प्रेम प्रवाह की पीड़ा में

स्वर्गीय पूर्णिमा अली, जुलाई 2007 English
गुरुजी से मिलना मेरे जीवन का सबसे सुन्दर अनुभव रहा है। मार्च 2005 में, जब मैं अत्यंत अस्वस्थ चल रही थी, मुझे उनके प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अक्सर मैं चिकित्सालयों में रहा करती थी। मेरे पैर इतने सूजे हुए थे कि मेरी बेटियों को उन्हें उठा कर बिस्तरे या भूमि पर रखना पड़ता था। मैं चलने का सोच भी नहीं सकती थी, ज़मीन पर बैठना तो दूर की बात थी।

पहले दिन जब मैं गुरुजी के पास गयी - मुझे मेरी 96 वर्षीया आँटी, उनके पुत्र और पुत्रवधू लेकर गये थे - मैं चल भी नहीं पा रही थी और मेरी साँस फूल रही थी। लंगर के पश्चात् जब मैं घर गयी तो कई वर्षों बाद मुझे चैन से नींद आयी। गुरुजी के पास आने पर मेरे मधु, रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल के स्तर अति उच्च थे। मुझे थाइरोइड और गुर्दों की समस्याएँ थीं। सोते हुए ऑक्सीजन की कमी के कारण मुझे नींद नहीं आती थी - रोग को निद्रा अश्वसन कहते हैं। मेरे में कोई ऊर्जा नहीं थी और मेरा शरीर इतना फूला हुआ था कि लेटे रहने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकती थी।

गुरुजी ने मुझमें ऊर्जा का संचार किया है और मेरा जीवन ऐसे परिवर्तित किया है जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। यह पुनर्जन्म लेकर जीवन के नये रूप में रहने के समान है। मेरे शारीरिक उपचार के साथ साथ मेरा मानसिक उपचार भी हुआ है।

दूसरे या तीसरे लंगर के पश्चात्, गुरुजी ने हमें लंगर के बाद रोक लिया। उनका प्रेम प्रवाह इतना तीव्र है कि मैं सब कुछ भूल कर उसके आनंद में डूब गयी - सब समस्याएँ भूल कर जीवन इतना सरल हो जाता है कि हम सदा उनके संरक्षण में रहना चाहते हैं।

वह मेरे सर्वस्व हैं क्योंकि मैं उनके बिना कुछ नहीं कर सकती हूँ और कुछ करना भी नहीं चाहती हूँ। त्रिदेव एक ही हैं और वह हमें बचाने के लिए अवतरित हुए हैं। उनके पास पहुँचना ही अपने आप में एक चमत्कार है। हमारे जीवन में उनकी उपस्थिति अनिवार्य है और हम केवल उन्हें अपना अप्रतिबंधित प्रेम और आस्था समर्पित कर सकते हैं। उनके साथ होने का तात्पर्य है कि अपने किसी पिछले जन्म में उनके साथ थे और हम उनके अभिन्न अंग हैं। इसी कारण हम इस जन्म में भी उनके साथ हैं। हमें संगत को अपना वृहत परिवार मानना चाहिए।

मैं गुरुजी के साथ अत्यंत कम समय रह पाई हूँ किन्तु मुझे प्रतीत होता है कि इस अल्पकाल में भी उन्होंने मुझे मृत्यु का ग्रास बनने से बचाया है।

1994 में मेरे पति किसी और से प्रेम करने लगे। मुझे लगा मानो मेरा जीवन ध्वस्त हो गया है। उन्होंने मेरे साथ विश्वासघात किया था। फिर भी मुझे लगता रहा कि एक दिन सब पहले जैसे सामान्य हो जाएगा। हिन्दू परिवार से होते हुए मैंने एक मुसलमान से प्रेम विवाह किया था और धर्म परिवर्तन भी किया था। 2006 में मेरे पति ने अपनी इस प्रेमिका से विवाह कर लिया। यह होने के बाद भी मैं संतुष्ट हूँ। इस शांत भाव की प्राप्ति के लिए गुरुजी ने मुझे आत्म-नाश से रोका - मैं उस अवस्था में थी जब मैं आत्महत्या को छोड़कर कुछ भी करने को तत्पर थी। 1998 में मेरी एक बड़ी शल्य क्रिया हुई थी जो सात - आठ घंटे चली थी। उसके पश्चात् जब मेरी जीवन नैय्या डूब रही थी, गुरुजी ने ही मुझे बचाया था।

