सदा दानी पिता परमेश्वर

नीरू भारद्वाज, दिसम्बर 2006 English
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु साक्षात् पारब्रह्म, तस्मै श्री गुरवै नम:।।

हम उस अदृष्ट और अज्ञात शक्ति में विश्वास रखते आये हैं जो हमारी आस्था और विचारों से अपनी उपस्थिति का ज्ञान देती रही है। विभिन्न युगों में वह अवतरित होती रही है और इस युग में वह गुरुजी के रूप में हमारे बीच आयी है। इस पृथ्वी के सभी वासी, भले ही उनसे अपरिचित हों, उनके उदात्त कल्याण की भावना से लाभान्वित हुए हैं। ऐसे अनेक अवसर आये हैं जब हमें हर क्षण उनके अविरत आशीर्वाद प्राप्त हुए हैं। इतने छोटे से प्रसंग में उनके बारे में सब कुछ कहना और लिख पाना असंभव है फिर भी, मैं अपने कुछ संस्मरण आपके साथ बाँटना चाहूँगी।

प्रारम्भ में हमें उनके मंदिर में आने में संशय था क्योंकि हमें सदा से संत और सन्यासियों में विश्वास नहीं रहा है। यह भी सत्य है कि उनकी दिव्य कृपा तभी प्राप्त होती है जब वह चाहें। इस प्रकार गुरुजी ने हमें, नवम्बर 1995 में, जालंधर में, अपने पास बुलाया। मेरे पति एक गंभीर त्वचा रोग की समस्या से पीड़ित थे, जिसे सोरायसिस के नाम से भी जाना जाता है। पिछले आठ वर्षों में हर प्रकार के उपचार करवा लिए थे किन्तु लाभ नहीं हुआ था। सिर से पाँव तक उनके शरीर पर लाल रंग की सतह बन रही थी जिस पर श्वेत पपड़ी जमी हुई थी और सदा खुजली होती रहती थी। उनका सिर पत्थर की भांति सख्त था और उनके जननांग भी इस रोग के प्रकोप से नहीं बचे थे। उनका मानसिक कष्ट और बढ़ जाता था जब उनके परिचित भी उनके पास खडे़ नहीं होना चाहते थे।

कुछ और उपाय न होने के कारण हम हिचकिचाहट के साथ गुरुजी के दर्शन के लिए गए। बीती बातों को याद करते हुए मैं सोचती हूँ कि हम कितने भाग्यवान थे। प्रारम्भिक दिनों में गुरुजी के हाथों से दिव्य प्रसाद की उत्पत्ति का दृश्य हमने एक दो बार नहीं अपितु छ: या सात बार देखा है। हमारी संदिग्ध मानसिकता की समाप्ति 1 जनवरी 1996 को हुई जब गुरुजी ने मेरे पति को ताम्र लोटा लाने को कहा। उसे उन्होंने अभिमंत्रित किया और मेरे पति को उसमें से प्रतिदिन आधा जल पीकर शेष से स्नान करने को कहा। चमत्कारिक रूप से वह कुछ ही दिनों में पुन: स्वस्थ हो गये।

अन्त: स्त्रव समस्या की मुक्ति

उन्हीं दिनों मेरा हाइपोथयरॉइड का उपचार चल रहा था। मैं प्रतिदिन आल्थ्रोक्सिन की दो गोलियाँ लेती थी जो बहुत अधिक मानी जाती हैं। एक दिन मैं गुरुजी के चरणों में बैठी हुई थी कि उन्होंने कहा, "नीरू आंटी, तेरा हार्मोनल प्रॉब्लम ठीक कर दित्ता ऐ"। मैं स्तब्ध रह गयी क्योंकि मैंने कभी भी उनको इसके बारे में नहीं बताया था। मुझे पहली बार अनुभव हुआ कि उनको कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है, वह सब कुछ जानते हैं। उसके बाद जब सब परिणाम सही निकले तो मैंने औषधियाँ बंद कर दीं।

