जब मैंने ईश्वर का द्वार ज़ोर से खटखटाया

सुक्खी हैरिसन, जुलाई 2007 English
आदरणीय गुरुजी महाराज, आपके कमल चरणों में नतमस्तक होकर, हार्दिक प्रेम और आभार से, मैं अपने अनुभव लिखने का साहस कर रही हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिए। मैं जानती हूँ कि प्रतिदिन, हरएक पल, हरएक श्वास, जो मैं लेती हूँ आपकी दया के कारण है। फिर मैं आपके दिव्य उपकार के अनुभव कहाँ से लिखना आरम्भ करूँ? आपके प्रेम पर मैं सहस्रों ग्रन्थ लिख सकती हूँ। नम्रतापूर्वक मैं अपने अनुभव उनके साथ बाँट रही हूँ, जिन्हें आपके द्वार पर पहुँच कर आपकी दिव्य आभा देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

गुरुजी महाराज पूरी सृष्टि में हैं और पूरी सृष्टि उनमें समायी हुई है। इस जगत में उनकी दिव्यता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वह सर्वविद्यमान हैं। यह फैलती हुई सृष्टि एक फूलते बुलबुले के समान है, जो फूटने को तत्पर है, किन्तु, जब तक वह हमारे जीवन में हैं, नहीं फूटेगा।

"हे प्रभु, आप मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते थे?"

विवाह के कई वर्ष तक डेविड और मेरी संतान नहीं हुई थी। हम अत्यंत निराश थे और स्त्री रोग विशेषज्ञ से उपचार भी करवा चुके थे। फरवरी 1991 में, मैं भारत से एक शिशु गोद लेने का विचार कर रही थी। मैंने डब्लिन में, सर्पेंटाइन मार्ग पर स्थित, गुरुद्वारा साहिब श्री गुरु नानक दरबार में जाकर प्रभु से बात करने का निश्चय किया। गुरुद्वारे पहुँच कर मैं उनसे वार्ता करने लगी। मैंने उनको कहा कि वह मेरे पिता हैं और मैं उनकी पुत्री - मेरी एक ही समस्या है। मैंने उनसे निवेदन किया कि मेरे लिए न सही, मेरे पति के लिए एक संतान दे दें। उन्हें भी गोद लिया गया था और उन्हें किसी को अपनी संतान कहने में अति सुख मिलेगा। प्रार्थना स्वर्ग की ओर भेजकर, आत्मविश्वास के साथ मैं वापस घर आ गई।

एक माह के पश्चात् मुझे अपने गर्भवती होने का बोध हुआ। मैंने अपने परामर्शदाता चिकित्सक, डा- लेनेहन, और अपने पारिवारिक चिकित्सक को फोन पर अपने गर्भवती होने की सूचना दी। उन्होंने मुझे गर्भ परीक्षण करवाने की सलाह दी क्योंकि मेरे जैसे रोगियों में छाया गर्भ होने के आसार भी पाये जाते हैं। मैंने उत्तर दिया कि मुझे 100 प्रतिशत विश्वास है और मैंने बाबाजी गुरु नानक को उनके आशीर्वाद के लिए धन्यवाद दिया। नौ माह उपरान्त मैंने एक सुन्दर सी बेटी को जन्म दिया। चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण छा गया।

समय व्यतीत होने के साथ मुझे लगने लगा कि मेरी बच्ची के साथ कुछ अनहोनी हो रही है। मैं पराचिकित्सिका का प्रशिक्षण ले चुकी हूँ और मुझे प्रतीत हुआ कि वह आँखों से संपर्क स्थापित नहीं कर रही थी। वह सुन नहीं सकती थी, मुस्कुराती या हँसती नहीं थी, ध्वनि नहीं करती थी - और, अन्य हरकतें, जो उसकी आयु के शिशु कर सकते हैं नहीं कर रही थी। मैं अपने आप को डाँटती थी कि मैं कार्य पर नहीं हूँ और अपनी ही संतान में शिशुओं के बढ़ने के चिह्न ढूंढ रही हूँ। मैंने अपने आप को कहते हुए सुना, "तुम माँ हो, यह तुम्हारी संतान है, रोग ढूँढना बंद करो - घर पर तुम चिकित्सालय या गहन सेवा केंद्र में कार्यरत नहीं हो।" परन्तु मेरी आत्मा इतनी व्याकुल थी कि मैं उसको परीक्षण के लिए ले गई। विशेषज्ञ ने, आकस्मिक मार्ग अपनाते हुए, उसे तुरन्त देश के सर्व प्रसिद्ध स्नायु रोग विशेषज्ञ के पास भेजा, और हमारी कठिनाईयाँ आरम्भ हो गयीं।

