यति के लिये एकादशाह-कृत्य का वर्णन

स्कन्दजी कहते हैं – वामदेव! यति का एकादशाह प्राप्त होने पर जो विधि बतायी गयी है, उसका मैं तुम्हारे स्नेहवश वर्णन करता हूँ। मिट्टी की वेदी बनाकर उसका सम्मार्जन और उपलेपन करे। तत्पश्चात् पुण्याहवाचनपूर्वक प्रोक्षण करके पश्चिम से लेकर पूर्व की ओर पाँच मण्डल बनाये और स्वयं श्राद्धकर्ता उत्तराभिमुख बैठकर कार्य करे। प्रादेशमात्र लंबा-चौड़ा चौकोर मण्डल बनाकर उसके मध्य-भाग में बिन्दु, उसके ऊपर त्रिकोण मण्डल, उसके ऊपर षट्कोण मण्डल और उसके ऊपर गोल मण्डल बनावे। फिर अपने सामने शंख की स्थापना करके पूजा के लिये बतायी हुई पद्धति के क्रम से आचमन, प्राणायाम एवं संकल्प करके पूर्वोक्त पाँच आतिवाहिक देवताओं का देवेश्वरी देवियों के रूप में पूजन करे। उत्तर ओर आसन के लिये कुश डालकर जल का स्पर्श करे। पश्चिम से आरम्भ करके पूर्व पर्यन्त जो मण्डल बताये गये हैं, उनके भीतर पीठ के रूप में पुष्प रखे और उन पुष्पों पर क्रमशः उक्त पाँचों देवियों का आवाहन करे। पहले अग्निपुंजस्वरूपिणी आतिवाहिक देवी का आवाहन करते हुए इस प्रकार कहे – 'ॐ ह्रीं अग्निरूपा मातिवाहिकदेवताम् आवाहयामि नमः'। इस प्रकार सर्वत्र वाक्ययोजना और भावना करे। इस तरह पाँचों देवियों का आवाहन करके प्रत्येक के लिये आदरपूर्वक स्थापना आदि मुद्राओं का प्रदर्शन करे। तत्पश्चात् ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः – इन बीजमम्त्रों द्वारा पडंगन्यास और करन्यास करे। इसके बाद उन देवियों का इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। उन सबके चार-चार हाथ हैं। उनमें से दो हाथों में वे पाश और अंकुश धारण करती हैं तथा शेष दो हाथों में अभय और वरद मुद्राएँ हैं। उनकी अंगकान्ति चन्द्रकान्तिमणि के समान है। लाल अँगूठियों की प्रभा से उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओं के मुख-मण्डल को रँग दिया है। वे लाल वस्त्र धारण करती हैं। उनके हाथ और पैर कमलों के समान शोभा पाते हैं। तीन नेत्रों से सुशोभित मुख रूपी पूर्ण चन्द्रमा की छटा से वे मन को मोहे लेती हैं। माणिक्य निर्मित मुकुटों से उद्धासित चन्द्रलेखा उनके सीमन्त को विभूषित कर रही है। कपोलों पर रत्नमय कुण्डल झलमला रहे हैं। उनके उरोज पीन तथा उन्नत हैं। हार, केयूर, कड़े और करधनी की लड़ियों से विभूषित होने के कारण वे बड़ी मनोहारिणी जान पड़ती हैं। उनका कटिभाग कृश और नितम्ब स्थूल हैं। उनके अंग लाल रंग के दिव्य वस्त्रों से आच्छादित हैं। चरणारविन्दों में माणिक्य निर्मित पायजेबों की झनकार होती रहती है। पैरों की अँगुलियों में बिछुओं की पंक्ति अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर है।

यदि अनुग्रह मुर्दे के समान मूर्तिमान् हो तो उससे क्या सिद्ध हो सकता है। इसलिये वे देवियाँ महेश्वरक की भाँति शक्त्यात्मक मूर्तिवाले अनुग्रह से सम्पन्न हैं। अतः उनके अनुग्रह से सब कुछ सिद्ध हो सकता है। सब पर अनुग्रह करनेवाले भगवान् शिव ने ही उन पाँच मूर्तियों को स्वीकार किया है। इसलिये वे दिव्य, सम्पूर्ण कार्य करने में समर्थ तथा परम अनुग्रह में तत्पर हैं। इस प्रकार उन सब अनुग्रह परायण कल्याणमयी देवियों का ध्यान करके इनके लिये शंखस्थ जल के बिन्दुओं द्वारा पैरों में पाद्य, हाथों में आचमनीय तथा मस्तकों पर अर्ध्य देना चाहिये। तदनन्तर शंख के जल की बूंदों से उनका स्नानकर्म सम्पन्न कराना चाहिये। स्नान के पश्चात् दिव्य लाल रंग के वस्त्र और उत्तरीय अर्पित करे। बहुमूल्य मुकुट एवं आभूषण दे (इन वस्तुओं के अभाव में मन के द्वारा भावना करके इन्हें अर्पित करना चाहिये)। तत्पश्चात् सुगन्धित चन्दन, अत्यन्त सुन्दर अक्षत तथा उत्तम गन्ध से युक्त मनोहर पुष्प चढ़ाये। अत्यन्त सुगन्धित धूप और घी की बत्ती से युक्त दीपक निवेदन करे। इन सब वस्तुओं को अर्पण करते समय आरम्भ में 'ओं ह्रीं' का प्रयोग करके फिर 'समर्पयामि नमः' बोलना चाहिये यथा 'ॐ ह्रीं अग्न्यादिरूपाभ्यः पञ्चदेवीभ्यः दीपं समर्पयामि नमः।' इसी तरह अन्य उपचारों को अर्पित करते समय वाक्ययोजना कर लेनी चाहिये।

