नाविक का मार्ग दर्शन

कैप्टेन रवि राय, जुलाई 2007 English
1995 में श्री राय, जो अब एक जहाज़ के कप्तान हैं, जालंधर में अपने घर पर थे जब उनकी बायीं आँख की दृष्टि धुंधली हो गयी। परीक्षण से पता लगा कि उनकी आँख के पीछे के परदे में आ रही एक स्नायु (नर्व) में समस्या थी। सौभाग्यवश उस समय उनकी माँ और पत्नी डिफेन्स कॉलोनी में गुरुजी के मंदिर में किसी का कोई संदेश लेकर गयीं थीं। उसके पश्चात् उनकी माँ चाहती थी कि उनका पुत्र गुरुजी के दर्शन के लिए जाये। राय ने पहले मना कर दिया पर वह अपनी माँ को वहाँ तक छोड़ने के लिए मान गये। वहाँ पहुँचने पर वह उत्सुकतावश अन्दर भी आ गये।

मातृभाव से प्रेरित राय की माँ चाहती थी कि उनका बेटा पुनः ठीक हो जाये। उन्होंने गुरुजी को अपने पुत्र की समस्या के बारे में बताया तो गुरुजी ने उनको एक अन्य कमरे में जाकर प्रतीक्षा करने को कहा। राय उस कमरे में अधीर हो चले थे और उनके मन में विचार आया कि वह वहाँ पर क्या कर रहे हैं। ठीक उसी समय गुरुजी ने उस कमरे में प्रवेश किया और पूछा कि वह उनके लिए क्या कर सकते हैं।

उन्होंने राय को कुछ पान के पत्ते लाने को कहा। उन्हें अभिमंत्रित कर वह उन्होंने राय को इस निर्देश के साथ दिये कि वह उसे अपनी आँखों के ऊपर रख कर एक घंटे के लिए हल्की पट्टी बाँध लें। उसके बाद उन पत्तों को बहते जल में प्रवाह कर दें। राय ने वैसा ही किया और एक घंटे के पश्चात् उनकी आँख की दृष्टि ठीक हो गयी थी।

राय ने गुरुजी के दर्शन के लिए जाना आरम्भ कर दिया। तीसरी या चौथी बार जाने पर उन्हें एक स्वप्न दिखायी दिया। स्वप्न में उन्हें उठाया गया और उन्होंने देखा कि उनके कमरे की दीवार पर नीली आभा है। उसमें उन्हें शिव दिखाई दिए और उनके पीछे पीले कपड़े धारण किये गुरुजी, पर गुरुजी के सिर के स्थान पर शिवलिंग था। उन्होंने अपनी पत्नी, अनु को जगाया पर तब तक वह आभा अदृश्य हो गयी। उस समय तक राय शिव को मात्र कल्पना मानते थे।

गुरुजी ने राय परिवार पर अपनी कृपा करनी आरम्भ कर दी थी। अनु की पीठ के निचले हिस्से में मेरुदंड का एक चक्र (स्लिप डिस्क) हिला हुआ था। वह सदा चौड़ी पेटी बांधे रहती थी। चिकित्सकों के अनुसार उसका एकमात्र निवारण शल्य क्रिया था। परन्तु उसमें सबसे बड़ी विपदा थी कि अनजाने में किसी अन्य नस को चोट पहुँचने से लकवा हो सकता था।

गुरुजी को इस समस्या का पता लगने पर उन्होंने चम्मच अनु की पीठ पर लगा कर निरीक्षण किया। उसकी वेदना तुरन्त समाप्त हो गयी और पुनः कभी नहीं हुई। उसके थोड़े दिन पश्चात् जब वह दम्पति हेमकुंड साहिब गये, जहाँ पर 22 किलोमीटर का पैदल का मार्ग है, अनु सबसे आगे चल रही थी।

