प्रभु चरणों में कृपा

राजेन्द्र प्रसाद सिंगला, जुलाई 2007 English
"चरण कमल की मौज को, कहो कैसे अनुमान,
कहिबे को सोभा नहीं, देखा ही परमान"

संत कबीर ने सतगुरु के चरणों में मिलने वाले सुख का वर्णन करने से मना कर दिया था क्योंकि उसे शब्दों में पिरोना असम्भव है, वह तो केवल अनुभव ही किया जा सकता है। मुझे भी ऐसी ही अनुभूतियाँ हुई हैं। गुरुजी के आशीर्वाद ने एक नवीन बोध और उद्देश्य देकर मेरे पूरे जीवन को परिवर्तित कर दिया है।

सर्वज्ञाता होने के आभास

अगस्त 1996 में, एक दिन संध्या को मेरे मित्र, विंग कमांडर चोपड़ा ने फोन कर मुझे गुरुजी के यहाँ आने का आमंत्रण दिया। क्योंकि मैं संतों में विश्वास नहीं करता था, बहुत मना करने के पश्चात्, उन पर आभार प्रकट करने के लिए, मैंने आना स्वीकार कर लिया।

उस दिन हम नोएडा से छः बजे चल कर 45 मिनट में गुरुजी के स्थान पर पहुँच गये। पहला अवसर होने के कारण, संगत में, चोपड़ा के अलावा मैं किसी को नहीं जानता था। हम 15-20 लोग समूह में बैठ कर गुरुजी की प्रतीक्षा करते रहे। जब गुरुजी अपने कक्ष से निकले, हम सबने जाकर उनके चरण स्पर्श किये। सामान्यतः ऐसे धार्मिक अवसरों पर, उपस्थित भक्त, ईश्वर के लिए आदर भाव से या किसी धर्मार्थ कार्यों के लिए धन दान करते हैं पर विंग कमांडर चोपड़ा ने मुझे चेतावनी दी थी कि यहाँ पर धन कदापि अर्पण नहीं करना है। गुरुजी भेंट में केवल पुष्प या मिठाई स्वीकार करते हैं। फूल सजाने के काम आते थे और मिठाई को गुरुजी प्रसाद के रूप में संगत में बाँट देते थे।

चोपड़ा द्वारा मेरा संक्षिप्त परिचय कराने के पश्चात् गुरुजी ने मेरी ओर मुड़ कर देखा और पूछा कि मैं चंड़ीगढ़ कब जा रहा हूँ। मैं अचंभित हो गया क्योंकि चोपड़ा को इस बारे में कुछ नहीं पता था और पता होने पर भी बताने का समय नहीं मिला था। किन्तु गुरुजी को मेरे बारे में चोपड़ा द्वारा दिए गए परिचय से अधिक ज्ञान था। अपने अचम्भे को वश में करते हुए मैंने गुरुजी को उत्तर दे दिया। गुरुजी ने जानना चाहा कि मैं वहाँ पर कहाँ रहता हूँ। मैंने उनको बताया कि मैं एक पुलिस अधिकारी, श्री पी पी सिंह, के घर पर ठहरता हूँ। गुरुजी ने कहा कि वह उनके पुराने अनुयायी हैं - मैं उन्हें दिल्ली आकर गुरुजी से मिलने के लिए कहूँ। गुरुजी के रहस्य और उनकी प्रतिभाओं के बारे में जानने के लिए मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी।

यथा स्थान बैठने पर प्रसाद में चाय परोसी गयी। गुरबानी के मधुर शब्दों की ध्वनि से वातावरण में दिव्यता छा रही थी। कुछ देर पश्चात् गुरुजी ने मिठाई बाँटनी आरम्भ की और उसकी मात्रा ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया। उठाने और देने के लिए गुरुजी केवल अपने दाहिने हाथ का प्रयोग कर रहे थे पर प्राप्तकर्ता को दोनों हाथों से भी उसे संभालने में कठिनाई हो रही थी। यद्यपि गुरुजी का हाथ उपस्थित लोगों में से कुछ से छोटा होगा, किन्तु बड़े हाथ वाले भक्त भी दोनों हाथ से प्रसाद को संभाल नहीं पा रहे थे।

