एक ताकिया भरोसा तेरे चरना दा

संजीव कश्यप, जुलाई 2007 English
मुझे कुछ विशेष किन्तु असाधारण कारणों से अपनी अच्छी नौकरी छोड़नी पड़ी थी। मुझे विश्वास था कि अपने अत्युत्तम अनुभव के कारण मुझे कहीं भी नयी नौकरी मिल जायेगी। मैं आवेदन भेजता रहा - परन्तु विफल रहा।

पांच छः माह तक मुझे असफलताओं का सामना करना पड़ा। शनैः शनैः पहले मेरा आत्मविश्वास, फिर ईश्वर पर से आस्था उठ गयी और मुझे सामाजिक अपमान भी सहना पड़ा। निराशा और असंतोष के साथ-साथ संचित धन राशि भी कम होने लगी। अंत में मैं अपनी पत्नी को कहने लगा कि कहीं से कीटनाशक लाकर अपने जीवन समाप्त कर लेते हैं। मुझे पता था कि यह अनुचित निर्णय है पर मेरे पास और कोई विकल्प भी नहीं था।

इसी समय एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझे फोन किया। उसके सुझाव पर मैं गुरुजी के पास पहुँचा। मैंने एक संत को अपने आस पास के लोगों से वार्तालाप करते हुए देखा, गुरबानी के शबदों की ध्वनि गूँज रही थी, चाय प्रसाद और उसके पश्चात् लंगर बँट रहा था। लंगर के पश्चात् मैंने गुरुजी से आशीर्वाद लिया और घर लौट आया। मैंने गुरुजी से अपने मित्र के परामर्श पर कुछ नहीं बताया। उसने कहा था कि गुरुजी को कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है, वह सब जानते हैं।

मेरे मन में विचार आया कि मैं गुरुजी के पास कष्ट में पहुँचा था और कष्ट के साथ ही वापस लौटा हूँ - बिना किसी उपचार के। यदि मैं उनको कुछ कह नहीं सकता तो उन्हें मेरी आवश्यकता का पता कैसे लगेगा और यदि मैं अपनी इच्छा व्यक्त नहीं कर सकता तो उनके पास जाने का क्या लाभ? मेरे मित्र ने पुनः उनके पास जाने के लिए बोला, किन्तु मैंने मना कर दिया और उसको कहा, "गुरुजी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने मेरी समस्या सुनी नहीं है। एक पढ़ा-लिखा और समझदार होने के कारण मैं विश्वास नहीं कर सकता कि वह भगवान और सर्वज्ञाता हैं।"

अगले दिन ही मुझे एक अच्छी नौकरी के लिए साक्षात्कार की सूचना आयी। मैंने अपने मित्र को फोन किया तो उसने कहा कि यह गुरुकृपा है। मैंने असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि मैंने इसके लिए 15 दिन पहले आवेदन भेजा था। साक्षात्कार अच्छा हुआ; मैं परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा था। चुने न जाने पर मुझे आश्चर्य हुआ। अन्दर ही अन्दर मैं ध्वस्त हो गया और मैंने कहीं भी आवदेन भेजने बंद कर दिये। अगले दो मास इसी प्रकार निकल गये। मेरी स्थिति अत्यंत निराशाजनक हो गयी थी। एक दिन मेरे मित्र ने पुन: फोन किया और गुरुजी के पास जाने का आदेश दिया। मैं यह सोचकर गया कि प्रयत्न करने में कोई हानि नहीं है; स्थिति इससे और अधिक कितनी बुरी हो सकती है।

मैं संगत को गुरुजी से आज्ञा लेते हुए देख रहा था। मैं गुरुजी से विनती कर रहा था कि मैंने सब प्रयत्न कर लिए हैं और अब कोई मार्ग शेष नहीं है। बार-बार उस दिन सुने हुए एक शबद के शब्द - 'एक ताकिया भरोसा तेरे चरना दा और सब बैधेन्य दे दिया' - मेरे कानों में गूँज रहे थे। कोई एक दर्जन लोग बचे होंगे जब गुरुजी मेरे पास आये। वह बोले, "होर वाई तुं किदां आयां हैं?" स्पष्ट रूप से गुरुजी को पता था कि मैंने उनके अस्तित्व पर संशय किया था, मैं अशक्त और अवाक् रह गया।

बहुत प्रयत्न के साथ मैं धीमे से गुरुजी ही कह पाया था। इतने में उन्होंने पूछ लिया कि मैं किसके साथ आया हूँ। कठिनाई के साथ मैंने उत्तर दिया कि मैं अपनी पत्नी के साथ आया हूँ तो उन्होंने उसे बुलाने के लिए कहा। मैं भाग कर बाहर गया और उसे बुलाकर अन्दर लाया। गुरुजी ने उसका नाम पूछा और बोलेः "चल, जा तेरा कल्याण कर दित्ता"। अगले दो तीन मिनट तक मैं अपने स्थान से उठ नहीं पाया। गुरुजी का आशीर्वाद मिलने के पश्चात् मैंने पुनः आवेदन भेजने आरम्भ कर दिये। मुझे इंटरनेट पर एक रिक्त स्थान दिखायी दिया, मैंने आवेदन भेजा और अगले दिन मुझे साक्षात्कार के लिए बुलावा आ गया। मैं कंपनी के प्रबन्ध निर्देशक और वी पी से मिला और ऐसा लगा जैसे वह मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। दस मिनट के पश्चात् मुझे नियुक्ति पत्र मिल गया था।