फिर, पंचकुला में रहते हुए मुझे कुछ स्त्री रोग सम्बंधित समस्याएँ हो गयीं। औषधियों से उनका निवारण नहीं हो पा रहा था। मुझे रात को 10-12 बार लघुशंका निवारण के लिए उठना पड़ता था; कुछ अन्य समस्याएँ भी थीं। इनके कारण मैं ठीक से सो नहीं पाती थी और फिर दिन भर व्याकुल रहती थी।

गुरुजी उस समय दिल्ली में थे। संयोग से मेरे पति को दिल्ली कार्यालय सम्बंधित एक भेंट के लिए जाना पड़ा। मैंने उनके साथ जाने की योजना बनायी जिससे हम शाम को गुरुजी के दर्शन कर सकें। हमने अपनी छोटी बेटी को यह सोच कर घर पर छोड़ दिया था कि अगले दिन सुबह तो लौट ही आयेंगे। परन्तु उस दिन शाम को गुरुजी ने दर्शन के पश्चात्, जब हम उनसे चलने की आज्ञा ले रहे थे, हमें चार दिन और रहने के लिए कहा। आनंदित होकर हमने तुरन्त हामी भर दी। हम वहाँ चार दिन रहे और चाय और लंगर प्रसाद का आनंद उठाया। चौथे दिन उन्होंने हमें जाने की अनुमति दी।

घर आकर मैं चैन से सो पायी - मुझे आभास हुआ कि उन्होंने मुझे मेरे रोग से मुक्त कर दिया था। एक सप्ताह के पश्चात् हम पुन: उनके दर्शन के लिए जा सके। मिलने पर पहली बात उन्होंने कही, "नीरू आंटी, सू सू ठीक होया?" सब हँस पड़े। जब मैंने उनके चरण स्पर्श किये तो उन्होंने बताया कि उन्होंने मेरे पेट के रसौली (टूमर) का उपचार कर दिया था। मैंने तो उनको कुछ भी नहीं बताया था!

बेटी का त्वचा रोग

जून मास में एक दिन, सिंगला अंकल ने मुझे गुरुजी का सन्देश दिया कि वह बुला रहे हैं। मैंने सोचा कि संभवत: वह सत्संग करने के लिए बुला रहे हैं। किन्तु गुरुजी ने अपने लिए, मुझे एक आयुर्वेदिक औषधि की दूकान से एक विशेष दवाई लेने को कहा जो केवल निर्यात की जाती थी। गुरुजी की दया से हमें वह औषधि भी मिल गयी जो सामान्यत: बिना चिकित्सक के परामर्श के नहीं मिलती थी। गुरुजी ने एक गोली दूध के साथ शाम को ली। 15-20 दिनों के पश्चात् उन्होंने उसे वापस करने के लिए कहा क्योंकि वह अति तीक्ष्ण थी। हमने प्रयास किया किन्तु निर्यात की समस्या के कारण उसे लौटा नहीं सके। वह महँगी थी और गुरुजी ने उसकी काफी मात्रा मँगाई थी।

अगस्त के अंत में मेरी छोटी बेटी तान्या, जो उस समय आठवीं कक्षा में थी, के मुख पर चकते हो गये। चिकित्सकों के अनुसार वह सोरायसिस था। हम स्तब्ध रह गये। एक मास तक इसी उलझन में रहे कि गुरुजी को बताया जाये या नहीं। हमने उन्हें अक्टूबर में बताया और उन्होंने पुन: ताम्र लोटा लाने के लिए कहा जिसे उन्होंने अभिमंत्रित कर उसका जल पीने और स्नान करने के लिए कहा। गुरुजी ने उसके पिता के इसी रोग का तीव्रता से उपचार किया था। इस बार भी वैसी ही आशा थी किन्तु ऐसा नहीं हुआ; आशा के विपरीत एक मास में ही उसका रोग पूरे शरीर में फैल गया। शारीरिक रूप से रोग ग्रस्त होते हुए वह मानसिक रूप से सशक्त थी। उनकी ऐसी दया से वह सदा उत्साहित और आशावादी रही। इस अवधि में गुरुजी कहीं चले गये थे और उनसे संपर्क करना संभव नहीं था। पड़ोसियों से लेकर तान्या की मुख्याध्यापिका तक, सबने उसकी भलाई के लिए शीघ्र कुछ करने के लिए कहा। परन्तु हमारे कुछ कहने से पूर्व ही वह कहती थी कि उसके गुरुजी ही उचित समय आने पर उसका उपचार कर देंगे। इस अवधि में उस बच्ची ने इतना सहा कि हमसे उसकी वेदना देखी नहीं जाती थी। उसके सिर पर भी कड़े चकते हो गये थे और वह अपने बाल तक नहीं कर पाती थी। ऐसी विपदा के समय उनकी दया का प्रभाव अधिक देख सकते हैं; उन्होंने एक छोटे से बच्चे को भी इतना साहस और सामर्थ्य प्रदान किया था।