गुरुजी के दो तीन बार प्रसाद देने के पश्चात्, जिसकी प्रति भक्त, कुल मात्र आधा किलो से अधिक रही होगी, उनके निर्देश पर लंगर परोसने का प्रबन्ध होने लगा। उस समय ऐसा लग रहा था कि पेट में और कुछ खाने का स्थान नहीं है परन्तु जब तक लंगर लगा तब तक पुनः भूख लगने लगी थी। कालांतर में मुझे बोध हुआ कि प्रसाद और लंगर के यह अनुभव एक बार के चमत्कार न होकर सामान्य हैं।

पिछले पाँच वर्षों से मैं कुछ आहार और रहन-सहन संबंधित नियमों का पालन करता आया था। प्रातः शीघ्र उठने के लिए मैं 9:30 बजे सो जाया करता था। किन्तु गुरुजी संगत को अपने द्वारा सोचे हुए समय पर ही जाने की आज्ञा देते थे। उस दिन हम वहाँ अर्ध रात्रि के बाद तक रहे और कोई एक बजे नोएडा के लिए चले। यह समय मेरे शरीर की जैविक घड़ी के प्रतिकूल था किन्तु मुझे आभास हुआ कि इतनी देर तक जगे रहने के बाद भी, घर पहुँचने तक निद्रा मेरे से कोसों दूर थी और मुझमें अद्भुत स्फूर्ति बनी हुई थी।

घर पहुँचने के तुरन्त बाद मैंने अपने मित्र पी पी सिंह को फोन कर यह जानना चाहा कि क्या गुरुजी का कहा हुआ सत्य था। मेरे मित्र को यह जान कर अति प्रसन्नता हुई कि मैं गुरुजी से मिलने एम्पायर एस्टेट गया था। वह उनका पता जान कर और भी आनंदित हुए क्योंकि चंडीगढ़ से गुरुजी के जाने के पश्चात् गुरुजी से उनका संपर्क टूट गया था। मैंने खुश होकर वार्ता का अंत किया। फिर मैंने अपने पहले दर्शन के बारे में अपनी पत्नी के कुछ प्रश्नों के उत्तर दिये और इस प्रकार एक अति महत्त्वूपर्ण दिन का अंत हुआ।

अगले दिन जब चोपड़ा ने मेरे आने के बारे में प्रश्न किया तो मैं तुरन्त मान गया। गुरुजी की शरण में हमने शबद, प्रसाद और लंगर का आनंद उठाया और फिर गुरुजी ने मुझे "गुप्ता" से संबोधित किया। घर पर जब मैंने यह बताया तो मेरे बच्चों ने सोचा कि संभवतः गुरुजी को गलती लगी होगी और वह मेरा नाम भूल गये होंगे। फिर मैंने बच्चों को अपने कॉलेज के दिनों का एक रक्त दान कार्ड दिखाया। उन्हें पहली बार पता लगा कि मैं गुप्ता लिखा करता था और व्यापार आरम्भ करने के पश्चात् ही मैंने सिंगला का प्रयोग आरम्भ किया।

गुरुजी ने सिद्ध कर दिया कि उनसे कोई भी बात छिपी हुई नहीं है। मेरी पत्नी और बच्चों ने अगली बार साथ चलने की आकांक्षा व्यक्त की और हम सब एक साथ गए।

चंडीगढ़ तक सुगन्धित यात्रा

उनके दर्शन करते हुए एक सप्ताह से भी कम समय के पश्चात् गुरुजी ने मुझे पत्नी सहित चंडीगढ़ जाकर पी पी सिंह और उनके परिवार से मिलने को कहा। गुरुजी के आशीष से यह यात्रा विशेष रही। गुरुजी के शरीर से विशिष्ट किन्तु प्राकृतिक सुगन्ध आती है। चंडीगढ़ तक की पूरी यात्रा में यह सुगन्ध निरन्तर साथ बनी रही। चंडीगढ़ में हमारा अधिकतर समय गुरुजी की चर्चा में व्यतीत हुआ। जब हम चलने को हुए तो हम सब गुरुजी की गुलाब पुष्पों वाली सुगन्ध में डूब गए। गुरुजी स्वयं 250 किलोमीटर दूर दिल्ली में थे!

