र, विश्वयोनि ब्रह्मा को परमेश्वर शिव ने जगत् की सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने के लिये पहले ये सब विद्याएँ दीं। उसके बाद उन्होंने पालन करने के लिये भगवान् श्रीहरि को नियुक्त किया और उन्हें जगत् की रक्षा के लिये शक्ति प्रदान की। वे भगवान् विष्णु ब्रह्मजी के भी पालक हैं। ब्रह्माजी विद्या प्राप्त करके जब प्रजा की सृष्टि के विस्तार कार्य में लगे, तब उन्होंने सम्पूर्ण शास्त्रों में पहले पुराण को ही स्मरण किया और उन्हीं को वे प्रकाश में लाये। पुराणों के प्रकट होने के अनन्तर उनके चार मुखों से चारों वेदों का प्रादुर्भाव हुआ। फिर उन्हीं के मुख से सम्पूर्ण शास्त्रों की प्रवृत्ति हुई।
द्वापर में भगवान् श्रीहरि सत्यवती के गर्भ से उसी तरह प्रकट हुए, जैसे अरणि से आग प्रकट होती है। उस समय उनका नाम श्रीकृष्णद्वैपायन हुआ। मुनिवर! श्रीकृष्णद्वैपायन ने वेदों को संक्षिप्त करके उन्हें चार भागों में विभक्त किया। इस प्रकार चार भागों में वेदों का व्यास (विस्तार) करने से वे लोक में वेदव्यास के नाम से विख्यात हुए। इसी तरह उन्होंने पुराणों को संक्षिप्त करके चार लाख श्लोकों में सीमित किया। आज भी देवलोक में पुराणों का विस्तार सौ कोटि श्लोकों में है। जो द्विज छहों अंगों और उपनिषदों सहित चारों वेदों को तो जानता है किन्तु पुराण को नहीं जानता, वह श्रेष्ठ विद्वानू नहीं हो सकता। इतिहास और पुराणों से वेद की व्याख्या करे। जिसका ज्ञान बहुत कम है अर्थात् जो पौराणिक ज्ञास से शून्य है, ऐसे पुरुष से वेद यह सोचकर डरता है कि यह मुझ पर प्रहार कर बैठेगा। सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित – ये पुराण के पाँच लक्षण हैं। छोटे और बड़े के भेद से अठारह पुराण बताये गये हैं।
१. ब्रह्मपुराण, २. पद्मापुराण, ३. विष्णुपुराण, ४. शिवपुराण, ५. भागवतपुराण, ६. भविष्यपुराण, ७. नारदपुराण, ८. मार्कण्डेयपुराण, ९. अग्निपुराण, १०. ब्रह्मवैवर्तपुराण, ११. लिंगपुराण, १२. वाराहपुराण, १३. स्कन्दपुराण, १४. वामनपुराण, १५. कूर्मपुराण, १६. मत्स्यपुराण, १७. गरुडपुराण और १८. ब्रह्माण्डपुराण – यह पुराणों का पवित्र क्रम है। इसमें शिवपुराण चौथा है, जो भगवान् शिव से सम्बन्ध रखता है और सब मनोरथों का साधक है। इस ग्रन्थ की श्लोकसंख्या एक लाख है और यह बारह संहिताओं में विभक्त है। इसका निर्माण साक्षात् भगवान् शिव ने ही किया है तथा इसमें धर्म प्रतिष्ठित है। वेदव्यास ने इस एक लाख श्लोकवाले शिवपुराण को संक्षिप्त करके चौबीस हजार श्लोकों का कर दिया है। इसमें सात संहिताएँ हैं। पहली विद्येश्वरसंहिता, दूसरी रुद्रसंहिता, तीसरी शतरुद्रसंहिता, चौथी कोटिरुद्रसंहिता, पाँचवीं उमासंहिता, छठी कैलाससंहिता और सातवीं वायवीयसंहिता है। इस प्रकार इसमें सात ही संहिताएँ हैं। विद्येश्वरसंहिता में दो हजार, रुद्रसंहिता में दस हजार पाँच सौ, शतरुद्रसंहिता में दो हजार एक सौ अस्सी, कोटिरुद्रसंहिता में दो हजार दो सौ चालीस, उमासंहिता में एक हजार आठ सौ चालीस, कैलाससंहिता में एक हजार दो सौ चालीस और वायवीयसंहिता में चार हजार श्लोक हैं। इस परम पवित्र शिवपुराण को आप लोगों ने सुन लिया। केवल चार हजार श्लोकों की वायवीयसंहिता रह गयी है, जो दो भागों से युक्त है। उसका वर्णन मैं करूँगा। जो वेदों का विद्वान न हो, उससे इस उत्तम शास्त्र का वर्णन नहीं करना चाहिये। जो पुराणों को न जानता हो और जिसकी पुराण पर श्रद्धा न हो उससे भी इसकी कथा नहीं कहनी चाहिये। जो भगवान् शिव का भक्त हो, शिवोक्त धर्म का पालन करता हो और दोषदृष्टि से रहित हो, उस जाँचे-बूझे हुए धर्मात्मा शिष्य को ही इसका उपदेश देना चाहिये। जिनकी कृपा से मुझको पुराणसंहिता का ज्ञान है, उन अमिततेजस्वी भगवान् व्यास को नमस्कार है।
(अध्याय १)