गुरुजी जनवरी में लौट आये और सबसे पहले उन्होंने उसे वह आयुर्वेदिक औषधि देने को कहा। तब हमें आभास हुआ कि वह औषधि उसके लिए मँगाई गई थी। औषधि 40 दिन तक देना अनिवार्य था। तान्या के दवाई लेने का चालीसवाँ दिन शिवरात्रि था और उस दिन उन्होंने औषधि बंद करने को कहा। दिव्य गणना! अगले दिन से उसके स्वास्थ्य में परिवर्तन होना आरम्भ हो गया और ग्रीष्मावकाश में जब वह अपने ननिहाल गई तो पूरी तरह से रोगमुक्त हो चुकी थी। कभी-कभी उसके मुँह पर एकाध निशान आ जाते हैं। मुझे विश्वास है कि गुरुजी उसके पिछले जन्मों के कर्म नष्ट कर रहे हैं। उन्होंने मुझे बताया था कि उनके हस्तक्षेप के बिना वह जीवन पर्यन्त ऐसे ही रहती।

एक जीवन रक्षा के लिए 90 की जीवन रक्षा

अगस्त 2002 में एक शनिवार को मेरे पति ने फोन पर बताया कि वह घर आ रहे हैं। उन दिनों वह बेलगाँव में कार्यरत थे। वह शनिवार को गोवा एक्सप्रेस में चढ़े और सोमवार को प्रात: घर पहुँचने वाले थे। उसी दिन मैं और मेरी बेटी गुरुजी के दर्शन के लिए गए। वह दिन अति आनंददायक था क्योंकि गुरुजी ने मुझे अपने पास बिठाया और मेरे से लम्बा सत्संग कराया। मैंने लंगर भी अधिक किया क्योंकि किसी कारणवश मेरी थाली में दाल या सब्जी वाले स्थान पर लाल मिर्च की चटनी परोस दी गई थी। यह कैसा संयोग था? चटनी समाप्त करने के लिए मुझे अधिक चपातियाँ और दाल खानी पड़ीं। गुरुजी से आज्ञा लेते समय वह बोले, "आंटी, आज तेरा कल्याण कर दिया।" मैं आनंदित थी।

प्रात:काल मेरे पति के फोन से मेरी नींद टूटी। वह बोले कि सब कुछ ठीक है और चिंता की कोई बात नहीं है। फिर उन्होंने बताया कि उनकी रेलगाड़ी के कुछ बोगी पटरी से उतर गये थे। इतना कह कर उन्होंने फोन बंद कर दिया। तब मैंने पिछले दिन गुरुजी के यहाँ की घटनाओं से सम्बन्ध स्थापित किया और मैं भावुक हो गयी। टी.वी. लगाने पर मैंने समाचारों में सुना कि उस गाड़ी के सात बोगी पटरी से उतरे थे किन्तु कोई घायल नहीं हुआ था। मैं अत्यंत बेचैन थी और तुरन्त बड़े मंदिर गई। वहाँ पर सबसे पहले मुझे श्री सिंगला की बेटी आरती मिली। मेरी मन:स्थिति से अपरिचित उसने पिछली रात को इतनी चटनी खाने के लिए मुझे छेड़ा। जब मैंने उसे रेल दुर्घटना की बात बताई तो वह स्तब्ध रह गयी। उसने तुरन्त अपनी माँ को बुलाया और उन दोनों ने मुझे गले से लगा लिया; हमारी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। हमने वह दिन आपस में सत्संग करते हुए व्यतीत किया।