यद्यपि गुरुजी को समझ पाना संभव नहीं है, उनकी कृपा से ही हम उनके एक अत्यंत ही सरल भाव को समझने का आधार बना सकते हैं। गुरुजी ने जो भी मुझे दृष्टिगोचर और अनुभव करवाया है, उससे स्पष्ट है कि यह सुगन्ध उनकी उपस्थिति का प्रतीक है। कभी भी, कहीं भी, जो भी गुरुजी को याद करता है या उनसे सहायता की पुकार लगाता है, वह तुरन्त उसको आश्रय देते हैं। किन्तु यह आह्नान हृदय से होना चाहिए। संगत के कुछ सदस्यों को उन्होंने स्वप्न में भी दर्शन दिए हैं। उनकी इच्छा के विपरीत आप उन्हें कभी स्वप्न में नहीं देखेंगे। गुरुजी का स्वप्न कभी भी कारणात्मक घटना न होकर उनकी वास्तविक लौकिक उपस्थिति है। अन्यथा कौन कुछ वर्ष पूर्व घटी इस घटना का विश्लेषण कर सकता है?

गुरुजी मेरी आटा मिल का उद्घाटन करने नीमराना आए थे। उनके साथ संगत के कुछ सदस्य भी थे। उनमें गुड़गाँव के एक व्यावसायिक, श्री मदन अपने परिवार सहित आए थे। उनकी बेटी स्थान देख कर चिल्ला पड़ी और कहने लगी कि गुरुजी ने यह पूरा संदर्भ उसे कई माह पूर्व स्वप्न में दिखलाया था।

छोटी सी सेवा से रोग मुक्ति

किसी भी भक्त के लिए गुरु की सेवा अत्यंत प्रसन्नता, गौरव और संतोष की घटना होती है। किन्तु गुरुजी के सन्दर्भ में उसका एक और आयाम भी है। एक बार गुरुजी ने मुझे अपने घुटनों से टखनों तक मालिश करने को कहा। उसे करते हुए मैं कितना भावविह्नल और आनंदित हुआ, इसका वर्णन करना असंभव है। आधा घंटा ऐसा करने के पश्चात् मेरे हाथ उनकी सुगन्ध से भर गए थे। वह सुगन्ध हाथों में 24 घंटे से भी अधिक समय तक रही। और कुछ चमत्कारिक भी हुआ .... मेरे पैरों के नीचे का भाग अकड़ा रहता था। मेरा पुत्र उन अंगों पर अपने शरीर का भार डालने के लिए खड़ा हुआ करता था और इससे कुछ आराम मिलता था। कुछ दिनों में मुझे आभास हुआ कि गुरुजी ने अपने उन्हीं भागों की मालिश करवा कर मुझे, सात आठ वर्षों से चली आ रही, उस तीव्र वेदना से मुक्त कर दिया था। उसके बाद मुझे वहाँ कभी दर्द नहीं हुआ है।

गुरुजी जैसे दाता, कृपा के अतिरिक्त जब भी सेवा करवाते हैं वह भक्त की भलाई के लिए होती है।

मारुति के चमत्कार

हमारी मारुति 800 कार 12 से 12.5 किलोमीटर प्रति लीटर पेट्रोल की औसत देती थी। हर बार जब मैं ईंधन भरवाता था तो उसकी औसत की गणना करता था। कार की आंरभिक सेवाओं के अवसर पर मैं सेवा केन्द्र के कर्मचारियों को उसकी औसत बढ़ाने की बात करता था तो उनका उत्तर यही होता था कि नगरों में चलने के कारण उसमें किसी वृद्धि की संभावना नहीं है। जब हमने गुरुजी के पास आना आरम्भ किया तो उसकी औसत 19 किलामीटर प्रति लीटर हो गयी। यह आश्चर्यजनक था और मैंने सोचा कि मुझ से कोई गलती हुई है। अतः यह मैंने किसी को नहीं बताया। अगली बार भी यही गणना आई। मैं आश्चर्यचकित था और जब मैंने अगली बार टैंक भरवाया तो भी वही परिणाम आया।