सी टी स्केन, मस्तिष्क स्केन, ई सी जी इत्यादि अनेक परीक्षण हुए और अंतत: चिकित्सक ने निष्कर्ष सुनाया कि उसे प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात (सेरब्रल पॉल्ज़ी) है। हमें बताया गया कि शीना कभी बैठ या चल नहीं पायेगी और समय के साथ उसकी मुखाकृति विकृत हो जायेगी। शारीरिक और मानसिक रूप से वह विकलांग रहेगी। मेरे पति डेविड अत्यंत व्यथित थे। मैं अन्दर से ध्वस्त हो गई थी, और आवेश में आकर मैं चिल्लायी, "हे प्रभु, आप मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते थे? कैसे? प्रभु, आप मेरे पिता नहीं हैं।" डेविड ने मेरे मुँह पर हाथ रख कर कहा कि ईश्वर के बारे में इस प्रकार से बात नहीं की जाती है। जितना आश्वस्त होकर वह कह सकते थे, उन्होंने कहा कि शीना स्वस्थ हो जायेगी।

मैं शीना को उठा कर घर वापस आ गयी। मैं उस बावली स्त्री की भांति थी जिसका नर्वस ब्रेकडाउन हो गया हो। मेरे मुख पर अश्रुधारा बहे जा रही थी। मैं भगवान पर क्रोधित हो रही थी और अंत में मैंने डेविड को पूजा कक्ष में जाकर ग्रन्थ साहिब को बाहर फेंकने के लिए कहा। मैं चिल्ला रही थी, "इस संसार में कोई ईश्वर नहीं है।" डेविड ने उत्तर दिया, "सुक्खी, यदि तुम ईश्वर को अपने जीवन से निकालना चाहती हो, वह तुम्हारी इच्छा है। मुझे यह पाप करने को मत कहो - मुझे अभी भी उसमें आस्था है।" "तो मैं गुरुद्वारे जा रही हूँ और बाद में लौटूँगी," इतना कह कर मैंने शीना को उठाया और चल पड़ी। मेरी बहन एमी हमें कार में गुरुद्वारे ले गयी। मैंने शीना को गुरु ग्रन्थ साहिब महाराज के निकट लिटाया और पागल बच्चे की भांति हरकतें करने लगी। मैंने सतगुरु से असंतोष प्रकट किया, "आपने कहा था कि आप मेरे पिता हैं। आप मुझसे प्रेम करेंगे, मेरी रक्षा करेंगे और मेरा ध्यान रखेंगे - क्या इसे ध्यान रखना कहते हैं? आपने मुझे एक सुन्दर सी संतान देकर कृतार्थ किया और आपने उसके शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग ले लिया, उसका मस्तिष्क। आप ऐसा कैसे कर सकते थे?" मैं रोये जा रही थी। ज्ञानीजी ने सोचा कि मैं पागल हो रही हूँ। फिर मैंने कहा, "हे भगवान! हे अकाल पुरुष! मैंने अपने पूरे जीवन आपको प्रेम किया है। यदि आप वास्तव में हैं, आप मुझे अपने अस्तित्व का प्रमाण देंगे कि आप मुझे सुन रहे हैं; यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मैं आप से फिर कभी प्रेम नहीं करूँगी। मेरे लिए आप का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। मैं इस बच्ची से प्रेम करूँगी, इसका ध्यान रखूँगी, और इसके लिए जो उचित होगा करूँगी, किन्तु आप से कभी प्रेम नहीं करूँगी।"

मेरा इतना कहना था कि शीना ने अपना नन्हा हाथ उठा कर मेरे गाल पर मारा। इस समय तक शीना के हाथ इतने कमज़ोर थे कि वह उसके वक्ष पर ही रहते थे। मुझे उन्हें उठा कर उनका व्यायाम कराना पड़ता था क्योंकि वह स्वयं उनको हिला नहीं पाती थी।