दीपसमर्पण के पश्चात् हाथ जोड़कर प्रत्येक देवी के लिये पृथक्-पथक् केले के पत्ते पर पूरा-पूरा सुवासित नैवेद्य रखे। वह नैवेद्य घी, शक्कर और मधु से मिश्रित खीर, पूआ, केले के फल और गुड़ आदि के रूप में होना चाहिये। 'भूर्भुवः स्वः' बोलकर उसका प्रोक्षण आदि संस्कार करे। फिर 'ॐ ह्रीं स्वाहा नैवेद्यं निवेदयामि नमः' बोलकर नैवेद्य समर्पण के पश्चात् 'ॐ ह्रीं नैवेद्यान्ते आचमनार्थं पानीयं समर्पयामि नमः।' कहते हुए बड़े प्रेम से जल अर्पित करे। मुनिश्रेष्ठ! तत्पश्चात् प्रसन्ततापूर्वक नैवेद्य को पूर्वदिशा में हटा दे और उस स्थान को शुद्ध करके कुल्ला, आचमन तथा अर्ध्य के लिये जल दे। फिर ताम्बूल, धूप और दीप देकर परिक्रमा एवं नमस्कार करके मस्तक पर हाथ जोड़ इन सब देवियों से इस प्रकार प्रार्थना करे – 'हे श्रीमाताओ! आप अत्यन्त प्रसन्न हो शिवपद की अभिलाषा रखने वाले इस यति को परमेश्वर के चरणारविन्दों में रख दें और इसके लिये अपनी स्वीकृति दें।' इस प्रकार प्रार्थाना करके उन सबका, वे जैसे आयी थीं, उसी तरह विदा देकर, विसर्जन कर दे और उनका प्रसाद लेकर कुमारी कन्याओं को बाँट दे या गौओं को खिला दे अथवा जल में डाल दे। इनके सिवा और कहीं किसी प्रकार भी न डाले।

यहीं पार्वण करे। यति के लिये कहीं भी एकोद्दिष्ट-श्राद्ध का विधान नहीं है। यहाँ पार्वण-श्राद्ध के लिये जो नियम है, उसे मैं बता रहा हूँ। मुनिश्रेष्ठ! तुम उसे सुनो। इससे कल्याण की प्राप्ति होगी। श्राद्धकर्ता पुरुष स्नान करके प्राणायाम करे। यज्ञोपवीत पहन सावधान हो हाथ में पवित्री धारण करके देश-काल का कीर्तन करने के पश्चात् 'मैं इस पुण्यतिथि को पार्वण-श्राद्ध करूँगा' इस तरह संकल्प करे। संकल्प के बाद उत्तर दिशा में आसन के लिये उत्तम कुश बिछाये। फिर जल का स्पर्श करे। उन आसनों पर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करनेवाले चार शिवभक्त ब्राह्मणों को बुलाकर भक्तिभाव से बिठाये। वे ब्राह्मण उबटन लगाकर स्नान किये होने चाहिये। उनमें से एक ब्राह्मण से कहे – 'आप विश्वेदेव के लिये यहाँ श्राद्ध ग्रहण करने की कृपा करें।' इसी तरह दूसरे से आत्मा के लिये, तीसरे से अन्तरात्मा के लिये और चौथे से परमात्मा के लिये श्राद्ध ग्रहण करने की प्रार्थना करके शभ्राद्धकर्ता यति श्रद्धा और आदरपूर्वक उन सबका यथोचितरूप से वरण करे। फिर उन सबके पैर धोकर उन्हें पूर्वाभिमुख बिठाये और गन्ध आदि से अलंकृत करके शिव के सम्मुख भोजन कराये। तदनन्तर वहाँ गोबर से भूमि को लीपकर पूर्वाग्र कुश बिछाये और प्राणायामपूर्वक पिण्डदान के लिये संकल्प करके तीन मण्डलों की पूजा करे। इसके बाद पहले पिण्ड को हाथ में ले 'आत्मने इमं पिण्डं ददामि' ऐसा कहकर उस पिण्ड को प्रथम मण्डल में दे दे। तत्पश्चात् दूसरे पिण्ड को 'अन्तरात्मने इमं पिण्डं ददामि' कहकर दूसरे मण्डल में दे दे। फिर तीसरे पिण्ड को 'परमात्मने इमं पिण्डं ददामि' कहकर तीसरे मण्डल में अर्पित करे। इस तरह भक्तिभाव से विधिपूर्वक पिण्ड और कुशोदक दे। तत्पश्चात् उठकर परिक्रमा और नमस्कार करे। तदनन्तर ब्राह्मणों को विधिवत् दक्षिणा दे। उसी जगह और उसी दिन नारायणबलि करे। रक्षा के लिये ही सर्वत्र श्रीविष्णु की पूजा का विधान है। अतः विष्णु की महापूजा करे और खीर का नैवेद्य लगाये। इसके बाद वेदों के पारंगत बारह विद्वान् ब्राह्मणों को बुलाकर केशव आदि नाम-मन्त्रों द्वारा गन्ध, पुष्प और अक्षत आदि से उनकी पूजा करे। उनके लिये विधिपूर्वक जूता, छाता और वस्त्र आदि दे। अत्यन्त भक्ति से भाँति-भाँति के शुभ वचन कहकर उन्हें संतोष दे। फिर पूर्वाग्र कुशों को बिछाकर 'ॐ भूः स्वाहा, ॐ भुवः स्वाहा, ॐ सुवः स्वाहा' ऐसा उच्चारण करके पृथ्वी पर खीर की बलि दे। मुनीश्वर! यह मैंने एकादशाह की विधि बतायी है। अब द्वादशाह की विधि बताता हूँ, आदरपूर्वक सुनो।

(अध्याय २२)