अगले दर्शन पर गुरुजी ने इसका रहस्योद्घाटन करते हुए कहा कि सिंगला क्या हुआ? 19 की संख्या में घूम गये? अब तुम्हें आभास होगा कि संतों की कृपा मनुष्यों पर ही नहीं, कारों पर भी हो सकती है।

गुरुजी का यह कथन बार-बार सिद्ध हुआ है। एक बार कार चलाते हुए मैंने देखा कि ईंधन समाप्त होने वाला है तो मैं एक पेट्रोल पम्प पर मुड़ गया। पंक्ति में खड़े हुए जब मैंने देखा कि उसकी सुई स्वतः ही आधे चिह्न पर पहुँच गयी है तो मैं अत्यंत चकित हुआ। मैं बिना पेट्रोल भरवाये आगे निकल गया। कुछ दिन के पश्चात्, आशानुकूल किलोमीटर चलने पर सुई फिर खाली टैंक दिखा रही थी। पेट्रोल पम्प पर मुड़ने के बाद मैं पुनः अचंभित हुआ जब सुई फिर आधे चिह्न पर पहुँच गयी। कोई दो सप्ताह तक ऐसा प्रतीत होता रहा कि पेट्रोल पम्प देख कर कार में आधी टंकी अपने आप भर जाती है।

एक बार पंजाब जाते हुए यह लगा कि कार में शेष पेट्रोल के साथ हम अपने गंतव्य तक ही पहुँच पाएंगे। पर इसके विपरीत हम पेट्रोल भरे बिना वापस दिल्ली पहुँच गये।

न केवल ईंधन क्षमता में वृद्धि हुई, गुरुजी की दया से हमारी कार की सामान ले जाने की क्षमता भी बढ़ती रही। प्रारम्भ में हमें गुरुजी ने लंगर बनाने के स्थल से हर संगत के दिन भोजन लाने के लिए कहा। उन्हीं की कृपा से लंगर के सब बर्तन कार में समा जाते थे। किन्तु जैसे-जैसे संगत की गिनती बढ़ती गई उसी प्रकार लंगर के बर्तनों का आकार भी बढ़ा और फिर भी वह सब कार में समाते रहे। एक दिन गुरुजी का साधारण सा लगने वाला कथन कि क्या लंगर के सब बर्तन उसमें आ गए, के पश्चात् ऐसा लगने लगा कि कार का सामान रखने वाला स्थान लचीला होकर आवश्यकतानुसार बढ़ जाता है।

एक दिन संगत समाप्त होने के पश्चात् हम लंगर के खाली ड्रम लेकर वापस नोएडा जा रहे थे। उसी समय गुरुजी ने मंदिर के सब परदों को ड्राई क्लीन करवाने को कहा (कुल 35-40 परदे, प्रत्येक 15-20 फुट लम्बा)। क्योंकि उन्हें साफ करने का कार्य नोएडा में ही होना था, हमें कुछ परदे ले जाने को कहा गया। हम चार यात्रियों और लंगर के खाली बर्तन के साथ, अधिक परदे आने की संभावना कम थी। किन्तु सबको अचम्भा हुआ जब इतनी लदी हुई गाड़ी में सब परदे सरलता से आ गए। केवल गुरुजी ही इसके कर्ता रहे होंगे।