मैं उत्तेजित थी, मुझे पता था कि प्रभु ने उत्तर दिया है।

मैं उनके चरणों में गिर पड़ी, उनसे क्षमायाचना की और ज्ञानीजी को गुरु ग्रन्थ साहिब से एक बाख (वाक्य) निकालने को कहा। दिव्य सन्देश था कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। अतः मैंने शीना को उठाया और घर आ गयी। मैं गुरु नानक देव (अकाल पुरूष) से शीना को स्वस्थ करने के लिए प्रार्थना करने लगी। ताकि वह अपने कमरे से हमारे कमरे तक आ सके, भूख लगने पर अपने मुँह और पेट की ओर ऊँगली कर सके, या फिर, यदि उसके शरीर के किसी भी अंग में पीड़ा है तो उस ओर ऊँगली कर सके। मैं इतनी ही कामनाएँ कर रही थी, क्योंकि मुझे लगता था कि वह मानसिक रूप से अविकसित थी, और संभवत: प्रभु हमारी इतनी ही आकांक्षा पूर्ण कर सकेंगे। डेविड प्रभु से उसको स्वस्थ करने के लिए प्रार्थना करते थे। उनके मन में मेरे से अधिक विश्वास था।

अविश्वसनीय, शीना चल रही थी

मेरी बहन, एक बाल रोग विशेषज्ञ, इंगलेंड से डेविड को शीना के रोग की गंभीरता समझाने आयी। उसने कहा कि शीना शारीरिक रूप से विकलांग रहेगी और समय के साथ उसकी मुखाकृति विकृत हो जायेगी। उसने डेविड को स्थिति से समझौता करने के लिए कहा। वह विचलित अवश्य हुए, फिर भी उनको विश्वास रहा कि प्रभु की दया से सब ठीक हो जाएगा। जो उनको बताया गया उसे सुनकर वह व्याकुल भी हुए। इस समय प्रभु के साथ मेरी यात्रा, मेरी आध्यात्मिक यात्रा, आरम्भ हुई।

मैंने ईश्वर के शब्द को स्वीकार किया और निश्चय किया कि मुझे अमृत वेला में प्रार्थना करनी चाहिए। अर्ध रात्रि दो बजे, बिना शोर किये उठ कर, मैं अपने हाथ और पैरों पर स्नानागार तक जाती थी और हाथ मुँह धोकर प्रार्थना करती थी। मैं उनको कहती थी कि मैं उनके पास स्वच्छ होकर आयी हूँ, स्नान करने से मेरे पति उठ जाते और क्रोधित होते और फिर मेरी प्रार्थना असफल रहती। फिर मैं चुपचाप बिस्तरे में, डेविड के उठने से पहले आकर सो जाती। यह सत्रह माह तक चलता रहा। इस अवधि में शीना के विभिन्न उपचार एवं चिकित्साएँ चलती रहीं - शारीरिक, मानसिक, वाच इत्यादि। घर में हम पहिये वाली कुर्सी और लिफ्ट लगाने का विचार करने लगे थे।

एक शाम को मैं 'रहरास साहिब पाठ' बाबाजी को अर्पण कर रही थी और मेरी बहन अमरजीत नीचे शीना को देख रही थी। अचानक मैंने उसे चिल्लाते हुए सुना, "सुक्खी, शीना चल रही है।" मुझे उसका कहा समझ नहीं आया और मैं उससे पाठ में अड़चन डालने के लिए नाराज हुई। पाठ पूरा कर मैं नीचे गयी - मेरी आँखों के सामने शीना एक कुर्सी से दूसरी कुर्सी तक दौड़ रही थी।

एक चमत्कार हुआ था जो वैज्ञानिक रूप से असंभव था। वह खुल कर मुस्कुरा रही थी। डेविड जब काम से लौटे तो हम तीनों प्रभु को धन्यवाद देने भूमि पर नतमस्तक हो गये। जो कुछ हो रहा था वह अविश्वसनीय था। वह चल रही थी। हमने उसे बार-बार वही करने के लिए कहा। प्रसन्नता से हम रो पड़े, ईश्वर ने हमारी प्रार्थनाएँ स्वीकार कर ली थीं। हमने गुरुद्वारे जाकर प्रभु को धन्यवाद दिया। अपनी बच्ची की सहायता के लिए, चिर काल से चली आ रही तप कर वरदान माँगने की प्रथा को मैंने पा लिया था।

उस दिन से मैंने बाबाजी के कक्ष में ज्योत जलाना आरम्भ कर दिया और उसके द्वारा उनके दर्शन की अभिलाषा प्रकट की। यह मेरे प्रेम की ज्योत थी।

जीवन बीत रहा था। अचानक 1995 में मेरी माँ रुग्ण हो गयीं। उनका रक्त प्रवाह अत्यंत वेग से हो रहा था और चिकित्सक ने कहा कि गर्भयोच्छेदन द्वारा उनका गर्भाशय निकालना पड़ेगा। प्रशिक्षित पराचिकित्सिका होने के कारण मेरी माँ ने मुझे घर आकर उनकी सहायता करने के लिए कहा। मैंने उन्हें शीना के रोग की गंभीरता के बारे में नहीं बताया था। कुछ समय पूर्व ही डेविड भी अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे थे। फिर भी हमने निश्चय किया कि शीना और मैं भारत जायेंगे।