कुछ समय पूर्व ही, होली के अवसर पर, मेरे पैरों पर छाले हो गये और किसी कारणवश यह सड़ने लगे। घाव में से बदबू आने लगी। चिकित्सक ने मेरा पैर देख कर कहा कि अंगूठे को काटना पड़ेगा। उस दिन वृहस्पतिवार था और गुरुजी के दर्शन के लिए मेरा नियत दिन शुक्रवार था। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी आज्ञा के बिना मैं कुछ भी करवाने को तैयार नहीं थी। गुरुजी ने कहा कि एक छोटा सा छेद करने से वह ठीक हो जाएगा। वैसा करने से एक माह में मैं ठीक हो गयी। अभी तक मैंने किसी अंग विच्छेदन रोगी को उससे बचते नहीं देखा है।

कभी कभी मैं दुःखी होती हूँ क्यों मैं अपनी शरीर के प्रति इतना असावधान रही हूँ और मैंने उसका ध्यान नहीं रखा हैं। यदि मुझे पता होता कि एक दिन मुझे अपने स्वामी के दर्शन करने पड़ेंगे, तो मैं अपने शरीर को इतना रोगग्रस्त नहीं होने देती और उन पर इतना बोझ नहीं बनती। गुरुजी अपने अनुयायी की वेदना अपने पर अंतरित कर लेते हैं। जब वह हमारे कारण कष्ट उठाते हैं, मैं अपने आप को असहाय पाती हूँ। क्या हम कुछ कर सकते हैं?

मुझे ज्ञात नहीं है कि मैंने उनको पूर्ण समर्पण किया है या नहीं। क्या मुझे संशय है या प्रेम के कुछ तत्व को रोक कर यह उनसे अप्रतिबंधित प्रेम का नाटक है? मुझे पता नहीं है कि प्रेम क्या होता है। मुझे केवल इतना ज्ञान है कि जब से मैं उनसे मिली हूँ, मैं उनकी दिव्यता को प्रतीत करना चाहती हूँ। इससे अधिक और क्या माँगू? गुरुजी का प्रेम सदा हमारे हृदयों में खिलता रहे। कुछ भी हो जाये पर मैं उन तक पहुँचना चाहूँगी । मैं निवेदन करती हूँ कि मेरे कर्मों को इस प्रकार से परिवर्तित करें कि हमें सदा उनकी उपस्थिति का आभास होता रहे। मैं अपने स्वामी के साथ ऐसे ही रहना चाहती हूँ। जितना मैं उनको देखती हूँ, उतनी ही मेरी प्यास बढ़ती है और इस प्यास को बुझाने के लिए एक जीवन पर्याप्त नहीं है। आत्मा की भूख और प्यास का ध्यान तो केवल उसके स्वामी ही रख सकते हैं।

मुझे सदा चिंता लगी रहती थी कि मेरे बाद मेरी अवयस्क बेटियों का क्या होगा? पर उसका भी निर्णय हो गया है। मेरी बेटियों को, अब गुरुजी के संरक्षण में, सुरक्षित होने का आभास होता है। उनको जो प्रेम अपने पिता या मेरे से नहीं मिला वह उनको गुरुजी और उनकी संगत से मिल रहा है। यह बात मुझे आनंदित करती है। मैं मोक्ष का अर्थ नहीं जानती। मेरे लिए उनके दिव्य दर्शन ही मोक्ष हैं।

यह तो मेरी यात्रा का आरम्भ है जिसकी राह का पता नहीं है, किन्तु वह अत्यंत रोचक होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। लक्ष्य तो दिव्य परमात्मा से मिलने का है।