मधुमेह रोगी पिता के लिए मीठा प्रसाद

अस्सी के दशक से मेरे पिता मधुमेह रोग से पीड़ित रहे हैं और प्रतिदिन दो इंसुलिन के इंजेक्शन लेते रहे हैं। हम गुरुजी के पास आए और गुरुजी ने उन्हें बर्फी दी। सामान्यतः प्रसाद लेकर भक्त बाहर आते हैं और प्रसाद खाकर वापस अन्दर जाकर अपने स्थान पर पुनः बैठ जाते हैं। मेरे पिता भी बाहर आए और उन्होंने मेरे से पूछा कि इन पाँच-छः बर्फियों का वह क्या करें। मैंने उन्हें बताया कि गुरुजी के स्थान में जो भी प्रसाद मिलता है उसको वहीं पर खाने से औषधि जैसा प्रभाव होता है। घर या बाहर ले जाने से उसका प्रभाव मिट जाता है। उन्होंने कहा कि मिठाई तो उनके लिए विष है। मैंने उनको समझाया कि यह गुरुजी का प्रसाद है और उसका विपरीत प्रभाव कभी नहीं हो सकता। मेरे हठ करने पर उन्होंने वह खा लिया और अन्दर चले गए। गुरुजी ने उन्हें पुनः बुला कर और बर्फियाँ दीं। अब मेरे पिता को लग रहा था कि निश्चित रूप से उन पर दुष्प्रभाव होगा इसलिए वह उसे नहीं खाना चाह रहे थे। पुनः मेरे कहने पर उन्होंने मेरी बात मान ली और वह प्रसाद खाकर अन्दर गये। किन्तु गुरुजी ने उनके लिए और प्रसाद रखा हुआ था, एक बार फिर बुला कर उन्हें बर्फियाँ दीं। तीसरी बार बर्फियाँ खाने तक मेरे पिता लगभग आधा किलो बर्फियाँ खा चुके होंगे। उन्हें विश्वास था कि वह गंभीर रूप से बीमार पड़ेंगे और उनके मधु का स्तर पिछले 15 वर्ष के बराबर की मिठाई केवल चार घंटे में खा लेने से निश्चित अति उच्च हो जाएगा।

हम घर गये और उन्होंने मुझे प्रातः 5:30 बजे फोन कर के कहा कि उनके मधु का स्तर जो गत दिन 130 था इतनी बर्फ़ियाँ खाने के पश्चात् 120 था। इससे बोध होता है कि गुरुजी के स्थान पर दी हुई कोई भी वस्तु अपने भौतिक गुण खो कर प्रसाद के गुण अपना लेती है।

शल्य क्रियाओं में गुरुकृपा

मेरे पिता मधुमेह के साथ-साथ हृदय रोग से भी पीड़ित थे। एक बार रात को उनके वक्षस्थल में पीड़ा हुई। उन्होंने उसके बारे में अधिक न सोचते हुए मालिश और गरम जल की बोतलों से दर्द को शांत करने का प्रयत्न किया। किसी प्रकार से उन्होंने रात तो बिता दी किन्तु स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्होंने प्रातः मुझे फोन किया।

जब मैं उनके पास पहुँचा तो उनकी स्थिति देख कर हम उन्हें यथा शीघ्र अपोलो चिकित्सालय ले गए। प्रारम्भिक परीक्षणों से पता लगा कि रात को उन्हें दिल का दौरा पड़ा था और चिकित्सक उन्हें चिकित्सालय लाने में देरी करने के लिए अचंभित थे। तथापि, पूर्ण परीक्षणों के पश्चात्, चिकित्सकों ने बायपास का परामर्श दिया। पिता के मधुमेह रोगी होने के कारण यह क्रिया जटिल होने की संभावना थी क्योंकि ऐसे रोगी को स्वस्थ होने में सामान्य रोगी से अधिक समय लगता है। कोई अन्य उपाय न होने के कारण चिकित्सकों ने हमारी अनुमति लेकर शल्य क्रिया आरम्भ की। थोड़ी सी अवधि में शल्य क्रिया के सब प्रबन्ध करना कोई सरल बात नहीं थी।