यद्यपि शीना प्रगति कर रही थी, उसके विकास में दो क्रियाएँ शेष थीं। एक, वह बोल नहीं पा रही थी और दूसरे, वह सामान्य भोजन नहीं कर रही थी। फलस्वरूप उसे विशेष खाद्य पदार्थ देने पड़ते थे। भारत में रहते हुए उसके लिए यह विशेष वस्तुएँ आवश्यक थीं। इसका अर्थ था - यात्रा में अधिक सामान।

हम विमानपतन पर अपने अधिकार से अधिक सामाने ले कर पहुँचे। विमान कर्मचारी अधिक वज़न के लिए पैसे की मांग कर रहे थे। हमारे लिए यह संभव नहीं था, मैं चिंतित हो गयी। मैं अन्दर ही अन्दर रो रही थी, "हे प्रभु, कुछ कीजिए। वहाँ पर मेरी माँ रोगग्रस्त हैं और यहाँ पर मेरी बेटी। मेरे पास देने के लिए पैसे नहीं हैं, मैं क्या करूँ?" स्पष्टतया उसी समय गुरुजी, जिन्हें मैं इस समय तक जानती नहीं थी, ने चंडीगढ़ में संगत को कहा कि बेटी ने उन्हें आयरलेंड में बुलाया है और उन्हें वहाँ जाना है। इसी समय कर्मचारी ने मेरी ओर मुड़ कर कहा कि मैं आगे जा सकती हूँ। उसने यह भी कहा कि अधिक सामान के लिए कोई अतिरिक्त व्यय नहीं करना है। मैंने अकाल पुरुष को उनकी सहायता के लिए धन्यवाद दिया और इस बारे में और अधिक नहीं सोचा।

मेरी छोटी बहन ने मुझे गुरुजी महाराज के दर्शन करने के लिए विनती की थी। मेरी माँ की शल्य क्रिया से पूर्व उनके कमरे में तीव्र सुगन्ध मिली। शल्य क्रिया में माँ के शरीर से निकला हुआ गर्भाशय श्वेत रंग का हो गया और वह ठीक थीं। केंसर के कोई चिह्न नहीं थे। उस समय हमने इन घटनाओं के बारे में कुछ नहीं सोचा। किन्तु अब, पुनरावलोकन करते हुए, लगता है कि उस समय हमने उन्हें नहीं पहचाना और उनको अपने हृदय में स्थान नहीं दिया।

शीना के पहले शब्द: वाहे गुरु

एक दिन माँ की, शल्य क्रिया के बाद मैं, चंडीगढ़ के सेक्टर 35 में अपने भाई के घर बैठी हुई थी जब मैंने कुछ लोगों को गुरुजी के बारे में बातें करते हुए सुना। उनमें मेरी भाभी के भाई गिक्की भी थे, जो गुरुजी के भक्त हैं। मुझे प्रतीत हुआ कि कोई मुझे बुला रहा है। मैंने पूछा कि क्या मैं गुरुजी से मिल सकती हूँ। मेरे परिवार वाले चकित रह गये क्योंकि मैं कभी किसी पंडित, पुजारी, संत या धार्मिक लोगों के पास नहीं जाती थी। मैं गुरु नानक के उपदेशों का अनुसरण करती थी और उन्होंने ऐसे लोगों के पास जाने को मना किया था। उन्होंने कहा, "सुक्खी, हमने कभी तुमसे इस बारे में पूछा नहीं था क्योंकि तुम इनमें विश्वास नहीं करती हो।"

उस शाम जब मैं गुरुजी के पास गयी और कार से उतर रही थी तो गुरुजी ने संगत को बताया, "बेटी आयी है।" उनके मंदिर में प्रवेश करके मैंने उनके कमल चरणों को स्पर्श किया। उन्होंने मुझे दिव्य प्रसाद दिया और बैठने के लिए कहा। वह उठ कर मेरे पास आकर बैठ गये और उन्होंने मेरे रोगों, मेरी शल्य क्रियाओं, आयरलेंड में मेरे घर, उसकी सजावट, प्रत्येक कमरे की वस्तुएँ, खिलौने, भोजन करने के बर्तन आदि अनेक वस्तुओं के बारे में विस्तार से बताना आरम्भ कर दिया। मैं स्तब्ध थी। फिर गुरुजी ने कहा कि वह वहीं हैं, अपने रंग रूप में, एक जमा एक दो ही होते हैं, तीन नहीं; उन्हें बहुत कुछ दिखाना और सिद्ध करना शेष है। मेरे साथ बैठी एक महिला ने मुझे कहा - गुरुजी ने उन्हें बताया था कि मैंने ईश्वर के द्वार पर इतनी ज़ोर से दस्तक दी कि मेरी बेटी स्वस्थ हो गयी- इसीलिए मुझे गुरुजी का आभारी होना चाहिए।

स्तब्ध होने के साथ मैं विस्मित भी थी - यह तो ईश्वर और मेरी आपस की बात थी, गुरुजी को इस बारे में कैसे पता?