उस दिन संध्या को जब मैं गुरुजी के पास गई तो उन्होंने पूछा कि क्या मैं उनको रेल दुर्घटना के बारे में बताने आयी हूँ, मैं केवल अपना सिर हिला सकती थी। उन्होंने कहा कि एक भक्त को बचाने के लिए उन्होंने 90 अन्य यात्रियों की जीवन रक्षा की थी। इस तथ्य की पुष्टि श्रीमती सब्बरवाल ने भी की। क्या इस पुष्टि की आवश्यकता है? उन्होंने कहा कि उस रात को 1:30 बजे अचानक गुरुजी ने कहा कि उन्होंने 90 लोगों को जीवन दान दिया था। वही रेल दुर्घटना का समय था। दिल्ली में बैठे हुए उन्होंने पुणे के पास यह चमत्कार किया था। क्या परमेश्वर के अतिरिक्त कोई ऐसा कर सकता था?

प्रार्थना का बल

गुरुजी को बोलने की आवश्यकता नहीं है। हृदय से कही हुई प्रार्थना उनके पास पहुँच जाती है। एक दिन, प्रात:काल मैं शिव पुराण पढ़ रही थी। उसमें एक सन्दर्भ आता है कि ईश्वर भौतिक रूप में किसी को स्पर्श नहीं करते, किन्तु यदि वह ऐसा करें तो कुल की आनेवाली पीढ़ियों को उनका आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है। मैंने सोचा कि गुरुजी कैसे दूर से ही आशीष दे देते हैं। शाम को हम गुरुजी के यहाँ पहुँचे तो वह अपने कक्ष में थे और हमें बुला रहे थे। हम उनके सामने भूमि पर ही बैठ गये और वह हमसे बात करने लगे। अचानक उन्होंने अपनी बाँह मेरी ओर की और मुझे अपना कन्धा दबाने को कहा। फिर उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर, शुद्ध हिंदी में, जो मैंने पढ़ा था वह बोल दिया।

एक अन्य अवसर पर हमें अम्बाला से हरिद्वार जाना था। एक तीव्र गति वाली ट्रेन अम्बाला से 10:30 बजे चलकर दो-तीन घंटों में वहाँ पहुंचा देती थी। जब हम स्टेशन पहुँचे तो 10:35 हो गये थे। मेरे पति बस से जाने को तत्पर थे। मैं नहीं मानी और उनको कहा कि उत्तर प्रदेश की सड़कों की दुर्दशा देखते हुए 5-6 घंटे लग जायेंगे। हमने एक कूली से पूछा तो उसने कहा कि वह कभी भी देरी से नहीं चलती परन्तु आज वह दस मिनट देरी से चल रही है; उसने यह भी बताया कि उसके जाने का सिग्नल हो चुका है और वह जाने वाली है। अनजाने में मैंने गुरुजी से विनती की कि हम ट्रेन पकड़ पायें। मेरे पति ने मुझे शीघ्रता से पुल के ऊपर से जाकर ट्रेन में बैठने को कहा। वह प्लेटफार्म टिकट लेने वाले थे क्योंकि दूसरी पंक्ति बहुत लम्बी थी। इस बीच में मैं भाग कर सीढ़ियों से उस स्थान पर उतरी जहाँ इंजन था और उसी समय ट्रेन चलने लगी। मूर्खों की भांति मैंने अपना हाथ इंजन चालक की ओर कर के हिलाना शुरू कर दिया जैसे बस को रोकने का संकेत देते हैं। अगले आठ-दस मिनट तक, जब तक मेरे पति नहीं आये और हम ट्रेन में नहीं चढ़े, वह रुकी रही।

घर पर बिना मूल्य के पिज़्ज़ा

14 अगस्त को स्वाधीनता दिवस के अवसर पर डोमिनो कंपनी ने एक पिज़्ज़ा के साथ एक पिज़्ज़ा मुफ्त देने की घोषण की थी। यह योजना सुन कर मेरी छोटी बेटी पिज़्ज़ा खाने को अति उत्सुक थी। किन्तु मैंने उसे बताया कि इस महीने व्यय पहले ही अधिक हो गये हैं तो कोई पिज़्ज़ा नहीं मिलेगा। उपहास करते हुए उसने कहा, "गुरुजी, यह अच्छा नहीं है, आपको पता है कि मुझे पिज़्ज़ा पसंद हैं।"