उसके पश्चात् जिस प्रकार से चिकित्सालय के कर्मचारियों ने हमारी सहायता की, उसमें गुरुकृपा स्पष्ट थी। सर्वप्रथम, रक्त कोष में उनके समूह के रक्त की कमी होने के कारण शल्य क्रिया करने वाले एक चिकित्सक ने अपना रक्त देने की स्वीकृति दी। फिर, शल्य क्रिया, हृदय रोग विभाग के अध्यक्ष, जो भारत में केवल 10-12 दिन प्रति माह ही रहते हैं, के निरीक्षण में हुई। सामान्यतः उनके लिए 10-12 दिन पूर्व समय नियुक्ति की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु वह बिना हिचक के कुछ समय में आ गए।

मेरे पिता की शल्य क्रिया बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो गयी। चेतना लौटने पर उन्होंने शल्य क्रिया से पहले के परिणाम देखने चाहे क्योंकि उन्हें बायपास क्रिया होने का ज्ञान नहीं था। उस दिन जो भी घटनाएँ मेरे पिता के साथ हुईं, वो विस्मित करने वाली थीं। आश्चर्यजनक रूप से शल्य क्रिया सरलता से पूर्ण हो गयी। यह सब गुरुजी की दिव्य कृपा के बिना संभव ही नहीं था। उसके उपरान्त मेरे पिता के स्वास्थ्य लाभ की प्रक्रिया साधारण रोगी (जो मधुमेह के रोगी नहीं है) से भी तीव्र गति से हुई - इस तथ्य का आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में कोई उत्तर नहीं है।

चिकित्सा के क्षेत्र में गुरुजी के हस्तक्षेप के और भी अनेक उदाहरण हैं। मेरे चचेरे भाई, अशोक सिंगला एक दशक से हृदय रोग से पीड़ित थे। अपनी तीसरी शल्य क्रिया के लिए वह चंडीगढ़ से दिल्ली एक सप्ताह पूर्व आ गए थे। इस बीच, मेरे अनुरोध पर, उन्होंने तीन-चार बार गुरुजी के दर्शन किये। गुरुजी की शरण में बिताये हुए कुछ घंटे, बिना किसी विघ्न की शल्य क्रिया, उनकी रोग निवृत्ति और स्वास्थ्य लाभ के लिए पर्याप्त थे। शल्य क्रिया सरलता से पूर्ण हो गयी और पिछले दो अवसरों के प्रतिकूल वह शीघ्र स्वस्थ भी हो गए।

वर्णन या अनुभव

मैं पुनः कहूँगा कि गुरुजी की प्रतिभाओं का ज्ञान संभव नहीं है। इसी प्रकार अपने अनुभवों को शब्दों में व्यक्त करना भी असम्भव है क्योंकि उनकी कृपा को पूर्ण रूपेण दर्शाने वाले शब्द उपलब्ध नहीं हैं। जबसे मुझे गुरुजी ने अपने पास बुलाया है, अपनी अनुभूति को जिस एक वाक्य में व्यक्त करता रहा हूँ, वह इस प्रकार है, "गुरुजी से मिलने के पश्चात् जो भावना उत्पन्न होती है, उसका वर्णन करना कठिन है, उसका अनुभव करने में ही उसका रस है।"

गुरुजी अपना वास्तविक रूप छिपाने के लिए विभिन्न उपक्रम करते हैं, हम केवल उनके लौकिक रूप से ही परिचित हैं और इस कारण उनसे वह प्राप्त नहीं कर पाते हैं जो वह देने की क्षमता रखते हैं। गुरुजी सब अपेक्षाएँ पूर्ण कर देते हैं। वास्तव में गुरुजी वह प्रदान कर सकते हैं जो ईश्वर भी देने से पहले सोचेंगे। इस जीवन में वही प्राप्त हो सकता है जिसके बीज बोये गए हैं। गुरुजी, जिसके आप अधिकारी हैं, वह तो दे ही सकते हैं और वह भी जिसकी कामना आपके मन में है। किन्तु यह आकांक्षा हितकारी होनी चाहिए। यहाँ पर भक्त को इस तर्क से सहमत होना पड़ेगा कि उसकी दृष्टि वर्तमान तक ही सीमित है, गुरुजी तो त्रिकाल द्रष्टा हैं।