राय को अपने जहाज़ पर जाने में एकाध मास का समय और बचा था। उन्होंने अपनी मौसी, जिनके हृदय का वॉल्व बदला जा चुका था, को जालंधर बुलाने का निश्चय किया, जिससे गुरुजी के आशीष का फल प्राप्त कर सके। इस अंतराल में गुरुजी उससे सदा पूछा करते थे कि वह जहाज़ पर कब जा रहे हैं तो उनका उत्तर एक मास ही रहता था। वह राय को एक शबद भी सुनने को कहते थे जिसके शब्द कुछ इस प्रकार थे - नया भक्त पहली सीढ़ी पर ही है, पर उसने सबको आस्था के मार्ग पर बुलाना आरम्भ कर दिया है। तथापि इन संकेतों को अनदेखा कर, राय अपनी योजना के अनुसार पुणे गये और मौसी को लेकर वापस आये। जब वह गुरुजी के दर्शन के लिए गये तो दर्शन सहज नहीं हुए। भक्त बताते थे कि गुरुजी पाठ कर रहे हैं या मुख्य द्वार बंद होता था। स्पष्टतया कुछ विशेष बात अवश्य थी।

फिर एक दिन दर्शन हो ही गये। गुरुजी ने मौसी को आशीष दिया और पुणे वापस जाने को कहा। गुरुजी के इस कथन की अवहेलना हुई। पुनः गुरुजी के दर्शन पर जाने पर उन्होंने फिर उनको वापस घर जाने को कहा। राय के पूछने पर कि क्या वह रह सकती है गुरुजी चुप रहे। स्पष्ट था कि वह उन्हें वापस पुणे भेजना चाह रहे थे।

शीघ्र ही राय अपने जहाज़ पर जाने के लिए जालंधर से चलने वाले थे कि उनकी मौसी के हृदय में समस्या हो गयी। उन्हें वहीं के सेना चिकित्सालय में प्रविष्ट कराना पड़ा। जब तक राय अपने जहाज़ पर पहुँचे उनकी मौसी की अवस्था बहुत बिगड़ चुकी थी।

तथापि गुरुजी के कारण उनके अंतिम दिन बहुत प्रसनत्तापूर्वक बीते। उनके परिवार के सदस्य भी उनसे मिल सके। मौसी ने अपने परिवार के सदस्यों को बताया कि गुरुजी के कारण वह उन्हें देख पाये और उनसे बात कर पा रहे हैं। उनकी मृत्यु भी बहुत शांतिपूर्वक हुई।

पर राय को संदेश मिल गया था। यदि वह उन्हें वापस पुणे ले जाते तो उनका अंत संभवतः इस भांति नहीं होता।

गुरुजी के कथन पर पदोन्नति

राय एक बार अपनी कंपनी बदलना चाह रहे थे क्योंकि अपने कार्य में दक्ष होते हुए भी पिछले चार वर्ष से जहाज़ के कप्तान के पद पर उनकी उन्नति रुकी हुई थी।

वह चंडीगढ़ में अपनी पत्नी का जन्मदिवस मना रहे थे जब उनको मुबंई में एक अन्य कंपनी से फोन आया। उन्होंने उन्हें कप्तान के पद पर लेने की बात कही। राय गुरुजी की आज्ञा लेने दिल्ली आये तो गुरुजी ने केवल ‘‘घुम आ’’ कह कर दे दी।

मुंबई पहुँच कर राय ने नियमानुसार अपने स्वास्थ्य परीक्षण करवाये और फिर उस कंपनी के अधिकारियों से मिले। वार्तालाप करते हुए उन्होंने उनके व्यवहार में परिवर्तन देखा। वह उनको कप्तान बनाने से पूर्व दो मास तक जहाज़ पर कार्य करने को कह रहे थे। राय ने मना कर दिया।