मैंने उनकी ओर देखा। पहले मैंने प्रश्न किया कि क्या यह वास्तव में हो रहा है और फूट-फूट कर रोने लगी। किसी भी व्यक्ति या दिव्य पुरुष के लिए मेरे और परमात्मा के साथ आपस में हुई बातों का पता लगना मुमकिन नहीं था - यानि मैं अमृत वेला में उठ कर अपनी बेटी के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करती थी - मैंने मन ही मन गुरुजी से प्रश्न किया, "आप कौन हैं? क्या आप वही हैं जो मैं सोच रही हूँ?" एक अत्याधिक चौंधियाने वाली आभा ने मुझे और पूरे कमरे को घेर लिया। मैं उनके चरणों में गिर पड़ी और बार-बार कहने लगी, "क्या आप वही हैं जो मेरे मन में हैं?" और फिर मैंने कहा, "हे सर्व विद्यमान प्रभु, मेरी बेटी को ठीक करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।"

उनकी मुस्कुराहट कितनी सुन्दर थी। उस मुस्कराहट से ईश्वर से सम्बन्ध स्थापित हो गया था। उनकी आँखें वाह्य संसार से नाम मात्र के सम्बन्ध का संकेत देती हुई आधी खुली हुई थीं और अपने अंतर्ज्ञान से सम्बन्ध स्थापित करती हुई आधी बंद थीं। फिर मैंने क्षमा माँगी और पूरी संगत को देखने के लिए पीछे जाकर बैठ गयी।

मैंने अपने आस-पास बैठे हुए लोगों से गुरुजी के बारे में अपने निजी अनुभव कहने के लिए विनती की। जो कुछ मैंने सुना, यह बिलकुल मेरे नानाजी और पवित्र पुस्तकों, और गुरु ग्रन्थ साहिब की सीख के अनुरूप था। मेरी राय में गुरुजी गुरु नानक समान हैं। जैसे ही मैंने यह सोचा गुरुजी ने मुझे आगे बुलाया और कहा कि सुक्खी, तुम्हें आने वाली बैसाखी सदा याद रहेगी। मेरे लिए बैसाखी का अर्थ केवल फसल कटने का समय था।

गुरुजी के चारों ओर मुझे गुलाब और लेवेंडर पुष्पों की सुगन्ध आ रही थी। लोगों ने मुझे गुरुजी के पैर और हाथ सूंघने के लिए कहा - वह उसी सुगन्ध से भरे हुए हैं। उनके चरणों को छूते ही मेरे हाथ उस सुगन्ध से भर गये। मैं अचंभित रह गयी। गुरुजी ने मेरी ओर मुड़ कर कहा, "बेटी, ऐ अमरत है"। उसी समय वह मेरे आस-पास उपस्थित लोगों का उपचार कर रहे थे और जैसे ही कोई रोग निवृत होता था, वह मुस्कुराते थे। रात्रि के अंत में मैंने अपना सिर उनके कमल चरणों में रख दिया। जब सिर उठाकर मैंने उनकी आँखों में देखा तो उनके चक्षुओं से दो किरणें निकल कर मेरी ओर आयीं उनमें सितारे भरे हुए थे। मुझे आभास हुआ कि वह कौन हैं। बचपन से मुझे सदा लगता था कि प्रभु मेरे पास किरणों के मार्ग से आयेंगे और वह सितारों से भरी होंगी।