गुरुजी के हाथ में अपनी जीवन नैया की डोर देकर आप सुरक्षित तट तक पहुँच जायेंगे। यहाँ पर यह भी समझना आवश्यक है कि सम्पूर्ण समर्पण से ही सम्पूर्ण समर्थन संभव है।

मनुष्य योनि होने के कारण गुरुजी से आशाओं की पूर्ति की कामना स्वाभाविक है। एक बार गुरुजी की शरण में आने पर उनकी कृपा अवश्य होगी। यदि आप उनसे कुछ माँगेंगे तो वह मिलेगा और बस केवल वही मिलेगा। किन्तु यदि कुछ कामना नहीं करेंगे तो वह मिलेगा जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की होगी।

हृदय रोग के लिए चना

गुरुजी के निर्देशों के पालन करने में ही सुख है। यह सर्वविदित है कि जब वह कुछ कहते हैं तो उसके लिए आवश्यक प्रावधान भी कर देते हैं। ऐसा अनेक अवसरों पर देखा गया है। मेरे एक घनिष्ठ मित्र गोयल को दिल का दौरा पड़ा था और उन्हें चिकित्सालय में प्रविष्ट कराना पड़ा था। जब मैं संगत सामप्त होने पर घर के लिए चल रहा था तो मैंने इसका उल्लेख गुरुजी से किया। उन्होंने तुरन्त एक उपाय बताया जिसके लिए सवा पाँच किलो चने की आवश्यकता थी।

जब तक हम बाहर निकल कर घर के लिए चले तो शीत काल की चरम सीमा में रात्रि का एक बज रहा था। क्योंकि वह उपाय तुरन्त करना आवश्यक था, मैं खुली हुई पंसारी की दूकान ढूँढते हुए गाड़ी चला रहा था। दस किलोमीटर जाने के बाद सौभाग्यवश एक खुली हुई दूकान मिली। हमने उससे सवा पाँच किलो चने माँगे तो उसने अपना भण्डार देख कर बताया कि उसके पास केवल साढे़ चार किलो चने हैं। कुछ न होने से कुछ भला सोच कर हमने वही मात्रा ले ली। चलते हुए दुकानदार से जब पूछा कि वह दुकान कब बंद करता है तो उसने उत्तर दिया कि सामान्यतः वह 10:30 बजे बंद कर देता है, किन्तु उस दिन वह तीन- चार महीने में एक बार करने वाली क्रिया, स्टॉक की जाँच कर रहा था, इसलिए अभी तक दूकान खुली हुई थी। इसे संयोग कह कर टाल भी सकते हैं, किन्तु यदि बार-बार आपके हित में संयोग होते रहें तो उनका स्त्रोत समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

हमारे पास चने अभी भी कम थे, अतः हम ढूँढते हुए घर की ओर चले, परन्तु मार्ग में और कोई दूकान खुली हुई नहीं मिली। हम निराश हो चले थे कि घर पर एक डिब्बे में कुछ चने मिल गए। तोलने पर वह पूरे 750 ग्राम निकले और इस प्रकार सवा पाँच किलो चने की पूर्ति हुई।

मैंने गुरुजी के निर्देशों का पालन किया। गोयल की स्थिति में तुरन्त सुधार हुआ और अगले 48 घंटों के पश्चात् वह चिकित्सालय से वापस घर भी पहुँच गए।

गुरुजी के साधारण से कहे गये वक्तव्य का भी गूढ़ अर्थ होता है। गुरुजी के मुख से उच्चारित प्रत्येक शब्द भक्त के भविष्य को स्वर्णिम बनाने के लिए है। उनके कृत्य, जो अक्सर दिखाई नहीं देते, हमें यह पता तक नहीं लगने देते कि नियति में क्या लिखा हुआ था। बहुत कम अवसरों पर गुरुजी पूरे भेद खोलते हैं। मुझे एक बार उनके साथ पंजाब जाने का अवसर प्राप्त हुआ था जहाँ उन्हें एक चिकित्सालय का उद्घाटन करना था।