वापस आ कर उन्हें पता लगा कि उनकी पुरानी कंपनी उन्हें वापस बुला रही थी। गुरुजी ने उनके साथ कार्य करने का परामर्श दिया। फलस्वरूप राय स्कॉटलैंड गये जहाँ पर उनका जहाज़ बंदरगाह पर आने वाला था। जहाज़ दो-तीन दिन देरी से आया और वह वहीं पर रहे। जिस दिन जहाज़ आने वाला था राय को एक स्वप्न आया। उन्होंने गुरुजी को उन्हें एक तिथि बताते हुए देखाः 14 जुलाई। उनकी नींद टूट गई और बहुत सोचने पर भी उन्हें इस तिथि का अर्थ समझ नहीं आया।

जब जहाज़ आया तो उन्हें जहाज़ के प्रमुख को निवृत नहीं करना था परन्तु जहाज़ प्रमुख को निर्देश था कि वह राय को केरेबियन तक अपने साथ कार्य करवाते हुए ले जाएँ और वहाँ पहुँच कर राय को जहाज़ का उत्तरदायित्व सौंप दें। राय को इस बारे में कुछ नहीं पता था। गंतव्य पर पहुँच कर राय ने अपना कप्तान का कार्यभार संभाला और वह तिथि थी - 14 जुलाई।

उनका स्वप्न साकार हुआ था क्योंकि उन्होंने गुरुजी के कथन का अक्षरशः पालन किया था। अगले नौ माह तक, जब तक वह जहाज़ पर रहे, उन पर गुरुजी की कृपा बनी रही। कृपा अतनी अधिक थी कि वह जो भी चाहते थे हो जाता था। वह इस विचार से भयभीत हुए कि वह कोई अनैतिक इच्छा न कर बैठें।

गुरुजी क्या नहीं कर सकते? 1997 में राय अपना नया पारपत्र (पासपोर्ट) बनावाने मुंबई गये। यह अत्यावश्यक था। जब वह अपना नया पारपत्र बनवा रहे थे तो उन्हें पता लगा कि वह अपना पुराना पारपत्र जिसमें अमरीकी वीसा था, खो चुके हैं। वह अति व्याकुल थे जब उन्हें पारपत्र चुराने वाले गिरोह का एक सदस्य मिला। उसने उनके पारपत्र के विवरण लिए और ढूँढ कर लौटा दिया।

पुणे के चमत्कार

राय का पुत्र भी गुरुकृपा से वंचित नहीं रहा। यद्यपि उसने गणित और विज्ञान विषय लिए थे गुरुजी ने उसे पुणे से कानून का पाठ्यक्रम करने को कहा। पुणे में राय के मामा रहते थे।

पिता-पुत्र जब पुणे पहुँचे तो उन्हें पता लगा कि कोई खाली स्थान नहीं है क्योंकि वह परीक्षा में नहीं बैठा था, उसे कहीं स्थान मिलने की संभावना भी नहीं थी। पुणे विश्वविद्यालय ने और विद्यार्थियों को प्रविष्ट करने का निर्णय लिया। वह परीक्षा में बैठा और उसे प्रवेश मिल गया। गुरुजी ने उसके प्रवेश मिलने पर कहा कि केवल उसको प्रवेश दिलवाने के लिए उन्हें 60 अन्य छात्रों को प्रवेश दिलाना पड़ा। फिर गुरुजी को उसे हर वर्ष उत्तीर्ण भी करना पड़ा। उस पर दिव्य कृपा बनी हुई थी जब गुरुजी ने कहा कि उसके मित्र तो अनुत्तीर्ण होते रहे हैं, वह प्रत्येक वर्ष उत्तीर्ण रहा है।