शाम को संगत के कुछ मित्र घर पर रात्रि भोज के लिए आ रहे थे। मैंने भोजन बना लिया था। किन्तु जब वह आए तो उन्होंने कहा कि बच्चों को पिज़्ज़ा पसंद हैं इसीलिए उन्होंने पहले ही दो बड़े पिज़्ज़ा यहाँ पर आने का प्रबन्ध कर दिया है। उनको मुफ्त पिज़्ज़ा वाली योजना का पता नहीं था। जब पिज़्ज़ा आये तो मुफ्त पिज़्ज़ा नहीं आए थे। पिज़्ज़ा लाने वाला वह पिज़्ज़ा छोड़ कर शेष दो पिज़्ज़ा लाने के लिए गया। इस अवधि में जब हमने पिज़्ज़ा खोले तो उनमें से एक माँसाहारी था - आदेश में शाकाहारी पिज़्ज़ा भेजने के लिए कहा गया था। हमने डोमिनो में फोन किया तो उन्होंने क्षमा याचना करी और कहा कि वह गलती सुधार देंगे। इस बीच में पिज़्ज़ा पहुँचाने वाला घर आ गया - उनमें भी एक ही शाकाहारी था। अब तक हमारे यहाँ आए हुए मित्र को क्रोध आ गया और उन्होंने सीधे प्रबन्धक से फोन पर बात करी। कुछ देर में वह प्रबन्धक हमारे घर अपने सहकर्मियों के साथ आए और बहुत लज्जित हुए। उन्होंने कहा कि हम जब चाहें चार पिज़्ज़ा मुफ्रत में ले सकते हैं। क्योंकि बड़े पिज़्ज़ा एक साथ खाना कठिन है, हमने प्रात: नाश्ते में भी पिज़्ज़ा खाए। अगले कुछ माह तक हम मुफ्त पिज़्ज़ा खाते रहे।

मेरे पति को स्थिर नौकरी

मेरे पति औषधि उद्योग में मार्केटिंग में थे। उनके पास सदा से घूमने का काम रहा है, जिसमें न कोई कार्यालय है न ही कोई समय सीमा। तीन वर्ष पूर्व जब वह कर्नाटक में थे तो हमें उनकी कमी का आभास सदा रहता था। एक दिन बड़े मंदिर के हॉल में मैं आँखे बंद कर के बैठी हुई थी। मैं सोच रही थी कि कितना अच्छा हो यदि इन्हें किसी कार्यालय में स्थिर कार्य मिल जाए और मैं प्रतिदिन इनके लिए भोजन डिब्बे में दे सकूँ। अचानक संगत की एक महिला मेरे पास आईं और कहा कि मेरी कामना पूर्ण हो जाएगी। आश्चर्य चकित हो कर मैंने अपनी आँखें खोली और उनको भी उसी विस्मय की अवस्था में पाया। कुछ ही दिनों में मेरे पति को अपनी नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा। किन्तु गुरुजी की दया से उन्हें यहीं पर नौ से पाँच वाली एक स्थायी नौकरी मिल गई। अब जब भी वह शहर में होते हैं उन्हें कोई बाहर का काम नहीं होता है। प्रतिदिन मुझे उनका दोपहर का भोजन डिब्बे में देना पड़ता है (अब कभी-कभी मुझे यह आनंदित नहीं करता है)। उनके कार्यालय में कोई औपचारिकता नहीं है - वह बहुत आराम से यदा कदा चप्पलों में भी चले जाते हैं।

मुझे सदा सेंडल पहनने पड़ते हैं।

ऐसे ही 14 अप्रैल को बैसाखी के अवसर पर मेरी सेंडल का तला बाहर आ गया। मैं कुछ नहीं कर सकती थी। मैंने सोचा कि बाहर जाते हुए उन्हें हाथ में लेकर नंगे पैर चली जाऊँगी। जब मैं बाहर आई मुझे अपनी टूटी हुई सेंडल कहीं दिखायी नहीं दीं। उन्हें खोजते हुए मुझे एक अन्य वैसी ही सेंडल दिखायी दीं। उठा कर जब उनके चिह्न देखे तो वह मेरे ही सेंडल के थे, किन्तु अचम्भे की बात है कि वह नये हो गये थे।