घर चलते हुए गुरुजी ने मुझे अगले दिन शीना को लाने के लिए कहा। मैंने उत्तर दिया कि यह कठिन होगा क्योंकि वह कुछ नहीं खायेगी, लोग उसको घूरेंगे पर अंत में यह भी कह दिया कि मैं उनके निर्देशों का पालन करूँगी। अगले दिन मैं शीना को लेकर गुरुजी के पास आयी। जब हम सेक्टर 33 में गुरुजी के मंदिर की ओर जा रहे थे, शीना मेरा हाथ छोड़ कर गुरुजी की ओर भागी। वह उनके कमल चरणों में नतमस्तक हुई और बोली, "वाहे गुरु।" मेरी बच्ची पहली बार बोली थी। मेरी आँखों में आँसू आ गये। गुरुजी ने शीना को ले जाकर लंगर करवाने को कहा। मैं उसको लंगर हॉल में ले गयी और उसके मुँह में चपाती का एक छोटा सा कौर डाला, जो वह खा नहीं सकी। जब हम गुरुजी के पास वापस आये तो उन्होंने पूछा कि क्या उसने कुछ खाया है। मैंने मना किया। वह बोले कि मैंने उसके मुँह में एक छोटा सा टुकड़ा ही डाला था। उस दिन से मेरी बेटी को कोई समस्या नहीं है - प्रभु के द्वार पर सब मिल गया था।

अकल्पनीय बैसाखी

प्रातः काल गुरुजी सुखना झील के किनारे भ्रमण करने जाते थे। कार में से उनके पैर निकलते ही दूर दूर तक, जहाँ तक दृष्टि जाती थी, मोर ज़ोर-ज़ोर से गाने लगते थे। गुरुजी झील के किनारे चलते थे किन्तु उनके आगे बढ़ते हुए पैर भूमि को नहीं छूते थे।

बैसाखी के दिन गुरुजी संगत के कुछ सदस्यों के साथ मुझे भी गुरु सवारी बना कर ले गये। अचानक वातावरण परिवर्तित हो गया। गुरुजी ने मुझे कहा, "सुक्खी, देख कौन आये हैं, सुक्खी, देख कौन आये हैं"। कार के शीशे से मैंने गुरु नानक देवजी और शिवजी को देखा। मैंने फिर देखा और अपने आप को चुटकी मारी, यह देखने के लिए कि गुरुजी ने मेरे ऊपर कोई जादू तो नहीं किया था। मुझे पता है कि मैंने उस दिन गुरुजी के साथ क्या देखा।

मैं गुरु नानक को दर्शन देने के लिए धन्यवाद करती हूँ, और, उससे भी अधिक, मेरी बच्ची को नव जीवन देने के लिए। मैंने यह स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि मेरी प्रेम ज्योत से इस जन्म में मुझे बाबाजी के दर्शन हो जायेंगे। प्रसन्नता और प्रेम से पागल होकर मैं सबको गुरुजी के बारे में बताना चाहती थी और अभी भी वही कर रही हूँ। मुझे आशा है कि यह पढ़ने वाले भी सोच रहे होंगे, "यह कौन हैं? गुरुजी कौन हैं?" वह ईश्वर हैं और हमारी रक्षा करने आये हैं।

उस दिन शाम को बैसाखी का समारोह था। कुछ अनुयायियों से गुरुजी ने मेरे बारे में पूछा। मैं घर पर थी। उनका अस्तित्व जानने के पश्चात् मैं उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। अंततः मुझे बुलाया गया और मेरे पहुँचने पर मुझ पर प्रेम की वर्षा की गयी। मैं प्रिय प्रभु की आत्मा को देखना चाहती थी।

बैसाखी के एक दिन उपरान्त गुरुजी ने मुझे कुछ माँगने के लिए कहा। मैंने उत्तर दिया कि आपने मुझे सब कुछ दे दिया है, मैं ही आपको पहचान नहीं पा रही थी। उनके पुनः कहने पर मैंने उनसे अपनी बहन अमरजीत को स्वस्थ करने के लिए कहा जो गठिये से पीड़ित थी। एमी को अपनी पीड़ा के कारण काम करने में कष्ट होता था। औषधियों के साथ वह अपनी कलाई पर स्वर्ण के इंजेक्शन भी लेती थी। गुरुजी ने उसका चित्र लाने के लिए कहा। उन्होंने भविष्यवाणी की कि वह मुझे फोन करेगी और मैं उसको सब औषधियाँ फेंकने के लिए और अब वह स्वस्थ है, ऐसा कहूँ। समय के साथ पता लगा कि गुरुजी ने, यहाँ भारत में बैठे हुए, उसे आयरलेंड में ठीक कर दिया था। अगले वर्ष अपना आभार प्रकट करने वह गुरुजी के पास आयी थी।

एक और घटना हुई। एक दिन गुरुजी ने कहा कि डेविड मुझे फोन करेंगे और मैं उनको कहूँ कि फ्रिज काम नहीं कर रहा है और उसमें भोजन सड़ रहा है। वास्तव में उनका फोन आया और मैंने गुरुजी की कही हुई बात बतायी। किन्तु उन्होंने कहा कि वह घर पर ही हैं और फ्रिज ठीक काम कर रहा है। जब मैंने वापस जाकर देखा तो उसका फ्रीज़र ख़राब हो गया था और उसमें भोजन सड़ चुका था।

