यति के द्वादशाह-कृत्य का वर्णन, स्कन्द और वामदेव का कैलास पर्वत पर जाना तथा सूतजी के द्वारा इस संहिता का उपसंहार
स्कन्दजी कहते हैं – वामदेव! बारहवें दिन प्रातःकाल उठकर श्राद्धकर्ता पुरुष स्नान और नित्यकर्म करके शिवभक्तों, यतियों अथवा शिक के प्रति प्रेम रखने वाले ब्राह्मणों * को निमन्त्रित करे।
[ * धर्मसिन्धु के अनुसार सोलह ब्राह्मणों को निमन्त्रित करना चाहिये। इनमें से चार तो गुरु, परमगुरु, परमेष्ठिगुरु और परात्पर गुरु के लिये होते हैं और बारह ब्राह्मणों की केशवादि नामों से पूजा होती है। परंतु इस पुराण में दिये गये वर्णन के अनुसार बारह ब्राह्मणों को निमन्त्रित करना आवश्यक है।]
मध्याहनकाल में स्नान करके पवित्र हुए उन ब्राह्मणों को बुलाकर भक्तिभाव से विधिपूर्वक भाँति-भाँति के स्वादिष्ठ अन्न भोजन कराये। फिर परमेश्वर के निकट बिठाकर पंचावरण-पद्धति से उनका पूजन करे। तत्पश्चात् मौनभाव से प्राणायाम करके देश-काल आदि के कीर्तनपूर्वक महान् संकल्प की प्रणाली के अनुसार संकल्प करते हुए – 'अस्मद्गुरोरिह पूजां करिष्ये (मैं अपने गुरु की यहाँ पूजा करूँगा)' ऐसा कहकर कुशों का स्पर्श करे। फिर ब्राह्मणों के पैर धोकर आचमन करके श्राद्धकर्ता मौन रहे और भस्म से विभूषित उन ब्राह्मणों को पूर्वाभिमुख आसन पर बिठाये। वहाँ सदाशिव आदि के क्रम से उन आठ ब्राह्मणों का बड़े आदर के साथ चिन्तन करे अर्थात उन्हें सदाशिव आदि का स्वरूप माने। मुने! अन्य चार ब्राह्मणों का भी चार गुरुओं के रूप में चिन्तन करे। चारों गुरु ये हैं – गुरु, परम गुरु, परात्यर गुरु और परमेष्ठी गुरु। परमेष्ठी गुरु का उनमें उमा सहित महेश्वर की भावना करते हुए चिन्तन करे। अपने गुरु का नाम लेकर ध्यान करे। उन सबके लिये 'इदमासनम्' ऐसा कहकर पथक्-पथक् आसन रखे। आदि में प्रणव, बीच में द्वितीयान्त गुरु तथा अन्त में 'आवाहयामि नमः' बोलकर आवाहन करे। यथा – ॐ अमुकनामानं गुरुम् आवाहयामि नमः। ॐ परमगुरुम् आवाहयामि नमः। ॐ परात्परगुरुम् आवाहयामि नमः। ॐ परमेष्ठिगुरुम् आवाहयामि नमः। इस प्रकार आवाहन करके अर्घोदक (अर्घे में रखे हुए जल) से पाद्य, आचमन और अर्घध्य निवेदन करे। फिर वस्त्र, गन्ध और अक्षत देकर 'ॐ गुरवे नमः' इत्यादि रूप से गुरुओं को तथा 'ॐ सदाशिवाय नमः' इत्यादि रूप से आठ नामों के उच्चारणपूर्वक आठ अन्य ब्राह्मणों को सुगन्धित फूलों से अलंकृत करे। तत्पश्चात् धूप, दीप देकर 'कृतमिदं सकलमाराधनं सम्पूर्णमस्तु (की गयी यह सारी आराधना पूर्ण रूप से सफल हो)' ऐसा कहकर खड़ा हो नमस्कार करे। इसके बाद केले के पत्तों को पात्ररूप में बिछाकर जल से शुद्ध करक उन पर शुद्ध अन्न, खीर, पूआ, दाल और साग आदि व्यंजन परोसकर केले के फल, नारियल और गुड़ भी रखे। पात्रों को रखने के लिये आसन भी अलग-अलग दे। उन आसनों का क्रमशः प्रोक्षण करके उन्हें यथास्थान रखे। फिर भोजनपात्र का भी प्रोक्षण एवं अभिषेक करके हाथ से उसका स्पर्श करते हुए कहे – 'विष्णों! हव्यमिदं रक्षस्व (है विष्णो! इस हविष्य को आप सुरक्षित रखें)' फिर उठकर उन ब्राह्मणों को पीने के लिये जल देकर उनसे इस प्रकार प्रार्थना करे – 'सदाशिवादयो मे प्रीता वरदा भवन्तु (सदाशिव आदि मुझ पर प्रसन्न हो अभीष्ट वर देने वाले हों)'।