उसी शाम मैं गुरुजी के पास अपने कुकर्मों की क्षमा याचना करने गया। मुझे अपनी भूल का आभास था परन्तु उससे अधिक आवश्यक मैं उनका धन्यवाद करना चाहता था। जब चलने का समय हुआ तो मैं पंक्ति से आगे निकल कर उनके पास गया। उन्होंने मुझे देख कर अपना कान मेरी ओर कर दिया। मैंने उनको बताया कि मैं नौ मास से बेकार था और उनकी दया से ही मुझे नौकरी मिली है। गुरुजी पहले तो चुप रहे फिर बोले, "जा फिर, ऐश कर"।

उनके शब्द सत्य सिद्ध हुए हैं। न केवल मुझे कार्य करने में आनंद आता है, मेरे सब कार्य भी सुचारू रूप से पूरे हो जाते हैं। मेरे सहकर्मी प्रभावित हैं परन्तु मुझे पता है कि यह गुरुजी ही कर रहे हैं। मैं अपने साथियों को कहता हूँ कि पहले मैं केवल जीवित था, अब मैंने जीना सीख लिया है।

क्षणिक उपचार

जिसने पीड़ा दी है वही उसकी औषधि भी देगा। पहली बार जब मैं गुरुजी के पास गया था, मेरे घुटनों में बहुत दर्द हो रहा था। मैं एक चिकित्सक के पास गया जिसने कहा कि घुटनों के अस्थिबंध (लिगमन्ट) क्षतिग्रस्त हो गये हैं। मुझे विश्राम करने का और घुटनों को न हिलाने का परामर्श दिया गया; साथ ही औषधियाँ भी दी गयीं। पीड़ा असह्य थी।

जब मेरे मित्र ने मुझे फोन कर गुरुजी के पास जाने के लिए कहा तो मैंने उसको बताया कि मैं तो गुरुजी के पास नौकरी के लिए विनती करने गया था और वहीं पर मेरे अस्थिबंध क्षतिग्रस्त हो गये थे। मेरा मित्र चुप रहा। दो माह के पश्चात् घुटनों का शूल समाप्त हो गया। जब मैं अपने मित्र के दोबारा कहने पर पुनः गुरुजी के पास गया तो मेरे घुटनों में फिर से वेदना आरम्भ हो गयी। इस बार मैं चिकित्सक के पास गया तो उसने एक महंगे उपचार की सलाह दी।

मेरे पास अधिक धन नहीं था और घुटनों के दर्द के साथ उनके पास जाना भी कठिन हो गया। मुझसे चला भी नहीं जाता था। एक दिन मैंने गुरुजी से इस पीड़ा को सह पाने की शक्ति के लिए उनका आह्नान किया। मैं अत्यंत कठिनाई के साथ अपने आप को कार में घुसा पाया और उसे चला कर एम्पायर एस्टेट पहुँच पाया। उस दिन चलते हुए मैंने गुरुजी से विनती की, "तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना।" और अगले क्षण वह पीड़ा समाप्त हो गयी। निश्चित करने के लिए कि मेरा घुटना अब बिलकुल ठीक है, मैं चिकित्सक के पास गया। मुझ से कहीं अधिक मेरे स्वस्थ घुटनों को देख कर उसे आश्चर्य हुआ। उस दिन के पश्चात् मैं किसी चिकित्सक के पास नहीं गया हूँ। गुरुजी को उपचार करने के लिए भक्तों से बात करने की आवश्यकता नहीं है। आप को अनुभूति होती है कि वह कुछ करने के लिए कह रहे हैं और उस क्रिया को करते ही कष्ट से आपका निवारण हो जाता है।

मैंने धूम्रपान छोड़ा

मैं प्रति दिन 30-35 सिगरेट पीता था और तीव्र ऐसिडिटी और उदर समस्या से पीड़ित रहता था। एक दिन सिगरेट पीते हुए मुझे लगा कि गुरुजी सिगरेट बंद करने का आदेश दे रहे हैं। मैंने सिगरेट का वह डिब्बा फेंक दिया। अब मुझे पता है कि गुरुजी ने ऐसा क्यों करवाया। मेरे चिकित्सकों ने बताया कि ऐसा न करने से मुझे अल्सर हो सकता था जो कालांतर में असाध्य केंसर का रूप ले सकता था। रोग का उपचार उसके लक्षण आने से पहले ही हो गया!

गुरुजी मेरे मित्र, दार्शनिक, पथ प्रदर्शक, चिकित्सक और अध्यापक हैं। मैं प्रतिदिन उनकी उपस्थिति का आभास कर सकता हूँ। वह भक्तों में उनके प्रिय रूप में प्रकट होते हैं। वह सब भूमिकाएँ अत्यंत मनोहर ढंग से निभाते हैं - वह शिव हैं। प्रारंभ में यह अविश्वसनीय प्रतीत होता है। बचपन से हमें सिखाया गया है कि जो देवी-देवता मनुष्य रूप में दिखते हैं, उनके चार या आठ हाथ होते हैं और उनके वाहन कोई पशु या पक्षी होते हैं। परन्तु यह केवल सांकेतिक चित्रण है। अतः हमें विश्वास करना अत्यंत कठिन हो जाता है कि हमने इस युग में जन्म लिया है जब शिव इस पृथ्वी पर अवतरित होकर मानव जाति का भला करने स्वयं आये हैं। परन्तु तथ्य सत्य हैं।

संजीव कश्यप, गुड़गाँव

जुलाई 2007