यदा कदा गुरुजी मेरी ओर देखते हैं, मानो कह रहे हों कि तुम्हारे अल्लाह वह नहीं कर पाये जो गुरु ने कर दिखाया है। ऐसे समय पर मैं मूक बन कर उनको देखती रहती हूँ अपना सिर तक नहीं हिला पाती हूँ और कुछ भी कहने में असमर्थ रहती हूँ। आज मुझे लगता है केवल अल्लाह ही यह कह सकते हैं। शनैः शनैः मुझे विश्वास हो गया है कि वह उस सर्व शक्ति और ऊर्जा के स्त्रोत हैं जिसके हम अंग मात्र हैं। विभिन्न काल में विभिन्न अवतारों में वह मानवता को सही मार्ग और उनके कष्टों से बचाने के लिए आये हैं। आप उनको अल्लाह, राम या गुरु नानक, किसी भी नाम से संबोधित कर सकते हैं। मेरी कामना है कि मेरा मन उस स्तर पर पहुँच सके जहाँ पर मुझे केवल उनका आभास हो और मुझे सदा उनके कमल चरणों में स्थान मिले। मेरा गुरु प्रेम इतना सशक्त हो कि उनके और मेरे मध्य और कोई न आ सके। सच्चे भक्त की भांति मैं उनकी सराहना कर सकूँ क्योंकि उन्होंने हमें वह सब दिया है जो हमारे लिए आवश्यक था। हम तुच्छ प्राणी उनके लिए कुछ भी करने में असमर्थ हैं। हम केवल उनके प्रति धन्यवाद और हार्दिक आभार प्रकट कर उन्हें जीवन पर्यंत याद रख सकते हैं। वह सदा हमारे दुष्कर्मों को क्षमा करें। हम मनुष्य हैं और भूल कर सकते हैं। तो, गुरुजी कृपया हमें मोह से बचाएँ और हमारी अंतिम साँस तक आपके प्रति श्रद्धा सदा विकसित होती रहे। उसके पश्चात् हमें आपकी सहायता की आवश्यकता और अधिक होगी। हम आपकी छत्रछाया में सौभाग्यशाली हैं; भावात्मक ढंग से हम सुरिक्षत हैं और इतने पूर्ण हैं कि अशांति का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।

मैं अपने आप से पूर्णतया संतुष्ट हूँ। यह प्रशांत भाव है। कभी कभी मेरे हृदय में कृतज्ञता का प्रवाह इतना अधिक होता है कि मेरी अश्रुधारा बहने लगती है। यह अति सुन्दर अनुभव होता है जब केवल प्रेम के कारण आँसू बहें। गुरुजी के पास दो बार आने के पश्चात् मुझमें उनके समीप होने की चाहत बढ़ गयी है। मैं अपने आप को रोक नहीं पाती थी। मेरे पति को क्रोध आता था और हम झगड़ते थे पर मैं गुरुजी के पास पहुँच जाती थी। हर बार गुरुजी प्रश्न किया करते थे कि मैंने क्या बहाना बनाया है और मैं व्यथित होती थी कि उन्हें कैसे पता। किन्तु अब मुझे पता हे कि वह तो स्वयं परमात्मा हैं और उनको प्रत्येक कर्म का ज्ञान है। हम कठपुतलियों को उनकी उँगलियों पर नाचना है, उनके बिना हमारा अस्तित्व ही नहीं है।

गुरुजी के बारे में लिखना सरल नहीं है - उनके आकर्षण को शब्दों में प्रकट करना अत्यंत कठिन है। यदि सारे महासागर स्याही बन जाएँ और सारी पृथ्वी कागज़, तो भी यह संभव नहीं हो पायेगा। मैं अपने प्रभु और स्वामी की प्रशंसा प्रलय तक करती रहना चाहूँगी। कृपा करें कि मैं ऐसा कर सकूँ । शब्द कम पड़ जायेंगे किन्तु मेरी भावना कम नहीं होगी। अंत में मैं अपनी पाँचों इन्द्रियाँ उनके चरणों में समर्पित करना चाहूँगी और वह मेरी इस भेंट को स्वीकार करें।

स्वर्गीय पूर्णिमा अली, दिल्ली

जुलाई 2007