इसके बाद 'ये देवा' (शु० यजु० १७। १३-१४) आदि मन्त्र का उच्चारण करके अक्षत सहित इस अन्न का त्याग करे। फिर नमस्कार करके उठे और 'सर्वत्राकृतमस्तु।' ऐसा कहकर ब्राह्मणों को संतुष्ट करके 'गणानां त्वा' (शु० यजु० २३। १९) इस मन्त्र का पहले पाठ करके चारों वेदों के आदिमन्त्रों का, रुद्राध्याय का, चमकाध्याय का, रुद्रसूक्त का तथा सद्योजातादि पाँच ब्रह्ममन्त्रों का पाठ करे। ब्राह्माण-भोजन के अन्त में भी यथासम्भव मन्त्र बोले और अक्षत छोड़े, फिर आचमनादि जल दे। हाथ-पैर और मुह धोने के लिये भी जल अर्पित करे। आचमन के पश्चात् सब ब्राह्मणों को सुखपूर्वक आसनों पर बिठाकर शुद्ध जल देने के अनन्तर मुखशुद्धि के लिये यथोचित कपूर आदि से युक्त ताम्बुल अर्पित करे। फिर दक्षिणा, चरणपादुका, आसन, छाता, व्यजन, चौकी और बाँस की छड़ी देकर परिक्रमा और नमस्कार के द्वारा उन ब्राह्मणों को संतुष्ट करे तथा उनसे आशीर्वाद ले। पुनः प्रणाम करके गुरु के प्रति अविचल भक्ति के लिये प्रार्थना करे। तत्पश्चात् विसर्जन की भावना से कहे – 'सदाशिवादयः प्रीता यथासुखं गच्छन्तु' (सदाशिव आदि संतुष्ट हो सुखपूर्वक यहाँ से पधारें)। इस प्रकार विदा करके दरवाजे तक उनके पीछे-पीछे जाय। फिर उनके रोकने पर आगे न जाकर लौट आये। लौटकर द्वार पर बैठे हुए ब्राह्मणों, बन्धुजनों, दीनों और अनाथों के साथ स्वयं भी भोजन करके सुखपूर्वक रहे। ऐसा करने से उसमें कहीं भी विकृति नहीं हो सकती। यह सब सत्य है, सत्य है और बारंबार सत्य है। इस प्रकार प्रतिवर्ष गुरु की उत्तम आराधना करनेवाला शिष्य इस लोक में महान् भोगों का उपभोग करके अन्त में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है।
मुने! यह साक्षात् भगवान् शिव का कहा हुआ उत्तम रहस्य है, जो वेदान्त के सिद्धान्त से निश्चित किया गया है। तुमने मुझसे जो कुछ सुना है, उसे विद्वान् पुरुष तुम्हारा ही मत कहेंगे। अतः यति इसी मार्ग से चलकर 'शिवोऽहमस्मि' (मैं शिव हूँ) इस रूप में आत्मस्वरूप शिव की भावना करता हुआ शिवरूप हो जाता है।
सूतजी कहते हैं – इस प्रकार मुनीश्वर वामदेव को उपदेश देकर दिव्य ज्ञानदाता गुरु देवेश्वर कार्तिकेय पिता-माता के सर्वदेव-वन्दित चरणारविन्दों का चिन्तन करते हुए अनेक शिखरों से आवृत, शोभाशाली एवं परम आश्चर्यमय कैलास शिखर को चले गये। श्रेष्ठ शिष्यों सहित वामदेव भी मयूर वाहन कार्तिकेय को प्रणाम करके शीघ्र ही परम अद्भुत कैलास शिखर पर जा पहुँचे और महादेवजी के निकट जा उन्होंने उमा सहित महेश्वर के मायानाशक मोक्षदायक चरणों का दर्शन किया। फिर भक्तिभाव से अपना सारा अंग भगवान् शिव को समर्पित करके, वे शरीर की सुधि भुलाकर उनके निकट दण्ड की भाँति पड़ गये और बारंबार उठ-उठकर नमस्कार करने लगे। तत्पश्चात् उन्होंने भाँति-भाँति के स्तोत्रों द्वारा, जो वेदों और आगमों के रस से पूर्ण थे, जगदम्बा और पुत्र सहित परमेश्वर शिव का स्तवन किया। इसके बाद देवी पार्वती और महादेवजी के चरणारविन्द को अपने मस्तक पर रखकर उनका पूर्ण अनुग्रह प्राप्त करके वे वहीं सुखपूर्वक रहने लगे। तुम सभी ऋषि भी इसी प्रकार प्रणव के अर्थभूत महेश्वर का तथा वेदों के गोपनीय रहस्य, वेदसर्वस्व और मोक्षदायक तारक मन्त्र ॐकार का ज्ञान प्राप्त करके यहीं सुख से रहो तथा विश्वनाथजी के चरणों में सायुज्यरूपा अनुपम एवं उत्तम मुक्ति का चिन्तन किया करो। अब मैं गुरुदेव की सेवा के लिये बदरिकाश्रम तीर्थ को जाऊँगा। तुम्हें फिर मेरे साथ सम्भाषण का एवं सत्संग का अवसर प्राप्त हो।
(अध्याय २३)