बेटी का कानून स्कूल में प्रवेश

यद्यपि मेरी बड़ी बेटी मेघा बारहवीं कक्षा विज्ञान विषयों से कर रही थी, गुरुजी नहीं चाहते थे कि वह आगे विज्ञान पढ़े। एक संगत में उन्होंने उसे कानून में विद्या अर्जित करने का संकेत दिया था। उसने उनके निर्देशानुसार प्रवेश पत्र भरा और प्रवेश परीक्षा में गई। उसके आश्चर्य को ठिकाना नहीं रहा, जब उसे पता चला कि अन्य परीक्षार्थी तो उसके लिए विशेष प्रशीक्षण प्राप्त कर के आये हुए हैं। वह गुरुजी को याद कर के परीक्षा में बैठ गयी। हजारों में से केवल 900 अगले चरण के लिए चुने गये जिसमें वाद-विवाद और साक्षात्कार होना था। अंतिम चरण में विश्वविद्यालय में केवल 250 चुने जाने थे। गुरुकृपा से उसका नाम प्रवेश सूची में था।

शाम को जब हमने उसके प्रवेश का समाचार उन्हें दिया, तो वह अत्यंत प्रसन्न होकर बोले कि यह तो पहली अवस्था है, आगे आगे देखो क्या होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी अनन्य दया से वह बहुत अच्छा कर रही है।

गुरुजी की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए भी उनके पुण्य प्रभावों के गुणगान करते जा सकते हैं। चूंकि वह मानव रूप में हैं, हम उनको अलौकिक प्रतिभाओं से परिपूर्ण महापुरुष के रूप में देखते हैं। पर वह इस पृथ्वी के समस्त वासियों से भिन्न हैं। वह तो शिव समान अनूठे हैं। शिव गुरुजी हैं और गुरुजी शिव हैं - वह तो परम हैं।

इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उनके पास आकर सब शांतिपूर्वक और सहजता से हो जाएगा। वह कर्मों के अनुसार प्रत्येक अनुयायी को जीवन के उतार चढ़ाव भी दिखाते हैं। वह समस्त संबंधों की अनिवार्यता के दर्शन भी करा देते हैं। जब प्रतीत होता है कि आप अकेले हैं, संवेदित हो कर वह अपनी निकटता जता देते हैं। कोई बात कहे बिना भी वह अपनी सुगन्ध के माध्यम से आपके पास आ जाते हैं। यद्यपि यह अति कठिन है, इस मायावादी संसार से मुक्त होकर उनको समर्पण करने में ही हित है। लेकिन-किन्तु-परन्तु छोड़ कर उनके बताये पथ पर चलना ही श्रेष्ठ है; जीवन कितना सरस और मधुर हो जाता है। जीवन के सकारात्मक रूप देखते हुए, आस्था सहित आनंद लेने में ही लाभ है। वह सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिशाली और सर्व विद्यमान हैं, वह हमारे पता लगे बिना ही सुनते हैं, देखते हैं और जो हितकर हो वह करते हैं।

मेघा ने उनके लिए यह कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं:

धन्यवाद गुरुजी

गिर कर उठते हैं हम क्यों?
हँस कर सहते हैं दर्द हम क्यों?
मुस्कुराते हैं बारिश में हम क्यों?
कारण है उनकी अमूल्य दया जो हमें मिली है,
जीवन में है उनका प्रेम जो सदा हमारे साथ है।
आप हमारे जीवन की परम शक्ति हैं,
आप ही मानव रूप में सर्वोच्च शक्ति हैं।
आप हर शंका का अंतिम समाधान हैं,
आप ही सबके परम आनंद हैं दयालु मेघ भांति।
हम आपसे प्रेम करते हैं, आदर देते हैं, नमन और प्रार्थना करते हैं।
आप हमें अपने ह्रदय में स्थान दें और सदा स्वीकार करें।

नीरू भारद्वाज

दिसम्बर 2006