राय के मामाजी भी लाभान्वित हुए। एक बार गुरुजी ने राय को अपने मामाजी को देने के लिए अपना एक चित्र दिया। यह अचम्भे की बात थी क्योंकि राय ने कभी गुरुजी से अपने मामाजी के बारे में बात नहीं की थी। जब पुणे में राय ने चित्र अपने मामाजी को दिया तो उनके मामा बोल उठे कि गुरुजी को कैसे पता है। राय को कौतुहल हुआ और वह सही बात जानना चाहते थे। यह दुःख की बात थी कि राय के मामाजी के विवाह को 30 वर्ष होने को आये थे किन्तु उनके यहाँ संतान नहीं हुई थी। वह धात्रेय माँ (सरोगेट मदर) से संतान करवाना चाह रहे थे पर वह प्रयास भी असफल रहा था। गुरुजी का चित्र आने के पश्चात् उनके मामाजी के यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ। उस समय तक वह गुरुजी से मिले भी नहीं थे। पुत्र होने के उपरान्त वह पुणे से गुरुजी के दर्शन करने आने लगे।

मध्यरात्रि 3:30 टोक्यो - राय जागे

राय और उनके परिवार के सदस्य गुरुजी के अनुयायी थे, उनके पिता दर्शन के लिए नहीं आना चाहते थे। उनके मतानुसार मनुष्य को अच्छा रह कर केवल ईश्वर से सम्बन्ध बना कर रखना चाहिए। कोई उनके न आने की बात से असहमत भी नहीं था।

एक दिन राय परिवार गुरुजी के दर्शन के लिए अपने पिता को यह बोल कर आये कि वह शहर जा रहे हैं। जब वह गुरुजी के पास आये तो उन्होंने यह जानते हुए कि वह अपने पिता से क्या कह कर आये हैं, उनको शहर जाने को कहा। राय परिवार घर लौटा और प्रेरित होकर अपने पिता को गुरुजी के बारे में बताया।

गुरुजी ने पिता की भी रक्षा की। गुरुजी की आज्ञा पर राय परिवार अपना घर जालंधर से चंडीगढ़ बदल रहा था। परिवार पहले गया और राय के पिता सामान ला रहे थे - उसमें गुरुजी का चित्र भी था। जिस दिन राय के पिता चंडीगढ़ में नये घर में पहुँचे, उनको दिल का दौरा पड़ा। उन्हें सेना चिकित्सालय में ले गये। गुरुजी उस समय दिल्ली में थे और राय अपने जहाज़ पर टोक्यो में।

राय अपने कक्ष में सो रहे थे जो अन्दर से बंद था और उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई पैर हिलाकर उनको जगा रहा है। उसी समय उनकी पत्नी का फोन आया कि उनके पिता की स्थिति ठीक नहीं है। राय ने उत्तर दिया कि उन्हें अभी-अभी गुरुजी ने जगाया है और वह पिता की भी रक्षा करेंगे।

इतने में पता लगा कि उनके पिता की धमनियाँ (रक्तवाहिनी) बंद हो गयी हैं पर वह चिकित्सालय से वापस घर आ गये। दस दिन बाद वह पुनः चेतना खो बैठे। इस बार गुरुजी को समस्या से अवगत कराया गया। उन्होंने दम्पति को बुलाकर उपचार दिया। शीघ्र ही राय के पिता की स्थिति में सुधार आया। पर उनका एक परीक्षण शेष था। गुरुजी ने राय को उससे एक दिन पहले अपने पिता को व्हिस्की का पैग पिलाने को कहा। जब परिणाम आया तो चिकित्सक कुछ नहीं बोले। वह परिणाम लेकर अन्य चिकित्सकों के पास गये। वापस आकर विस्मित चिकित्सक ने बताया कि हृदय तो बिल्कुल ठीक है।

यदि पिता का रोग निदान हुआ था तो माँ को भी गुरुजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। जालंधर में एक बार नहाते हुए उन्हें प्रतीत हुआ कि गुरु ग्रन्थ साहिब के पृष्ठ खुलते जा रहे है और उसमें गुरुजी की मुखाकृति दृष्टिगोचर है। उनकी माँ ने कहा कि दिव्यात्मा ने स्वतः पाठ करवा दिया।

कैप्टेन रवि राय, हयूस्टन, अमरीकी संयुक्त राज्य

जुलाई 2007