उद्घाटन के पश्चात् गुरुजी ने कुछ और दिन वहाँ रहने का कार्यक्रम बना लिया। एसे अवसरों पर गुरुजी स्वयं अपने भक्तों के सुख पूर्वक रहने का ध्यान रखते हैं अतः मेरे साथ संगत के तीन और भक्तों को चिकित्सालय में ही ठहराया गया और उसके मालिक ने हमारी अत्यंत आवभगत करी। इस अवधि में हमने अत्यंत आनंद उठाया और सबसे उत्तम, गरिष्ट और स्वादिष्ट पंजाबी भोजन का स्वाद लिया। कर्मचारियों की अच्छी देखरेख के कारण वह समय अति स्मरणीय रहेगा। चार दिन वहाँ पर सब सुख साधनों का अनुभव लेने के पश्चात् हम वापस दिल्ली आ गये। गुरुजी ने एक भक्त को बताया कि हम सबको वहाँ पर रखने का कारण हम चारों के आने वाले बुरे समय, जिसमें हम चारों ही चार माह के लिए चिकित्सालय में रहते, की क्षतिपूर्ति करना था।

गुरुजी अपनी संगत का असीमित घ्यान रखते हैं और जब कभी, जहाँ भी उनकी सहायता की आवश्यकता होगी, वह देंगे। गुरुजी के साथ बिताये हुए वर्षों में उन्होंने अपनी सर्वज्ञाता और सर्वशक्तिशाली प्रतिभाओं का परिचय अनेक अवसरों पर दिया है। हम केवल उनका आभार प्रकट कर सकते हैं।

एक बार दिसंबर या जनवरी मास में हम संगत से घर वापस जा रहे थे। मैं गाड़ी चला रहा था और अत्याधिक धुंध के कारण कुछ मीटर से अधिक दिखाई नहीं दे रहा था। धुंध में मोड़ों, अन्य रास्तों और यातायात का भी पता नहीं चल रहा था। 28 केलोमीटर की दूरी में से कुल 7 - 8 किलोमीटर चलकर अत्यंत निराश हो चला था। कार बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ रही थी। उस असहाय अवस्था में ही मैंने गुरुजी से विनती की और उसी समय एक कार तेज़ी से आगे गई। यह जाने बिना कि वह गाड़ी कहाँ जा रही है, तत्परता से मैं उसके पीछे हो लिया। 40-45 मिनट तक उसके पीछे ही चलते रहने के बाद अचानक धुंध कम हुई और पता लगा कि हम नोएडा पहुँच गये हैं। घर से कोई आधा किलोमीटर पहले वह बाएँ मुड़ गई।

इसी प्रकार से ग्रीष्म ऋतु की एक तपती दोपहर को कार बीच सड़क पर रुक गई। अत्यंत प्रयत्न करने पर भी जब मुझे उसके दोष का पता नहीं लगा तो मैंने गुरुजी को याद किया। कछ देर में एक स्कूटर सवार आया और समस्या के बारे में प्रश्न किया। संयोग से वह एक मिस्त्री था। थोड़ी देर में समस्या का पता लगने पर उसका समाधान तो कर दिया, किन्तु अभी भी उसे चलाने के लिए दो और पुर्जों की आवश्यकता थी। उन्हें लेकर भी वह दस मिनट में वापस आया और उसने कार सही कर दी।

गुरुजी के साथ अनेक अनुभव हुए हैं। प्रतिदिन हमें अनेक छोटी-बड़ी परिस्थितियों की अनुभूति होती है जहाँ पर गुरुजी की दया स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उन कष्टों का क्या कहें जिन्हें गुरुजी समाप्त कर देते हैं और पता भी नहीं लगने देते। अंत में मैं गुरुजी से निवेदन करूँगा कि वह संगत के समस्त सदस्यों को अपनी शरण में रखें और भूलों को अनदेखा कर क्षमा करें।

राजेन्द्र प्रसाद सिंगला, गुड़गाँव

जुलाई 2007