मयूर गान

समय आया जब मुझे आयरलेंड लौटना था - मुझे अपने गुरु से अलग होना था। उन्होंने कहा कि वह मेरे से दूरबोध द्वारा बात करेंगे। मै उदास थी क्योंकि मुझे इसका अर्थ समझ नहीं आया था। कालांतर में मुझे अभास हुआ कि वह वास्तव में दूरबोध से बात करते हैं। मैं उनसे बोलकर बात नहीं कर सकती थी। यदि कोई प्रश्न पूछती तो वह उसका उत्तर देते थे।

जिस दिन मुझे चंड़ीगढ से चलना था, हम रात को 2 बजे झील के किनारे घूमने गए। कोई मोर नहीं गा रहा था और हम उस शांति में झील के किनारे चल रहे थे। चलते हुए झील के किनारे सड़क का अंत आ गया तो मैंने गुरुजी से अपने हृदय में प्रश्न किया, 'मेरे उत्तर का क्या हुआ?' अकस्मात् एक मयूर गाते हुए सुनाई दिया। गुरुजी मुझे देखकर मुस्कुराये। मैं फिर भी नहीं समझी और डब्लिन के लिए चल पड़ी - गुरुजी की अत्यंत याद और कमी के साथ। अगले दिन प्रातः मैं प्रार्थना करने लगी तो उत्तर मेरे सम्मुख था - खिड़की पर बैठा एक मोर गा रहा था। मैं रो पड़ी, और, अब जब भी गुरुजी आसपास होते हैं तो अक्सर मोर के गाने की ध्वनि आती है। अन्य अवसरों पर उसके पंख मिल जाते हैं।

गुरुजी डब्लिन में: जींस और नीली टी-शर्ट में

मेरे आयरलेंड लौटने पर एक और अदभूत अनुभव हुआ। यह मेरे पति से संबंधित है जो प्रारम्भ में गुरुजी पर विश्वास नहीं करते थे। किन्तु अंत में उनसे मिलने भारत आये थे। उन्हीं के शब्दों में :

1995, पतझड़ ऋतु : मैंने एक कपंनी के सूचना प्रौद्योगिक विभाग में एक नया उपकरण बेचने के लिये काम करना आरम्भ किया था। क्योंकि तकनीक नई और मंहगी थी मुझे पता था कि इसको बिकने में समय लग सकता है, किन्तु सफलता की आशा अवश्य थी। एक दिन मैंने डब्लिन के एक संस्थान में जा कर उसका प्रर्दशन किया। ग्राहक खरीदने को तत्पर था किन्तु अपनी मात्रा नहीं बता रहा था।

उसके बाद जब मैं एक पुल के उपर से जा रहा था तो मैं गुरुजी को पैदल यात्रियों के पथ पर नीली डेनिम की जीन्स और नीले रंग के टी-शर्ट में देखकर आर्श्चयचकित रह गया। मैं इतना चकित हुआ कि मैंने कार को मोड़कर उनको फिर से देखने का प्रयास किया जिससे मैं उनको आदर दे सकूँ, परन्तु वह अन्तर्ध्यान हो चुके थे। मैंने घर जा कर सुक्खी को घटना के बारे में बताया - गुरुजी डब्लिन आये थे। इस घटना से मुझे विश्वास हो गया कि मैं वह उपकरण बेच पाऊँगा। कुछ ही सप्ताह में उस ग्राहक ने वह वस्तु खरीद ली - यह कंपनी की पहली बिक्री थी।

कई मास के बाद डेविड को वक्ष में पीड़ा और हृदय रोग के संदेह में चिकित्सालय ले जाया गया, ई सी जी से स्पष्ट था कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। मैं गहन सेवा केन्द्र में काम कर चुकी थी, मुझे उनकी इस अवस्था से चिंता थी। मैंने सहायता के लिए गुरुजी को पुकार लगायी और डेविड को गुरुजी द्वारा अभिमंत्रित एक पेन्डेन्ट दिया। डेविड की गंभीर अवस्था देखते हुए सब परीक्षण करने के लिये उन्हें गहन सेवा केन्द्र में रखा था। वहाँ पर लेटे हुए पहले उन्हें गुरुजी की सुगन्ध आयी और उसके पश्चात् नींद आने पर वह सो गये।

इस अवधि में मैंने गुरुजी को फोन किया। गुरुजी ने स्वयं फोन उठाया और बोले कि वह पहले ही डेविड के पास हो आये हैं और सब ठीक हो जायेगा; मैं चिंता नहीं करूँ। मैं डेविड की शय्या के किनारे आ गयी। जब वह उठे तो उन्होंने कहा कि उन्हें अच्छा लग रहा है और कोई दर्द नहीं है। सुगन्ध का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें गुरुजी के आने का आभास हुआ था। अब सब परीक्षण सही आये, उनमें हृदय रोग के कोई चिह्न नहीं थे। ई सी जी भी सामान्य था और उन्हें घर भेज दिया। उन्हें स्ट्रेस ई सी जी के लिये कहा गया; वह भी सामान्य आया। चिकित्सकों ने कहा कि उनका हृदय उनसे बहुत कम आयु के व्यक्ति का था। मैं भावविभोर हो गई। अभी भी मैं प्रभु के बारे में जान रही थी। हम मनुष्य इतने अस्थिर और निर्बल हैं कि हम शीघ्र ही हार मान लेते है। प्रभु के मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द स्वर्ण समान है और उसे गंभीरता से लेना चाहिए।

मेरे प्रभु की उपस्थिति

एक बार गुरुजी की संगत में प्रत्येक भक्त को एक चांदी का सिक्का मिला, जिसके एक ओर बाबा नानक का चित्र था और दूसरी ओर गुरुजी के चरण। जब यह भारत में हुआ मुझे भी वह सिक्का आयरलेंड में मिला। यदा-कदा जब मैं प्रार्थना करती थी, मुझे उनके चित्र से मिश्री या लाल गुलाब मिलते थे। एक अवसर पर मेरी बहन अमरजीत ने उनके चित्र के सामने खड़े होकर कहा, "सुक्खी ही क्यों, मैं क्यों नहीं?" उसी समय गुरुजी के चित्र में उसने उनको अपनी पलक झपकाते हुए देखा। वह रोती बिलखती मेरे पास भागी हुई आयी कि उसने गुरुजी को ललकारा था और वह अत्यंत क्षमा प्रार्थी है।

फिर एक बार हम कार में देर रात घर वापस आ रहे थे। हमें लम्बी यात्रा करनी थी और कार में पेट्रोल बहुत कम था। हमें लग रहा था कि अगले आधे घंटे में ईंधन समाप्त हो जायेगा। एक घंटे की यात्र के पश्चात् जब हम पेट्रोल पंप पहुँचे तो वह बन्द था। अब हमारे पास बिना पेट्रोल भरे, आगे जाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था और हम चल पड़े। दो घन्टे की यात्रा के बाद गुरुजी की कृपा से खाली पेट्रोल टैंक के साथ ही हम घर पहुँच गये।

गुरुजी ने मुझे गुरु नानक और शिव के संबंधों के बारे में भी बताया। कैसे गुरु नानक शिवरात्रि को शिव मंदिर में जा कर एक शिला पर बैठकर शिव को सुना करते थे।

प्रभु प्रेम की खोज में मेरा जीवन परिवर्तित हो गया है। उन्होंने सबसे कठिन अवसरों पर मेरी सहायता की है। उन्होंने मुझे दिव्य जीवन, शक्ति, सुरक्षा, प्रेरणा, जीने की इच्छा और उनके दिव्य रूप को खोजने की लालसा दी है। मैं अच्छा बनने का प्रयास करती हूँ जिससे मैं उनके चरणों में रह सकूँ। मैं हृदय और आत्मा से उनसे प्रार्थना करती हूँ कि वह मुझे अपने कमल चरणों में आश्रय देते रहें, और उनकी लम्बी आयु की भी विनती करती हूँ जिससे वह सबकी आत्माओं को शुद्ध करते रहें। वह हमारे रक्षक हैं, हमारे कर्मों में वह हमारी सहायता करते हैं। मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण उनके अनुभव से लिप्त रहता है। मैं उनके बारे में और लिख कर अपने अनुभव बाँटती रह सकती हूँ। मैं आपसे विनती करती हूँ कि आप स्वावलोकन करें और अपने जीवन में गुरुजी का महत्व जानें। हम सब उनकी छत्रछाया में उनकी कृपा से ही हैं। अपने अनुभव लिखने में किसी भी त्रुटि के लिये मैं उनसे क्षमा माँगती हूँ। उनकी दया की अभिलाषा करते हुए मैं उनके संदेश सब में प्रसारित करती रहूँगी। हे प्रभु, मुझे अपनी संगत में और अपने कमल चरणों में स्थान दें।

सुक्खी हैरिसन, डब्लिन (आयरलेंड)

जुलाई 2007